ठेके पर शिक्षक, संकट में शिक्षा, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

ये भरोसा उन्हें आपने दिया है. भारत के सैंकड़ों कालेजों की हालत खंडहर से भी बदतर हो चुकी है, न आप बोले, न टीचरों ने बोला और न छात्रों ने बोला.

ठेके पर शिक्षक, संकट में शिक्षा, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

रवीश कुमार

नमस्कार मैं रवीश कुमार, मुझे पता है आप हंसेंगे कि आज यूनिवर्सिटी सीरीज़ है कि नहीं. दरअसल भारत की उच्च शिक्षा पर हंसने के लिए ही बचा है. दो चार दस कालेज यूनिवर्सिटी को सेंटर फॉर एक्सलेंस का नाम देकर बाकी सबको कबाड़ में बदलने के लिए छोड़ दिया गया है. हमारी सीरीज़ से ये पता चल गया कि हमारे राजनेता बड़े ज़िद्दी हैं. किसी ने भी उच्च शिक्षा की इस ख़राब हालत पर नहीं बोला. हमें इसी की उम्मीद थी, ख़ुशी भी हुई कि नहीं बोल रहे हैं. ये भरोसा उन्हें आपने दिया है. भारत के सैंकड़ों कालेजों की हालत खंडहर से भी बदतर हो चुकी है, न आप बोले, न टीचरों ने बोला और न छात्रों ने बोला.

तो फिर नेता क्यों बोलेंगे. जब उनका काम हिन्दू मुस्लिम टापिक से चल जाता है तो वे क्यों आपके सामने आकर कालेजों को ठीक करने का वादा करेंगे. अच्छा लगता है कि आपमें से कई दर्शक चैनलों और अख़बारों खासकर हिन्दी अख़बारों के इस पैटर्न को समझते हैं. जहां जवाबदेही का हिसाब कम मांगा जाता है, भाषण का प्रचार ज़्यादा होता है. लेकिन क्या आप मीडिया के बनाए इस सुरंग से निकल सकते हैं. मुझे नहीं लगता. हमीं ही नहीं, आप भी फंस गए हैं. दो चार अपवाद स्वरूप अच्छी और ज़ोरदार ख़बरें आती रहेंगी मगर उसके बाद सुरंग में ट्यूबलाइट बुझा दी जाएगी. मीडिया पर नेता का ही नियंत्रण रहेगा और वही तय करेगा कि आज की रात आप किस विषय पर चर्चा करेंगे. कभी कभी हम जैसों को भरम हो जाता है कि अस्पताल और कालेजों की बात कर नेताओं के पैदा की गई बहसों कि दिशा मोड़ी जा सकती है. हमारे हिस्से हार ही लिखी है. हम यह जानते हैं मगर मज़ा तब आता है जब आप हारने के लिए हारते हैं. ये हारना भी आपके ही जैसा होना है. आप भी तो हारे हुए हैं. तो कुल मिलाकर यूनिवर्सिटी सीरीज़ पूरी तरह से फेल रही. उन्हें ही अच्छा लगा जिन्हें लगता था कि इस समस्या को कोई मीडिया पर दिखा दे. वो अपनी समस्या को टीवी पर देखकर खुश हो गए. दरअसल हम अब समाधान नहीं चाहते हैं, जिस समस्या को रोज़ देखते हैं, उसे टीवी पर देखना चाहते हैं. इसे बताते हुए न तो मेरा मन उदास है, न दिल छोटा है. खुशी है कि इससे छुटकारा मिलने का वक्त करीब आ रहा है...

दरअसल नेता बोल भी देंगे तो क्या बोलेंगे. वे रेटिंग, रैकिंग और सेंटर फार एक्सलेंस जैसे जुमले ले आएंगे और आपको दुनिया की सौ यूनिवर्सिटी में एक दो यूनिवर्सिटी को देखने का सपना थमा जाएंगे. यह भी एक पैटर्न है. नेता को भी पता है कि अब इसका समाधान नहीं हो सकता है. इसलिए समाधान का कोई इमेज पैदा करो. वो इमेज है रैकिंग और रेटिंग. सैंकड़ो कालेज कबाड़ की तरह पड़े रहेंगे, हम और आप बीस यूनिवर्सिटी को दुनिया की सौ यूनिवर्सिटी में आ जाने की ख़बर सुनकर सो जाएंगे. यूनिवर्सिटी सीरीज़ का चौदहवां अंक में हम चलेंगे उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर. भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के कालेज का हाल देखेंगे. 

