क्या इस पिछड़े माने जाने वाले समाज से कुछ सीखेंगे हम...?

क्या इस पिछड़े माने जाने वाले समाज से कुछ सीखेंगे हम...?

पौराणिक कथाओं में सुनते हैं कि भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतारा। गंगा के प्रवाह को शिव ने अपनी जटाओं में ले लिया। इस कथा की अपनी-अपनी मान्यता से व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन इस ज़माने में गंगा को जमीन में उतारने की कोशिश को आप अब भी देख सकते हैं। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में रजत बूंदों को जमीन में उतारने की कोशिश अब एक मिसाल बन गई है। विकास और तरक्की से कोसों दूर कहे और माने जाने वाले एक आदिवासी-बहुल जिले में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, वह कई अगड़े जिलों के लिए सीख देने वाला प्रयास है। यहां के हजारों ग्रामीणों ने पांच घंटे के छोटे-से वक्त में बंजर पहाड़ी पर हजारों जलसंरचनाएं बना दीं।

मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में आदिवासी समाज की एक प्रथा है हलमा। हलमा के तहत आदिवासी समाज शादी-विवाह, खेती-किसानी और ऐसे अन्य मौकों पर एक-दूसरे की मदद करता है। इस परंपरा के तहत हर परिवार से एक वयस्क व्यक्ति मदद के लिए आगे आता है। यह गांव के सहयोग और साथ काम करने का अनुपम उदाहरण है। मान लीजिए, किसी किसान को आज बुआई के लिए ज़रूरत है तो उसके साथ हलमा करने के लिए पूरा गांव सामने आएगा, ऐसे ही अगले दिन किसी और का नंबर होगा। इस तरह यह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक जीवन बनता है, और यह समाज आगे बढ़ता है। यह श्रम के विनिमय और सहजीवन के सिद्धांत पर आधारित है...
 

इन पिछड़े कहे जाने वाले लोगों के जीवन में हलमा अब से नहीं, कई सौ साल पहले से, जब आज की तरह आजीविका का आधार आर्थिक मुद्रा नहीं हो पाई थी, महकता रहा है। यह अलग बात है कि वक्त के साथ जब बाकी दुनिया का इन लोगों से संपर्क बन रहा है और उसके प्रभाव से आदिवासी समाज और इनकी परंपराएं नहीं बच पाई हैं, तब हलमा और इस जैसी परंपराएं लगातार कम होती जा रही हैं।

इस परंपरा को यहां पुनर्जीवित करने की कोशिश स्थानीय समाज ने की। इसी हलमा को जलसंरक्षण का आधार बनाया गया है। झाबुआ जिले में, जहां जंगल तेजी से खत्म हुए हैं, हर तरह की प्राकृतिक संपदा को तेजी से उलीचा गया है, वहीं हलमा के जरिये पहाड़ों में फिर जान डालने की कोशिश की जा रही है। जब यहां हलमा के लिए हजारों की संख्या में हाथ खड़े होते हैं, और पहाड़ों पर कुछ ही घंटों में संरचनाएं श्रम की बूंदों से चमक उठती हैं, तब निश्चित ही विकास के लिए केवल सरकार की ओर मुंह देखने वाले अंधेरे समाज को कुछ रोशनी मिलती है।

विकास का एक पक्ष यह है कि जब यह केवल सरकार की ओर से होता है, यानी, उसमें समाज की भागीदारी नहीं होती, तो बहुत बार उसके प्रति कोई संवेदनशील नजरिया नहीं होता। अक्सर सार्वजनिक संपत्ति का इस्तेमाल ऐसे ही होता है कि वह तो सरकारी है। सार्वजनिक संपत्ति आपकी अपनी है, यह स्लोगन भी बहुत काम नहीं आता, लेकिन जहां विकास के कामों में लोगों की किसी भी तरह की भागीदारी होती है, वहां ऐसे अनुभव रहे हैं कि समाज ने उसे ठीक ढंग से इस्तेमाल किया है, और उस पर निगरानी रखी है।
 


हमने हाल ही में हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर यही सब देखा, जहां नुकसान का ठीक-ठीक आंकड़ा अभी तक सामने नहीं आया है, लेकिन वह कम नहीं है। सोचिए, सार्वजनिक संपत्ति में लोगों की भागीदारी से बनाए गए निर्माण को क्या ऐसे विध्वंस में डाला जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली बार, जब आरक्षण की ऐसी आग राजस्थान में भड़की थी, इस संबंध में सरकार के सार्वजनिक संपत्ति क्षति निरोधक अधिनियम, 1984 को पर्याप्त नहीं माना था। इसके बाद सेवानिवृत्त जज केडी थॉमस और वरिष्ठ वकील फली एस. नरीमन की अध्यक्षता में दो समितियों का गठन किया, जिन्होंने प्रस्ताव दिए थे कि सार्वजनिक सम्पत्ति क्षति विरोधक अधिनियम, 1984 के प्रावधानों को और मजबूत बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही आंदोलन के दौरान तोड़फोड़ के लिए नेताओं की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। इसके बाद भी हरियाणा में जो कुछ हुआ, उसे पूरे देश ने देखा। उसके कुछ ही दिन बाद, इसी देश ने पानी के लिए सरकार का मुंह न ताक, खुद कुदाली उठाने वाले हाथों को भी देखा है।

विचार यह नहीं है कि लोककल्याणकारी राज्य में सरकार को लोककल्याण और सरोकारी योजनाओं, या यूं कहिए कि अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाए, बल्कि विचार यह भी है कि समाज अपने आसपास के विकास और ज़रूरतों के लिए कितना सजग और सक्रिय है। यही सजगता आगे चलकर नीतियों की पहरेदारी में भी काम आने वाली है, इसलिए इन अनपढ़ और पिछड़े माने जाने वाले लोगों से हमें कुछ काम के पाठ पढ़ने ही चाहिए।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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