किसान प्रतिज्ञा : यहीं डटे रहेंगे, यहीं बोएंगे, यहीं का खाएंगे...

अगर सरकार MSP पर दाल की खरीद ज़्यादा करती तो किसान धान और गेहूं के अलावा इसकी खेती की तरफ मुड़ते. पंजाब के किसानों से हमने बात की.  वे बता रहे हैं कि 80 के दशक तक पंजाब अपनी ज़रूरत की दाल पैदा कर लेता था लेकिन धीरे धीरे घटता गया और अब ज़रूरत का  सिर्फ 3 प्रतिशत दाल का उत्पादन होता है.

किसान प्रतिज्ञा : यहीं डटे रहेंगे, यहीं बोएंगे, यहीं का खाएंगे...

किसान आंदोलन में आए किसान लगता है कि इस इरादे से भी आए हैं कि दिल्ली के आस-पास खेती के निशान छोड़ जाएंगे. बहादुरगढ़ हाइवे के बाइपास की किसानों ने सफाई और जुताई शुरू कर दी है.उजाड़ सी इन जगहों को खेत में बदल दिया है. किसानों का कहना है कि वे यहां धनिया, बैंगन के साथ दूसरी सब्ज़ियां भी उगाएंगे. अगर मोदी सरकार ने कानून वापस ले लिए तो इन सब्ज़ियों को सरकार के लोग खा लेंगे और अगर आंदोलन लंबा चला तो इन सब्ज़ियों को आंदोलनकारी खाएंगे. यही डटे रहेंगे यही बोयेंगे और यहीं का खाएंगे. 

इस बीच सरकार ने 106 पन्नों की एक किताब जारी की है जिसमें कृषि सुधार से संबंधित तमाम दावे किए गए हैं. इसमें गुजरात मॉडल की चर्चा बड़े दिनों के बाद की गई है. तत्कालीन मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के खेती से जुड़े सुधारों का ज़िक्र है. उस समय के इकोनमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड, फोर्ब्स पत्रिका की हेडलाइन है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात की खेती बदल दी है. इसमें तत्कालीन उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी से पुरस्कार लेते हुए एक तस्वीर भी है. ज़रूरत पड़ने पर हामिद अंसानी काम आ गए वर्ना आप याद करें कि इनकी टोपी और सलामी को लेकर कैसे कैसे विवाद हुआ करते थे.

काश आज के गुजरात के खेती की हालत का ब्यौरा इस रिपोर्ट में दिया होता तो 10 अगस्त के हिन्दू बिजनेस लाइन की एक रिपोर्ट भी मिलती जिसके अनुसार गुजरात प्रधानमंत्री फसल बीमा से अलग हो गया है क्योंकि प्रीमियम का बोझ नहीं उठा पा रहा है. इस किताब में लिखा है कि प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना लांच की गई जिसमें 20,000 करोड़ का निवेश हुआ. लेकिन पूरे मंत्रालय का बजट ही 800 करोड़ रुपये का है.

ऐसा लगता है कि आंकड़ों की गुलाबी खेती की गई है. 106 पन्नों के ई बुक में लिखा है कि मोदी सरकार 22000 ग्रामीण हाट बनाने की दिशा में काम कर रही है. इसके बारे में हमने कुछ दिन पहले प्राइम टाइम में बताया था. 2018-19 के बजट में वित्त मंत्री ने कहा था कि 585 एपीएमसी मंडियों और 22,000 ग्रामीण कृषि हाट को रुरल हाट में अपग्रेड कर ई-नाम से जोड़ा जाएगा. लेकिन इसके लिए पैसा मनरेगा और अन्य योजनाओं के बजट से आएगा. हैं न कमाल. पैसे का हिसाब देखिए..

- 2018-19 के बजट में वित्त मंत्री ने कृषि मंडियों के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 2000 करोड़ के फंड के गठन की बात कही थी. 

- एक साल बाद 6 फरवरी 2019 की PIB की प्रेस रिलीज कहती है कि कैबिनेट ने 2000 करोड़ के फंड को मंज़री दे दी है. एक साल तक कुछ नहीं हुआ.

- हिसाब लगाइए तो एक मंडी के लिए 10 लाख रुपये भी नहीं होते हैं. इतने से क्या विकास हो जाएगा. 

