क्या पर्यटन का अर्थ कहीं छुट्टी के दिन बिताना भर है...?

क्या पर्यटन का अर्थ कहीं छुट्टी के दिन बिताना भर है...?

आगरा स्थित ताजमहल में पर्यटक (फाइल फोटो)

- विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष -

पर्यटन को अब अंग्रेज़ी के टूरिज़्म शब्द से समझना अधिक आसान हो गया है. जब हम टूरिज़्म कहते हैं तो कुछ दिन और रात के पैकेज के साथ किसी दूर की जगह पर समय बिताना टूरिज़्म हो जाता है. इसका केंद्रीय भाव आज के संदर्भ में यह अधिक है कि रोज-रोज के काम और परिवार की ज़िन्दगी से थोड़ी फुर्सत निकालकर कहीं वक्त बिताना, जो ज़्यादातर कुदरती खूबसूरती के बीच होता है. इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन समृद्ध परंपराओं वाले देश में पर्यटन का अर्थ यहीं तक सीमित होते देखने पर चिंता ज़रूर होनी चाहिए. जिस देश में टूरिज़्म या पर्यटन से भी पहले देशाटन की संस्कृति मौजूद हो और जिसका समाज से करीब का रिश्ता हो, वैसी परंपराओं का एक दूसरी परंपरा में तब्दील होना थोड़ी तकलीफ तो देता ही है. वह भी ऐसे वक्त में, जब टूरिज़्म कराने वाले का ध्यान देशी-विदेशी टूरिस्ट बढ़ाने और उसी हिसाब से लाभ-हानि के गणित में ज़्यादा लगता हो.

क्या वास्तव में पर्यटन से समाज का वास्ता है...? क्या पर्यटन का मतलब केवल पांच-सितारा होटल, रिसॉर्ट और हवाई यात्राएं ही है...? क्या पर्यटन की एक नीति बनाते समय समाज, उसकी सुरक्षा, पर्यटन क्षेत्रों के ज़रिये समाज को जानने और समझने की प्रक्रिया नहीं चलती...? क्या पर्यटन का मतलब केवल छुट्टी के कुछ दिन बिताना है...? जिस तरह का प्रचार-प्रसार आज किया जाता है, उसमें तो यही लगता है कि केवल पूंजीपति पर्यटकों और उनकी विलासिता की ज़रूरत को ही पूरा करना है.

भारत मूलत: देशाटन करने वाला राष्ट्र है, जहां लोग एक खास मकसद से यात्रा करते रहे हैं. यहां की परंपराओं और रीति-रिवाजों में वह ऐसे पगा है कि सीधे तौर पर दिखाई भी नहीं देता कि यह पर्यटन ही है. वह धार्मिक यात्राओं के बहाने हो या पौराणिक कहानियों के. वह हमें सीख भी देता है और संतुष्टि भी. लंबी पैदल और सामूहिक यात्राएं करना, ताकि स्थान और समाज को जड़ों से जाना जा सके. किस देश में कौन-सी फसलें हैं, किस नदी के पानी की क्या खासियत है, किन जंगलों में कौन-से पेड़-पौधे और फल खास हैं, यह छोटी-छोटी चीजें प्राथमिकताओं से नदारद हैं. अब यदि वैष्णो देवी या सम्मेद शिखर के पहाड़ों की यात्रा हवा में की जाएगी, तो क्या कुछ जाना जा सकेगा...? क्या वास्तव में उस स्थान के अध्यात्म और सौंदर्य को सुकून से महसूस किया जा सकेगा...? हो सकता है, इससे समय की बचत हो जाती हो, जो आज के भागमभाग के दौर में बेहद मुश्किल से मिलता है, लेकिन सही मायनों में सुकून और शांति से किया गया पर्यटन ही सही संतुष्टि देता है.

