महाकाल की नगरी उज्जैन में आगामी 22 अप्रैल से 21 मई के बीच एक माह के लिए सिंहस्थ का आयोजन किया जा रहा है। प्रत्येक 12 साल बाद होने वाले इस महाआयोजन का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। एक माह की अवधि के दौरान करीब 15 लाख लोग रोज क्षिप्रा में स्नान करेंगे। पांच लाख की आबादी वाले शहर में पांच करोड़ लोगों का आ जाना चुनौती है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका व्यवस्थागत नजरिये से सरकार की ही है। इसके लिए उसने पूरा प्रबंधन तैयार किया है, और क्रियान्वयन के लिए भी वही जिम्मेदार है, लेकिन हम इस आयोजन में शरीक होने वाले लोगों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते, जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। सरकार केवल योजना बनाती है, लेकिन उस योजना का पालन करने की जिम्मेदारी तो वहां आ रहे लोगों पर ही होती है, और वह भी तब, जब लोग वहां एक योजनागत तरीके से आ रहे हों।
चिंता वाली बात यह है कि अमूमन भीड़ ऐसा नहीं करती। इसके तमाम उदाहरण सामने हैं, जो बड़ी दुर्घटनाओं के रूप में सामने आए हैं। तीन साल पहले नवरात्रि में देवी पीठ रतनपुर में भी ऐसा ही हादसा देख चुके हैं। इस दुर्घटना में भी 115 लोग मारे गए थे और 100 से ज्यादा घायल भी हो गए थे। खोजें तो इसके और भी उदाहरण सामने आएंगे। इंटरनेट सर्च में प्रयाग महाकुंभ में ही भगदड़ की खबर सामने आती हैं, जब 800 लोग मारे गए थे और तकरीबन 2,000 घायल हुए थे। हालांकि यह 1954 की घटना है और उसके बाद गंगा, यमुना और क्षिप्रा में बहुत पानी बह चुका है, सो, अब हम यही उम्मीद और आशा करते हैं कि इस बार क्षिप्रा तट से ऐसी कोई बुरी खबर सुनाई नहीं देगी।
उज्जैन में 10 स्थायी थानों के माध्यम से सुरक्षा व्यवस्था तय की जाती है। सिंहस्थ के नजरिये से 51 अस्थायी थाने खोले गए हैं। बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों के लिए बेहतर व्यवस्था की बात की जा रही है, लेकिन सचमुच व्यवस्था को बेहतर बनाना चुनौती होगा। दिल्ली से लेकर उज्जैन तक सिंहस्थ की ब्रांडिंग एक बड़े आयोजन के रूप में खूब होती रही है, हो रही है, लेकिन ऐसे होर्डिंग और विज्ञापन कम ही दिखाई दिए, जहां इसे सुरक्षित बनाए जाने की बात की जा रही हो।
भीड़ का प्रबंधन तो ज़रूरी है ही, इसके बरक्स बच्चों की सुरक्षा भी बेहद ज़रूरी है। हम फिल्मों में कुंभ में भाइयों के बिछुड़ जाने के किस्से सुनते रहे हैं। पिछले सिंहस्थ में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 197 बच्चे गुम हुए थे। इस बार बच्चे गुम न हों, इसके लिए उनके हाथों में बार कोड जैसी बेल्ट बांधे जाने की योजना सामने आई थी। व्यावहारिक रूप से यह कैसे संभव होगा। यह तो भीड़ को एक जगह जमा होने देने जैसी कवायद होगी, जबकि भीड़ के प्रबंधन का सबसे पहला नियम तो यही है कि उसे कहीं भी रोका नहीं जाना चाहिए।
केरल की घटना एक सबक की तरह सामने आई है, सरकार इससे चेतेगी। उसे चेतना ही होगा। व्यवस्थाओं में और कसावट लानी होगी, लेकिन यह भागीदार लोगों के लिए भी बड़ा सबक है। यह उनकी अपनी सुरक्षा का सवाल है, इसलिए समाज का हर तबका मिलकर ही इसे सुरक्षित और आनंदमय बना सकता है।
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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