केबी स्नातकोत्तर कालेज. कन्हैया लाल अग्रवाल और बसंत लाल अग्रवाल के नाम पर यह कालेज बना है, ये दो भाई थे, कालेज के लिए काफी ज़मीन और संपत्ति दे दी. कालेज की ज़मीन शहर में भी है मगर पता चला कि उन पर कब्ज़ा हो गया है. अग्रवाल बंधु शहर के बड़े व्यापारी थे. दोनों भाई ने मिलकर यह कालेज बनाया था. शहर को भी आप कैमरे से देख ही लीजिए. लगता है कि इस शहर में कोई भी अंग्रेज़ी चैनल नहीं देखता है, न देखने की वजह से नेशन को लेकर हो रहे बवाल से कट गया है. इस शहर का घाट बहुत सुंदर है. आप देखिए, घाट की इस तस्वीर को. किसी ने बनाया ही होगा जो आज तक तमाम तरह के उपेक्षा विभागों की मेहनत के बाद भी टिका हुआ है. घाट की कलाकृति कितनी दर्शनीय है. आप जानते हैं कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह इसी कालज के छात्र रहे हैं. बीएससी की पढ़ाई यही पूरी की. एमएससी फिजिक्स गोरखपुर यूनिवर्सिटी से की. 1971 में यहां सहायक प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त हुए थे. 2000 तक राजनाथ सिंह इस कालेज से जुड़े, तब यूपी के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस कालेज से इस्तीफा दे दिया. राजनाथ सिंह सामान्य नेता नहीं है. मुख्यमंत्री के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और इस समय भारत के गृहमंत्री हैं. सबको उम्मीद रहती है कि कोई जिस कालेज से निकल कर मुख्यमंत्री, गृहमंत्री बना है, अपने कालेज का हाल तो ठीक करेगा. इस पैमाने से भारत के कई नेता फेल हो जाएंगे. 1991-92 में जब यूपी में पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी तब राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री बने थे. नकल रोकने में काफी नाम कमाया था. 


गृहमंत्री राजनाथ सिंह जिस फिजिक्स विभाग में शिक्षक थे आज वहां कोई भी परमानेंट टीचर नहीं है. यहां पर दो अंशकालिक शिक्षक हैं जिन्हें दस हज़ार रुपये तक ही सैलरी मिलती है. छात्र कोचिंग के सहारे पास होते हैं. एक शिक्षक ने बताया कि जो ग़रीब होते हैं वे कोचिंग नहीं कर पाते, नतीजा यह होता है कि प्रथम वर्ष से द्वितीय वर्ष तक आते आते छात्रों को भारत की शिक्षा प्रणाली का बोध हो जाता है और वे इसका परित्या कर कहीं और चले जाते हैं. जिन्हें हम अंग्रेज़ी में ड्राप आउट करते हैं. कायदे से इन्हें ड्राप आउट नहीं, thrown out कहना चाहिए मतलब जिन्हें कालेज ने एडमिशन लिया मगर कुछ समय के बाद बाहर फेंक दिया. thrown out कहेंगे तो जनता जाग जाएगी इसलिए हम drop out बोलते हैं ताकि जनता को यह बताया जाए कि तुमने ख़ुद से कालेज को छोड़ा है. बहरहाल फिजिक्स डिपार्टमेंट में भले ही दस बारह साल से कोई परमानेंट टीचर नहीं है मगर गृहमंत्री राजनाथ सिंह भारतीय राजनीति के परमानेंट किरदार हैं. उन्हें चाह कर भी कोई नहीं हिला सका. यह बताना भूल गया कि फिजिक्स डिपार्टमेंट में 350 छात्र पढ़ते हैं. बॉटनी विभाग में भी कोई टीचर नहीं है. एक अंशकाली पढ़ा रहे हैं, पूर्णकालिक होने की उम्मीद में. अजय सिंह के ज़रिए हम इस महान कालेज तक पहुंच पाए, बाकी काम इंद्रेश पांडे ने कर दिया. किसी तरह कालेज खुलवाकर प्रयोगशाला का हाल देखा तो यकीन हो गया कि भारत को विश्व गुरु बनाने का चूरन बेचने वालों को भारत के गुरुओं या प्रयोगशालाओं की कोई फिक्र नहीं है. 

