अंसारी बंधु अपराध से जुड़े हैं तो क्या, धर्मनिरपेक्ष तो हैं...!

अंसारी बंधु अपराध से जुड़े हैं तो क्या, धर्मनिरपेक्ष तो हैं...!

समाजवादी पार्टी नेता शिवपाल यादव के साथ अंसारी बंधु (फाइल फोटो)

उत्तर प्रदेश में हर चुनाव से पहले होने वाले राजनीतिक घटनाक्रम की तरह इस बार भी पहिये घूमने शुरू हो गए हैं। सभी दलों में घर के भेदियों और कथित रूप से विश्वासघात करने वालों की पहचान शुरू हो गई है, और पुराने दोस्तों को ढूंढकर उन्हें गले लगाने का सिलसिला भी। सही मायनों में इसकी शुरुआत अप्रैल में ही हो गई थी, जब सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने एक दूसरे के खेमों से डांवाडोल लोगों को टटोलकर उनका पाला बदलना शुरू करवाया था, और फिर जल्द ही बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला।

निश्चित तौर पर चूंकि दांव पर सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी का ही लगा है, इसलिए सपा में ऐसी कोशिशें ज्यादा दिख रहीं हैं। पहले बेनीप्रसाद वर्मा, फिर अमर सिंह, फिर राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह (उनकी 'अभी हां, अभी ना' के बावजूद) और अब पार्टी के पुराने साथी अंसारी बन्धु भी सपा के पक्ष में सामाजिक-राजनीतिक माहौल बनाने की मुहिम में जुड़ गए हैं।

अंसारी बन्धु उत्तर प्रदेश के पूर्वी-उत्तरी क्षेत्र के जाने-माने बाहुबली हैं। उनकी हनक आज से नहीं, एक दशक से भी ज्यादा पहले से है, और उनके नाम से मऊ, गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़ और आसपास के क्षेत्र के लोग अच्छे से परिचित हैं।

कौमी एकता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख़्तार अंसारी हैं, और मऊ से विधायक हैं। तमाम मामलों (जिनमे हत्या भी शामिल है) में जेल में हैं और उनके जेल में रहते हुए ही भारतीय जनता पार्टी के नेता कृष्णानंद राय की हत्या हुई थी, जिसमें वह और उनके साथी प्रमुख आरोपी थे। उनके एक भाई सिग्बतुल्ला अंसारी मोहम्मदाबाद से विधायक हैं और तीसरे भाई अफज़ल अंसारी पार्टी महासचिव हैं और वर्ष 2004 में गाजीपुर से सपा के सांसद थे, लेकिन 2009 में सपा से नाराजगी के चलते बसपा में गए, लेकिन लोकसभा चुनाव हार गए।

सपा और कौमी एकता दल के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन की चर्चा काफी दिनों से चल रही थी, लेकिन इन सबके आगे जाते हुए कौमी एकता दल ने सपा में विलय की घोषणा कर किसी भी प्रकार के पुनर्विचार की अटकलों पर ही विराम लगा दिया।

अजीब बात यह है कि दल के विलय के बावजूद मुख़्तार अंसारी को सपा में शामिल नहीं किया गया है। विलय का ऐलान शिवपाल यादव ने लखनऊ में स्वयं किया, जहां अफज़ल भी मौजूद थे। मुख़्तार मऊ से लगातार विधायक रहे हैं, लेकिन इस बार सपा ने वहां से अल्ताफ अंसारी को अपना प्रत्याशी घोषित किया है, और मोहम्मदाबाद से भी सपा ने राजेश कुशवाहा का नाम घोषित कर रखा है। ऐसे में देखना होगा कि विलय के बाद की परिस्थिति में सपा अपना प्रत्याशी बदलती है या नहीं।

ज़ाहिर है, इस विलय से सपा में मुस्लिम समुदाय के बीच पैठ और मजबूत करने का गणित है, और तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' ताकतों को मजबूत करने का मंसूबा भी, लेकिन प्रदेश के लोगों के बीच यह जानकारी छिपी नहीं है कि अंसारी बन्धु स्वयं धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करते हैं या और कुछ।

यह उनकी छवि का ही प्रभाव हो सकता है कि विलय से जुड़े पूरे प्रकरण पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अलग नजर आते हैं। विलय वाले दिन (21 जून को) अखिलेश ने अन्यत्र एक समारोह में पूछे जाने पर कहा कि सपा को चुनाव जीतने के लिए किसी दल की ज़रूरत नहीं है, और वह अकेले दम अपने काम के बल पर दोबारा सत्ता में आएगी, लेकिन शाम होते-होते अखिलेश ने अपने मंत्रिमंडल से एक वरिष्ठ मंत्री बलराम सिंह यादव को बर्खास्त कर दिया – चर्चा यह है कि बलराम यादव ने अफज़ल अंसारी से मिलकर कौमी एकता दल का सपा में विलय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यदि इस विलय की पैरवी करने की 'गलती' की वजह से बलराम यादव का मंत्रिपद गया, तो विलय होने पर – जिसमें शिवपाल स्वयं मौजूद थे - अखिलेश की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है।

ऐसा संभव है कि सपा में चुनाव जीतने को लेकर मुख्यमंत्री और पार्टी के स्तर पर अलग-अलग विचार हों। जहां मुख्यमंत्री आश्वस्त हो सकते हैं कि केवल उनकी छवि और काम के आधार पर लोग उन्हें समर्थन देंगे, वहीं पार्टी के वरिष्ठ नेता यह सोच सकते हैं कि चुनाव जीतने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने में कुछ गलत नहीं। यहां कुछ साल पहले पुराने सपा नेता डीपी यादव के सपा में आने के प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज करने का प्रकरण याद आता है। और फिर हाल की वह घटना भी याद आती है, जब अखिलेश ने एक कार्यक्रम में इलाहाबाद के प्रसिद्द बाहुबली नेता अतीक अहमद को एक तरह से मंच से नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया था।

फिर इन घटनाओं को उस चित्र से जोड़िए, जहां शिवपाल अपने एक ओर अफज़ल अंसारी और दूसरी ओर सिग्बतुल्ला अंसारी का हाथ ऊपर उठाए धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ सपा का हाथ होने का ऐलान कर रहे हैं।

क्या सपा को मुस्लिम समर्थन वास्तव में इतना कमजोर पड़ गया है कि उसे अंसारी बंधुओं के दल को अपने में विलय करने की नौबत आ गई...? और क्या अखिलेश इस विलय से इतने नाराज हैं कि इसकी पैरवी करने वाले पुराने और वरिष्ठ मंत्री को उन्होंने इसीलिए मंत्रिमंडल से निकाल दिया...?

इसका जवाब अधिकारिक तौर पर तो नहीं, लेकिन आने वाले दिनों में होने वाली घटनाओं और दिए जाने वाले बयानों से मिलेगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम वर्ग के समर्थन के नाम पर हो रही राजनीति का कथाक्रम अभी जारी है।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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