प्रातःकालीन डायरी : कहीं होता हूं, जागता कहीं और हूं...

एकदम से सुबह की रौशनी बिखर जाने से ठीक पहले का सफ़ेद अंधेरा. जाती हुई रात अपने आख़िरी वक्त में सफ़ेद लगती है. रात गहराने से पहले भौंक कर सोने वाले कुत्ते भी सुबह होने से पहले भौंकने लगते हैं,

प्रातःकालीन डायरी : कहीं होता हूं, जागता कहीं और हूं...

एकदम से सुबह की रौशनी बिखर जाने से ठीक पहले का सफ़ेद अंधेरा. जाती हुई रात अपने आख़िरी वक्त में सफ़ेद लगती है. रात गहराने से पहले भौंक कर सोने वाले कुत्ते भी सुबह होने से पहले भौंकने लगते हैं, कौआ पहले बोलता है या गौरैया पहले बोलती है. ची ची ची ची। ची च। ची ची ची ची. पेड़ पर कुछ कोलाहल तो है. हवा ठंडी है. ऐसे वक्त की खुली दुकानों की अपनी ख़ुश्बू होती है. भीतर बल्ब जल रहा है. बाहर सड़क पर थोड़ी सफ़ाई हो चुकी है. दुकान की बेंच बाहर रखी जा रही है. भजन बज रहा है. चूल्हे की आँच तेज़ हो रही है. दूर से कोई पैदल आता दिख रहा है. दुकान की तरफ़. दुकान तक पहुँचने से पहले ही कोई शीशे की ग्लास खनका कर रख देता है. तभी कूड़ा उठाने वाली गाड़ी तेज़ी से गुज़र जाती है. पिछले दिनों का कचरा सड़क पर पड़ा है. 

सुबह सुबह वाली बस गला खखार रही है, उसे स्टार्ट कर ड्राइवर और ख़लासी चाय की दुकान पर हैं. चाय पी जा रही है. किसी की बीड़ी के धुएँ से हल्की गरमाहट है. खैनी रगड़ी जा रही है. पास के मंदिर में भी कोई जाग गया है. भजन का लाउडस्पीकर ऑन है. उसकी आवाज़ से बंद पड़ी दुकानें थिरकने लगती हैं. सुबह की नमाज़ हो चुकी है. मस्जिद की तरफ़ कोई जाता तो दिखा नहीं. एक दो लोग दिखते हैं. बाउंड्री वॉल से लगे पीले कनैल का फूल तोड़ते हुए. पीतल की डाली में पीले कनैल. ये वो लोग हैं जो साल भर पूजा करते हैं. साल भर कनैल तोड़ते हैं. मुझे तो लगता है कि कनैल के फूल रात में खिलते ही इसलिए है. डाल को झुका कर, अपनी तरफ़ खींच कर फूल खोज रहा है.

चाय बन चुकी है. दुकान से गुजरता हुआ राम राम कहता जाता है. तभी पेपर वाला आकर रूकता है. आज का अख़बार दो. सुबह सुबह जागने की अनुभूति को क्या वह वैसे ही संजोता होगा या फिर वह नींद न आने की बीमारी के रूप में देखता होगा? मुझे हमेशा से सुबह जागना अच्छा लगता है. पहले जागने का सुख फ़र्स्ट आने के लिए जागने का सुख नहीं है. यह बस सुबह की ताज़ी हवा को छूने का सुख है. तभी मोटर लगा ठेला सब्ज़ी मार्केट से आता दिखता है. वो मुझसे भी पहले का जागा है. दरअसल सबसे पहले कोई नहीं जागता, मुझे पता नहीं क्यों इस वक्त लग रहा है कि मैं समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से गुजर रहा हूं. बंद पड़ी दुकानें के बीच जागी हुई दुकानें देख रहा हूं. दही चूड़ा वाली दुकानें खुल गई हैं. अबकोचिंग के लिए जाती साइकिलें दिख रही है. लंबी कापियां करियर में दबा दी गई हैं. मैं हूँ किसी और शहर में मगर जाग कहीं और रहा हूं. 

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