अगर आप यह समझ रहे हैं कि यह धूलकणों के गुणों पर शोध करने वाली प्रयोगशाला है तो आप ग़लत नहीं है. इस प्रयोगशाला का नाम दुरुपयोगशाला रख देना चाहिए और विज्ञापन बनाकर टीवी पर दिखाना चाहिए कि हम इसके बग़ैर भी युवाओं को भाषण देकर उनसे वोट ले सकते हैं. यहां उपकरणों पर जो धूल जमी है वो दरअसल यही कह रही है कि भारत के कालेजों में सब कुछ मिट सकती है, मगर धूल नहीं मिट सकती है. धूल आत्मा की तरह अमर है. ज़रूर ज़िलाधिकारी इस शो के बाद प्रिंसिपल को कारण बताओ नोटिस जारी करेगा लेकिन इन धूलकणों को पता है कि अनुशासन उन्होंने नहीं तोड़ा है. वो तो चुपचाप जमी हुई हैं. अनुशासन प्राइम टाइम के इस एंकर ने तोड़ा है जो राजनीति की रोज़ाना नौटंकी के बीच इस प्रयोगशाला में कैमरा लेकर भटक रहा था. आप इस प्रयोगशाला में किसी रात अकेले जाइयेगा, मुझे यकीन है कि न्यूटन से लेकर गैलिलियों तक यहां बीड़ी बनाते नज़र आएंगे. मैडम क्यूरी और एडिसन की हंसी सुनाई देगी और जगदीश बोस लेकर होमी भाभा तक यहां चांद पर उग आने वाले पेड़ पौधों को कविता सुना रहे होंगे. 

हमें इसकी जानकारी नहीं मिल सकती है कि बीकर और टेस्ट ट्यूब का टेंडर नियमित रूप से निकलता है या नहीं. बलरामपुर के कालेज का हाल दिखाने के बाद एक छात्र ने मेसेज किया, कहा कि आपने यह तो बताया नहीं कि प्रयोगशाला में पास कराने के लिए शिक्षक या सहायक पैसे लेते हैं. वे काफी कमा लेते हैं. हमारे पास ऐसी बातों की जांच करने के लिए उतनी बड़ी टीम नहीं है. भारत की उच्च शिक्षा का हाल कवर करने के लिए दो लाख संवाददाता और बीस हज़ार संवाददाताओं की ज़रूरत है जो हमारे पास नहीं है. भारत के कालेज भारत की जवानियों कालेजों में आकर कबाड़ बन जाती हैं. वैसे जिस कालेज में विज्ञान दम तोड़ रहा है.

वहां शिक्षकों के अटेंडेंस के लिए बायोमेट्रिक आ गया है. अंगूठे का निशान लगाइये, टूं टां बजाइये और अटेंडेंस हो गया. इस तरह हम इस मशीन के ज़रिए नए भारत में प्रवेश कर जाते हैं लेकिन उसके बाद आपको पुराने भारत में ही पहुंचना होता है. 5000 छात्रों के लिए यहां 79 शिक्षकों के पद मंज़ूर हैं मगर हैं मात्र 31. 31 शिक्षकों को देखकर ही कोई गिन देगा लेकिन हम 2022 के भारत में एंटर कर रहे हैं इसलिए बायोमेट्रिक मशीन ज़रूरी है. 