वह केवल अच्छा खाना भर नहीं है, वह केवल वातानुकूलित कमरा और समुद्र का किनारा नहीं है. मुश्किल यह आती है कि अब कश्मीर से लेकर गोवा तक चायनीज़ खाना आसानी से मिल जाता है, लेकिन यदि आप उनसे कुछ वहां के समाज का मूल भोजन मांग बैठें तो हाथ खड़े कर दिए जाते हैं. स्थानीय परिवेश और रीति-रिवाजों को जाने बिना क्या एक सफर पूरा हो सकता है. ऐसे चीजें सामने भी आती हैं, तो वह बाजार के एजेंडे के रूप में ही सामने आती हैं.

भारत में वर्ष 2013 में 114 करोड़ देशी पर्यटक यात्राएं हुईं, जबकि यहां विदेशी पर्यटक यात्राओं की संख्या 1.99 करोड़ रही. विदेशी मुद्रा के रूप में 18.5 अरब डॉलर भारत को प्राप्त हुए. देश के पूरे लेन-देन में पर्यटन क्षेत्र आज लगभग सात लाख करोड़ रुपये का योगदान देता है.

यह एक बड़ी रकम है, और भारत में इसे बढ़ाए जाने की अपार संभावनाएं भी हैं, लेकिन उसके लिए ज़रूरी यह है कि नीतियों में उसे किस रूप में सोचा-समझा जा रहा और उसका प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. यदि हम दुनिया की केवल कुदरती खूबसूरती से आकर्षित होते हैं और ऐसे इलाकों के आसपास की संस्कृति और समाज के बारे में ठीक ढंग से सोचते-समझते हुए उसे केंद्र में अपनी नीतियों में समाहित नहीं करते हैं, तो यह हमारी सोच का एक सीमित दायरा ही है. लेकिन सोचना इस बात को भी पड़ेगा कि पर्यटकों को बढ़ाए जाने के साथ ही क्या समाज के मूल स्वरूप का संरक्षण भी किया जा रहा है या नहीं.

आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2002 में भारत में 27 करोड़ घरेलू पर्यटक थे, जो वर्ष 2014 में बढ़कर 114 करोड़ हो गए हैं, जो आने वाले सालों में और बढ़ेंगे, लेकिन क्या इसके समानांतर यह भी सोचा जा रहा है कि पर्यटन क्षेत्र नए पर्यटकों का बोझ उठा पाने में सक्षम है भी या नहीं...? या इसे भी व्यवस्थित किए जाने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय पारिस्थितिकी, पर्यावरण और बुनियादी सुविधाओं पर इस संख्या का कोई बुरा असर न पड़े. बद्रीनाथ-केदारनाथ में पर्यटकों की संख्या 20 सालों में 10 गुना बढ़ गई और वहां उसी गति से निर्माण कार्य भी हुए, लेकिन कुदरती रूप से क्या पहाड़ इन ढांचों के निर्माण के भार को सहन कर पाएंगे...?

पर्यटन में एक मसला सुरक्षा का भी जुड़ता है. जब तक हम अपनी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद नहीं कर लेते, पर्यटन को सुरक्षित और सम्मानजनक नहीं बना देते, पर्यटकों के संख्या उस गति से नहीं बढ़ेगी.

...और उस पर्यटन की स्थिति तो बिल्कुल ही बदलनी चाहिए, जिसके लिए दुनिया के दूसरे देशों में इसे माना जाता है. जब कोई विदेशी पर्यटक भारत में गरीब-लाचार लोगों की तस्वीरें लेता है, कुपोषित बच्चों की तस्वीरें उतारता है, सड़क पर भीख मांगते लोगों को दया का पात्र मानता है, ढाबों-होटलों में बच्चों को टेबल साफ करते देखता है, तो वह समझता है, यही भारत है. ऐसे भारत पर हमको भी दया आती है. हम कामना करते हैं किसी भी पर्यटक को ऐसा भारत खोजने से भी न मिले.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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