एक साल बाद स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में कहा जाता है कि 22,000 मंडियों की जगह 46,00 मंडियां विकसित की जाएंगी. 20 मार्च 2020 को राज्य सभा में नरेंद्र सिंह तोमर कृषि मंत्री ने लिखित जवाब में कहा कि उनके पास राज्यवार डेटा नहीं है कि कितनी मंडियों का विकास हुआ. ये हाल है. और फिर से इस रिपोर्ट में लिखा है कि 22000 ग्रामीण हाटों का विकास हो रहा है. डू ये गेट माई प्वाइंट. आज के प्राइम टाइम में हम एक दावे पर विशेष रुप से बात करना चाहेंगे जिसके बारे में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल औऱ भारतीय जनता पार्टी ने अपने हैंडल से ट्विट किया था. उस ट्विट में जो सामग्री है उसका कुछ हिस्सा 106 पन्नों की इस ई-बुक में भी है जो कृषि मंत्रालय ने जारी की है. आप देख सकेंगे कि सरकार ने खुद को किस तरह प्रचार युद्ध में झोंक दिया. बहुत सी बातें वहीं हैं जो अब तक कहीं जा चुकी हैं जिसे किसान ठुकरा चुके हैं. आज ऐसे ही एक ट्वीट की कहानी बताने जा रहा हूं जिसे बीजेपी ने 6 दिसंबर को अपने हैंडल से जारी किया था. 

इसमें एकदम नीचे लिखा है सोर्स मीडिया रिपोर्ट्स. वैसे मीडिया में ये जानकारी PIB के हवाले से छपी है. अब पोस्टर के ऊपर आइये. यहां हेडिंग में लिखा है कि मोदी सरकार ने MSP में की अभूतपूर्व वृद्धि . ये जानकारी बीजेपी को मीडिया रिपोर्ट्स से मिलती है. अब पोस्टर के ऊपर बीजेपी ने अपनी तरफ से जो लिखा है उसे पढ़ें. पार्टी लिखती है कि जब MSP की निरंतरता को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है तब एक नज़र UPA और मोदी सरकार के अंतर्गत MSP मूल्यों पर की गई खरीद के आंकड़े डालिए. ध्यान से सुना आपने. लिखा है MSP पर की गई खरीद के आंकड़े. इस लिहाज़ से दलहन की खरीद 7500 परसेंट अधिक है और गेहूं की खरीद में 177 प्रतिशत है. UPA के भ्रम को दूर करने के नाम पर इस ट्वीट के ज़रिए एक नया भ्रम पैदा किया जा रहा है. जबकि इसी ट्विट में इस्तमाल पोस्टर में कुल खरीद की जगह राशि का ज़िक्र है. 

अब इसमें बताया गया है कि यूपीए यानी 2009 से 14 के बीच धान पर 2.06 लाख करोड़ की MSP दी गई. एनडीए सरकार के छह साल में 4.95 लाख करोड़ की MSP दी गई. 240 प्रतिशत की वृद्धि हुई.दलहन पर यूपीए ने 645 करोड़ की MSP दी थी तो एनडीए ने 49000 करोड़ की सब्सिडी की. 7500 प्रतिशत ज्यादा दी. उसी तरह गेहूं पर यूपीए की तुलना में एनडीए के दौरान 177 फीसदी अधिक MSP दी गई. 

एक चीज़ समझनी होगी. 9 जुलाई 2013 को खाद्य सुरक्षा कानून पास हुआ था जिसे लागू किया मोदी सरकार ने. तो खाद्य सुरक्षा यानी अनाज की खरीद का बिल बढ़ना ही था. सवाल है क्या उस अनुपात में बढ़ा जिस अनुपात में लोगों को ज़रूरत थी? PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च ने 2010 से 2020-21 के दौरान हर साल के फूड सब्सिडी बिल का अध्ययन किया है. इसके अनुसार 2014-15 में 28 फीसदी और 2015-16 में 18 फीसदी की वृद्धि हुई, 2016-17 में -21 फीसदी की कमी हो गई और 2017-18 में -9 फीसदी की कमी हो गई.  और 2018-19 में 1 प्रतिशत की वृद्धि होती है. 

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फूड कमिश्नर एन सी सक्सेना का कहना है कि यूपीए के दौर में जो अनाज मिलता था एन डी ए के दौर में भी उतना ही मिलता है. सिर्फ खर्चा बढ़ा है. सिम्पल सवाल है. जब पैसा ज़्यादा खर्चकर रहे हैं तो क्या खरीद भी ज़्यादा हो रही है? बड़ी राशि बताई जाती है ताकि हेडलाइन मोटी हो जाए लेकिन देखना होगा कि कितना पैसा बजट से आता है और कितना पैसा लोन के रुप में आता है कि आप लोन ले लें. जैसे इसी 6 अक्तूबर को संदीप दास ने डाउन टू अर्थ में एक लेख छापा है कि सरकार सब्सिडी की पूरी राशि FCI को नहीं देती है. FCI से कहती है कि बाकी राशि की भरपाई के लिए आप लोन लें. नेशनल स्माल सेविंग फंड (NSSF) से या बैंक से.