इस कालेज में छात्र संघ के चुनाव चल रहे हैं. अध्यक्ष के उम्मीदवार ने बताया है कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद सुधार किया जाएगा. चुनाव की यही खूबी है, उसके बाद सब कुछ बदल जाने का सिनेमा देखने को मिलता है. जो चुनाव के साथ खत्म हो जाता है. 

प्राणी विभाग की इमारत में लगता है प्राण ही नहीं बचे हैं. यहां कोई प्राणी नहीं आता होगा. कालेज की इमारत बीमार है. आप केबी पीजी कालेज की इमारत का हाल देखते चलिए. फर्श टूट चुकी है. पेय जल की व्यवस्था का हाल देखिए. ऐसा लगता है कि इस कालेज के छात्रों को प्यास ही नहीं लगती है. उन्होंने नल का इस्तमाल करना 21वीं सदी के शुरू होते ही बंद कर दिया है. जब पानी नहीं पीते हैं तो फिर शौचालय क्यों है. क्या यह विज्ञान का कोई चमत्कार है या फिर हमारी बर्बादी का संस्कार. एक शौचालय में ताला लगा हुआ था, महिला प्रिंसिपल के केबिन के पास है इसलिए उन्होंने बंद कर दिया. प्रिसिंपल आशावान हैं कि सब कुछ ठीक हो जाएगा. के बी कालेज के इस शौचालय का हाल देख लीजिए. 

क्या उम्मीद की जाए कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह अपने गृह ज़िले के इस कालेज का हाल बदल देंगे. बहुत से रिपोर्टर गुजरात चुनाव के संदर्भ में एक ही नेता को रोज़ इंटरव्यू ले रहे हैं उन्हें गुजरात के कालेजों में जाना चाहिए. उस कालेज में जहां प्रधानमंत्री पढ़े हैं. ताकि तुलना की जा सके कि अपने अपने कालेजों का ख़्याल रखने में, विकास करने में गृहमंत्री राजनाथ सिंह बेहतर हैं या प्रधानमंत्री मोदी. इस तरह के स्वस्थ्य मुकाबले से राजनीति भी बेहतर होती है. 

मिर्ज़ापुर का दूसरा कालेज है कमला आर्यकन्या स्नातकोत्तर महाविद्लाय. 1968 में बनकर तैयार हुआ. मिरजापुर का एक मात्र महिला कालेज है. बाहर से कालेज की इमारत ठीक ठाक ही दिखती है. विभिन्न विषयों में करीब 1200 छात्रों का यहां भविष्य संवर रहा है. हिन्दी की क्लास की लड़कियों ने बताया कि कई दिनों से कोई पढ़ाने वाला नहीं आया है तो क्या करें, गप्प शप्प ही करेंगे. एक क्लास में पढ़ाई चल रही थी. 

हमने यूजीसी की गाइडलाइन देखी. वही गाइडलाइन जिसमें विश्व स्तरीय यूनिवर्सिटी बनने के लिए 20 कालेजों से आवेदन मांगा गया है. उसमें कहा है कि वर्ल्ड क्लास बनने के लिए 1 शिक्षक पर 20 छात्र होने चाहिए. यह बात किसी ख्वाब की तरह लगी. यहां तो एक भी टीचर नहीं हैं और जहां एक हैं उन पर 20 नहीं,1200 तक छात्र हैं. लोकसभा चुनावों से पहले और चुनावों के बाद प्रधानमंत्री मोदी कहा करते थे कि भारत शिक्षकों का निर्यात करेगा. तब सुनकर मुझे भी लगा कि यह बहुत अच्छा. शिक्षकों के निर्यात का आइडिया भी नया है वैसे किस देश में आयातित शिक्षकों का इंतज़ार हो रहा है पता नहीं. हो सकता है ऐसा कोई देश हो मगर यूनिवर्सिटी सीरीज़ के दौरान यह बात समझ में आ गई है कि भारत को इस वक्त शिक्षकों के आयात की ज़रूरत है. शहर शहर के कालेज बिना शिक्षकों के सूने पड़े हैं. निर्यात की बात बाद में करेंगे. पहले अपने कालेजों में शिक्षकों के पद को छात्रों की नई संख्या के हिसाब से मूल्यांकन हो. 26 दिसंबर 2014 को प्रधानमंत्री ने बीएचयू में न्यू टीचर ट्रेनिंग स्कीम की बुनियाद रखते हुए कहा था कि भारत को टाप क्लास शिक्षकों के निर्यात का लक्ष्य रखना चाहिए. उन्होंने कहा था कि दुनिया हमारी तरफ देख रही है मगर तैयार नहीं है. भारत के कालेज भी किसी की तरफ देख रहे होंगे, उनके लिए भी कोई तैयार नहीं है. 

