यह कपड़ा सिलाई की कंपनी है, इस दूसरी मंजिल वाले डिपार्टमेंट में 80 से 100 लोग काम करते थे. अब 10 से 15 लोग हीं बच गए हैं. मैं बिहार के अररिया जिला के फारबिसगंज प्रखण्ड का रहने वाला हूं, मेरे जैसे कई और लोग हैं बिहार के अलग-अलग हिस्से से. यह कंपनी तमिलनाडु के तिरूप्पूर शहर में है. यहां बिहार के अलावा उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम के लोग बड़ी संख्या में हैं. बड़ी संख्या में मतलब बहुत बड़ी संख्या में, हजारों की संख्या में. और नए लोगों का आना अभी जारी है. जो पहली बार यहां आ रहे वह दिल्ली, गुजरात, मुम्बई से आ रहे हैं. जो लोग यहां आ रहे हैं उनका कहना है "300/400 कमाना उधर मुश्किल है काम नहीं है. 10/12 हज़ार भी कभी-कभी नहीं हो पाता है."
हम जैसे दूसरे राज्यों से आए लोगों की बड़ी संख्या होने से यहां के लोकल (तमिल) मजदूरों के रोजगार पर काफी असर पड़ रहा है. जो तमिल लोग पहले दिन-रात काम करते थे उन्हें अब काम हीं नहीं मिलता है. क्योंकि यहां लगभग सारा काम ठेके पर होता है, और ठेकेदार को हिन्दी लेवर से फायदा है, क्योंकि हिन्दी वालों को एक तो भाषा नहीं आती दूसरी वह दिल्ली, मुम्बई, गुजरात से भटकते हुए यहां पहुंचे हैं अब यहां से कहां जाएंगे?
इसका फायदा ठेकेदार खूब उठाते हैं, जितना दिल करता है उतना दिहाड़ी दे देते हैं. पिछले हफ्ते 2235 रुपये का काम किया था. यहां ज्यादातर कंपनियों में पैसा हफ्ते में मिल जाता है. पूरे छह के छह दिन ड्यूटी गए थे मगर काम किसी दिन चार घंटे तो किसी दिन दो घंटे मिला. इस हफ्ते में लग रहा है पिछले हफ्ते के मुकाबले ज्यादा होगा. सोमवार से गुरुवार तक 2425 रुपये का काम हो चुका है.
हमरे वजह से तमिल लेवर को नुकसान पहुंच रहा है, अब उनके सामने दो रास्ते हैं एक कि जितना दिहाड़ी मिल रहा है उतने में काम करें दूसरा काम न करें.
ठेकेदार को सस्ता लेवर चाहिए. तमिल मजदूर हिन्दी मजदूरों को गिरी हुई निगाहों से देखते हैं. कहते हैं हिन्दी आ कर यहां कचरा फैला दिया है.
कंपनी नाम के लिए कुछ लोगों को रखती है अपने अंदर पी एफ वगैरह भी काटती है. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है.
वही मार्किट में बाहरी राज्यों के लोगों की बड़ी इज्जत होती है, क्योंकि ज्यादातर लोगों को भाषा नहीं आती है उस वजह से मोल भाव करते नहीं. भाषा की समझ नहीं होने का फायदा दुकानदार भी खूब उठाते हैं.
बस अब ज्यादा क्या लिखूं. बिहार के युवा तो अब कश्मीर हीं जाएंगे.
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