2019-20 में फूड सब्सिडी बिल 1 लाख 84 हज़ार करोड़ था लेकिन इसे घटा कर 75,000 करोड़ कर दिया.  और FCI को 1 लाख करोड़ का लोन NSSF से लेना पड़ा.  इस कारण FCI पर लोन बढ़ता जा रहा है. अनुमान है कि इस साल के अंत तक करीब ढाई लाख करोड़ का कर्ज़ हो जाएगा.  इसे मिलाकर FCI पर कुल कर्ज़ की राशि साढ़े तीन लाख करोड़ से अधिक की हो गई है. FCI को जितना पैसा चाहिए उतना नही दिया जा रहा है. उससे कहा जा रहा है कि आप लोन ले लें. 2018 के बजट भाषण को आप पढ़ें पाराग्राफ 12 में लिखा है कि अगर बाज़ार में MSP से कम भाव मिल रहा है तब सरकार या तो MSP पर खरीदेगी या जो भाव में अंतर होगा वो किसानों को देगी.

बजट में तो सरकार कह चुकी है कि बाज़ार में अगर भाव नहीं मिलेगा तो सरकार MSP पर खरीदेगी तो अब क्या दिक्कत है, कानून में प्रावधान क्यों नहीं हो सकता? क्या बहुत ज़्यादा लोकतंत्र है उससे दिक्कत होने लगी है?सरकार अगर चाहती है कि किसान ज़ुबान पर भरोसा करें तो बता दे कि 2018 के बजट में जो कहा गया है उसका कितना पालन हुआ है, ट्वीट में दाल की खरीद की राशि में 7500 प्रतिशत की वृद्धि का दावा किया गया है. कृषि मंत्रालय के ई बुक में भी है. अगर यूपीए के 5 साल में 645 करोड़ की दाल खरीदी गई और मोदी सरकार के 5 साल में 49,000 करोड़ की तो क्या दाल बहुत ज़्यादा खरीदी गई? मान लीजिए आपने 200 रुपये की दाल खरीदी, यह भी तो बताइये कि आधा किलो दाल खरीदी या पांच किलो.

कृषि मंत्रालय के ई बुक में दी गई इस तस्वीर के हिसाब से अनुसार 2009-14 के बीच 1 लाख मिट्रिक टन दाल की खरीद हुई.2014-20 के बीच 112.28 लाख मिट्रिक टन की खरीद ज़्यादा हुआ.(इमेज आउट) क्या ये बहुत ज्यादा वृद्धि है? 16 जुलाई 2019 की पीआईबी की एक प्रेस रिलीज है.  2015-16 में 163 LMT उत्पादन हुआ था जिस में से सरकार कुछ भी नहीं खरीदा था. 2016-17 में 231 LMT में से सरकार 3.34 LMT खरीदी थी. 2017-18 में 254 LMT में से सरकार 45 LMT खरीदी थी. 2018-19 में 232 LMT में से 19 LMT खरीदी थी. यानी कुल उत्पादन का मात्र 8.19 प्रतिशत दाल की खरीद हुई. 

ई बुक में दावा है कि 112 लाख मिट्रिक टन दहलन की खरीद हुई. लेकिन उसमें यह नहीं बताया कि 2015-16 में दाल खरीदी नहीं हुई और बाकी साल भी मामूली वृद्धि हुई. उत्पादन के अनुपात में खरीद 10 प्रतिशत भी नहीं है. तो पैसे में 7500 प्रतिशत की वृद्धि का कोई मतलब है? हमने रवि खचांजी से बात की जो खुद दाल की खेती करते हैं और मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले के गाडरवारा के रहने वाले हैं जिस जगह को कभी दलहन की राजधानी कहा जाता था. 

रवि खचांजी का कहना है कि सरकारी एजेंसी सिर्फ 45 से 60 दिनों के लिए दलहन की ख़रीद करती है. खरीद का टारगेट पूरा होने के बाद ख़रीद बंद हो जाती है. उसके बाद किसान खुले बाज़ार में बेचने के लिए मजबूर होता है. जहां भाव नहीं मिलता. कृषि मंत्रालय के ई बुक में कहा गया है कि अरहर की MSP 6000 हो गई लेकिन किसान कहते हैं कि दाम ही नहीं मिला. रवि खचांजी ने बताया कि 1990 तक यहां 80 से अधिक दाल मिले थीं. अब 10 ही रह गई हैं. बाकी बंद हो गईं.  मध्य प्रदेश आज भी दाल उत्पादन में अव्वल है. दाल के रकबे में कमी आने के बाद भी. अगर दाल की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम मिले तो किसानों को कितना घाटा होता है. किसान अब सोयाबीन की तरफ रुख कर रहे हैं. मध्यप्रदेश ही नहीं बिहार के किसानों को भी नहीं मिला. यह धारणा बनाई गई है कि बिहार का किसान आंदोलन नहीं करता है, लेकिन धारणा बनाने वाले जवाब तो दें कि फिर उसे खुले बाज़ार में दाल का दाम क्यों नहीं मिलता है. 

