असम विधानसभा चुनाव : सरायघाट के युद्ध का 2016 संस्करण

असम विधानसभा चुनाव : सरायघाट के युद्ध का 2016 संस्करण

असम निवासियों से आजकल शेष भारत में रहने वाले उनके संबंधी और मित्र एक ही सवाल पूछ रहे हैं – क्या होगा इस बार के विधानसभा चुनाव के बाद...? क्या उनके प्रदेश में सरकार बदलने जा रही है...? यह सवाल केवल राजनीति या पत्रकारिता से जुड़े हुए लोग नहीं, व्यापार या अन्य क्षेत्रों में नौकरी करने वाले भी पूछ रहे हैं।

असम के निवासियों को इस बात का मलाल रहता है कि शेष भारत में अधिकतर लोग कोलकाता के आगे पूर्वोत्तर के सभी क्षेत्रों को असम समझते हैं, जबकि वहां सात अन्य राज्य भी हैं। असम में चुनाव प्रचार का भी वह असर देशभर में नहीं दिखता, जो अन्य राज्यों के चुनाव के दौरान नज़र आता है – शायद इसलिए कि प्रमुख टीवी चैनल असम चुनाव प्रचार को वह प्रमुखता नहीं देते, जो अन्य प्रदेशों के शहरी या पंचायत चुनाव को मिलती है। शायद यही वजह है कि राजधानी गुवाहाटी में बाज़ार, ऑफिस या शोरूम में काम करने वाले हों, या गैर-शहरी क्षेत्रों में रहने वाले किसान या मजदूर, उनकी दिनचर्या में चुनावी गपशप की ज्यादा जगह नहीं है। इसके बजाए उन्होंने 4 अप्रैल को पहले चरण के मतदान वाले दिन ही 80 प्रतिशत मतदान करके अपनी राय जाहिर कर दी।

'70 के दशक में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से गैरकानूनी तरीके से भारत आने वाले लोगों के प्रति स्थानीय जनसंख्या के विरोध के नतीजे के तौर पर बनी असम गण परिषद (एजीपी), अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली ऑल इंडिया यूनाइटेड डेवलपमेंट फ्रंट (यूडीएफ), बोडो समुदाय का प्रतिनिधित्त्व करने वाली बोडो पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) अब असम के राजनीतिक परिदृश्य में प्रमुख दल हैं। राज्य में पिछले तीन चुनाव के बाद से कांग्रेस की सरकार बनती आ रही है, लेकिन अब वर्तमान मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अपनी उम्र और नएपन के अभाव में कुछ थके नज़र आते हैं। अपने वर्चस्व और प्रभाव को बनाए रखने के लिए उन्होंने बड़ी चतुराई से असम के चुनाव को कांग्रेस बनाम बीजेपी के बजाए मोदी बनाम गोगोई का दर्जा देने की कोशिश की है, लेकिन असम में गैरकानूनी अप्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से जनसंख्या में और यहां की परंपरागत संस्कृति में आए बदलाव के प्रति स्थानीय निवासियों में रोष है। बीजेपी ने इसी रोष की बदौलत बहुसंख्यक समुदाय के बीच पैठ बनाने में सफलता हासिल की है और पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की सातों सीटें बीजेपी ने जीतकर अपनी इस मजबूती का एहसास भी कराया था।

इस चुनाव में एजीपी और बीपीएफ के साथ समझौते के बाद बीजेपी, गोगोई और उनकी सहयोगी, लेकिन छोटी पार्टियां (ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी) के गठबंधन को हराकर अपने को सत्ता का मजबूत दावेदार मान रही हैं। वर्तमान 126 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी के पास केवल पांच विधायक हैं।

असम के नतीजों से गोगोई ही नहीं, राहुल गांधी के नेतृत्व की भी परीक्षा होनी है, क्योंकि जिन दो अन्य प्रमुख राज्यों में चुनाव हो रहे हैं (पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु) वहां सत्तारूढ़ दलों की नेताओं जयललिता और ममता बनर्जी के ही पुनः जीतने की उम्मीद जताई जा रही है। ऐसे में उन राज्यों में तो वही दल बीजेपी के प्रमुख विरोधियों के तौर पर उभरेंगे और कांग्रेस की स्थिति जस की तस बनी रहेगी। ऐसे में असम में ही कांग्रेस के पास मौका है कि वह बीजेपी को टक्कर देकर मोदी के चुनावी जादू का असर और कम करने में सफल हो पाए।

ट्रेन से आते समय गुवाहाटी से कुछ पहले ही ब्रह्मपुत्र नदी पर बने 1.5 किलोमीटर लंबे सरायघाट पुल से जब गाड़ी गुज़रती है, तब आपको देश से कहीं दूर होने का एहसास होता है। वर्ष 1963 में बने इस ऐतिहासिक पुल पर नीचे ट्रेन और ऊपर सड़क यातायात चलता है और इस पुल पर देश के सभी बड़े पुलों में संभवतः सबसे अधिक सुरक्षा व्यवस्था है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1671 की प्रसिद्ध सरायघाट की लड़ाई में स्थानीय राजा लचित बरफुकन की सेना ने मुगल सम्राट औरंगजेब की सेना को जबरदस्त शिकस्त दी थी। असम के लोग आज भी उस युद्ध को गर्व से असम की प्रतिष्ठा के रूप में याद करते हैं। यह भी वर्तमान राजनीति का विरोधाभास है कि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही इस चुनाव में अपने संभावित जीत को सरायघाट की लड़ाई के परिणाम के तौर पर पेश कर रहे हैं।

आज से कुछ दशक पहले गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, बंगईगांव या तेजपुर प्रमुख तौर पर रेलवे शहरों के तौर ही जाने जाते थे, और वहां ज़िन्दगी में इतना तनाव नहीं था। आज जब असम निवासी अपने लिए नई सरकार चुनने के लिए एक चरण की वोटिंग कर चुके हैं और 11 अप्रैल को दूसरे और अंतिम चरण का मतदान होना है, तो सवाल उठता है – क्या असम में शांति और विकास की गाड़ी पटरी पर बनी रहेगी...?

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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