अगर सरकार MSP पर दाल की खरीद ज़्यादा करती तो किसान धान और गेहूं के अलावा इसकी खेती की तरफ मुड़ते. पंजाब के किसानों से हमने बात की.  वे बता रहे हैं कि 80 के दशक तक पंजाब अपनी ज़रूरत की दाल पैदा कर लेता था लेकिन धीरे धीरे घटता गया और अब ज़रूरत का  सिर्फ 3 प्रतिशत दाल का उत्पादन होता है. पंजाब कभी 4 लाख टन दाल का उत्पादन करता था 2019-20 में 10,000 टन दाल का ही उत्पादन हुआ. दाल में पानी कम लगता है. अगर सरकार दाल धान और गेहूं की तरह खरीदती तो किसानों को फायदा भी होता है और फसलों में विविधता भी आती.  इसलिए पानी बचाने की दलील में दम नहीं लगता. प्राइवेट प्लेयर भी दाल की कीमत नहीं देते हैं. 10 साल पहले कितना दाम था और आज क्या था इसकी तुलना बहुत सटीक नहीं है. बेहतर है कि बताया जाए कि एक दो साल पहले कितना दाम था और अब कितना दाम है. हर साल धान की MSP में कितने प्रतिशत की वृद्धि होती है

  • 2015-16 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य- 1410 रुपये प्रति क्विंटल था. 
  • 2016-17 - 1470 रुपये प्रति क्विंटल हुआ. 60 रुपये बढ़ा.  4.25 प्रतिशत
  • 2017-18 - 1550 रुपये प्रति क्विंटल हुआ. 80 रुपये बढ़ा.  5.44 प्रतिशत
  • 2018-19 - 1750 रुपये प्रति क्विंटल हुआ. 200 रुपये बढ़ा. 12.9 प्रतिशत
  • 2019-20 - 1815 रुपये प्रति क्विंटल हुआ. 65 रुपये बढ़ा. 3.71 प्रतिशत
  • 2020-21 - 1868 रुपये प्रति क्विंटल हुआ. 53 रुपये बढ़ा. 2.92 प्रतिशत
  • यानी 2015 से 2021 के बीच 458 रुपये या 32.48% की वृद्धि हुई है


कमिशन ऑफ एग्रिकल्चर एंड कोस्ट प्राइज जो हर क्षेत्र में अलग अलग आंकड़े तैयार करते हैं, उनके अगर आंकलन हम देखते हैं उनका ये कहना है कि इस कंपोजिट इनपुट प्राइज इंडेक्स बताता है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल किसानों की इनपुट कॉस्ट में बढ़ोतरी हुई है. खरीफ की बात अगर हम करें तो कंपोजिट इनपुट प्राइज इंडेक्स में 5.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. जबकि एमएसपी की जो बढ़ोतरी है वो सिर्फ 3.8 है, तो कहने का मतलब ये है कि इनपुट कॉस्ट अगर किसान ज्यादा खर्च कर रहा है तो उसके हिसाब से उसे एमएसपी नहीं मिल रहा है. 

2020-21 में अगर रबी की फसल की बात करें तो इसकी कंपोजिट इंडेक्स प्राइज 6.6 प्रतिशत है जबकि फसलों का दाम जो बढ़ा है वो कम है. शांता कुमार कमेटी ने कहा था कि सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को एमएसपी मिलती है अगर हम इसके ब्रेकआउट करें तो, 13.50 प्रतिशत धान के किसान को एमएसपी मिलती है 16.2 प्रतिशत बीज के किसान हैंम जिन्हें एमएसपी मिली है. अखबार में ये सब आंकड़े दिए गए हैं जो बताते हैं बहुत कम एमएसपी वाला बेनिफिट किसानों को मिल रहा है. 

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किसान बार बार कह रहे है कि खाद पानी डीजल बिजली के दाम बढ़े हैं. लागत बढ़ी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य से लागत भी नहीं निकलती है और पूरी उपज भी नहीं खरीदी जाती है. लेकिन सरकार ने इस तरह से डेटा दिया कि लगे कि MSP पर खरीद में कोई समस्या ही नहीं है.  एनसीपी नेता शरद पवार ने कहा है कि केंद्र सरकार को कृषि कानून वापस ले लेना चाहिए. झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेने ने कहा है कि वे भी किसान आंदोलन का समर्थन करते है. हेमंत सोरेन का कहना है कि कानून के बहाने किसी उद्योगपति के छिपे हुए फायदे की बात सामने आने पर किसानों का आक्रोश स्वाभाविक है.  भारतीय कबड्डी टीम के खिलाड़ी भी किसान आंदोलन में सेवा कर रहे हैं. कबड्डी टीम के कप्तान किसानों के कपड़े धोते नज़र आए.