26 दिसंबर 2014 को प्रधानमंत्री ने पंडित मदन मोहन मालवीय नेशनल मिशन आन टीचर एंड ट्रेनिंग की बुनियाद रखी थी. 900 करोड़ की यह महत्वकांझी योजना का ताजा हाल है कि निदेशक की नियुक्ति हो गई है. बीएचयू के पांच एकड़ ज़मीन दे दी है और यहां भवन बनने के टेंडर की प्रक्रिया शुरू हो गई है. प्रधानमंत्री ने जिस योजना का शुभारंभ किया हो उसका टेंडर भी शुरू होने में तीन साल लग जाता है. फिलहाल इतनी ही जानकारी मिली है. उस वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि शिक्षकों की बहुत मांग हैं. उन्होंने कहा था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था रोबोट बनाने के लिए नहीं बनाई गई है. हम परंपरा आधारित शिक्षा की संस्कृति का उत्पादन करते हैं. शिक्षकों के निर्यात की बात प्रधानमंत्री ने मेडिसन स्कावयर पर भी की थी. पीएमइंडिया की वेबसाइट पर भाषण मौजूद हैं. 28 सितंबर 2014 को कहा था कि 2020 के समय आते आते दुनिया में इतनी बड़ी मात्रा में वर्ककोर्स की ज़रूरत पड़ने वाली है. इनके यहां सब बूढ़े बूढ़े लोग होंगे. दुनिया के पास काम करने वाले नहीं होंगे. हम पूरी दुनिया को वर्कफोर्स सप्लाई कर सकते हैं. आज विश्व में teachers की मांग है. Maths और Science के teachers नहीं मिलते हैं. क्या भारत ये teachers export नहीं कर सकता. यही बात उन्होंने 17 नवंबर 2014 को सिडनी के आलफोन्स एरिना में कही थी. सिडनी में कहा था कि अग हम दुनिया में बेस्ट क्वालिटी के टीचर एक्सपोर्ट करते हैं पूरी दुनिया को हम अपना बना सकते हैं. 

भारत के लाखों स्कूलों और हज़ारों कालेजों को मैथ्स, साइंस, हिस्ट्री, हिन्दी, संस्कृत से लेकर तमाम विषयों के शिक्षकों की ज़रूरत है. नौजवान यूजीसी की नेट परीक्षा पास कर नौकरियों के इंतज़ार में बूढ़े हो रहे हैं. बीएड की डिग्री लेकर रोज़ रोज़गार समाचार के पन्ने पलटते हैं. निर्यात करने का आइडिया अच्छा है मगर वो इतना अच्छा लगा कि ख़्याल ही नहीं आया कि हमारे पड़ोस के कालेज को भी शिक्षकों के आयात की ज़रूरत है. 

अमरावती ज़िला महाराष्ट्र का एजुकेशन हब माना जाता है क्योंकि यहां पर इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल सब हैं. प्राइवेट भी और सरकारी भी. हमारे सहयोगी संजय शिंडे अमरावती ज़िले के वाढोना रामनाथ गांव गए. अमरावती शहर से मात्र 45 किमी दूर है यह गांव. गांव की आबादी पांच हज़ार की है. किसान ही रहते हैं.  

तीन चार कमरे में चल रहे इस कालेज को देखकर यकीनन प्रधानमंत्री से कहा जा सकता है कि टीचर के निर्यात से पहले आप इस तरह के कालेजों का भारत से निर्यात कर दें. यह कालेज बारह साल से चल रहा है. प्राइवेट है लेकिन अमरावती यूनिवर्सिटी से मान्यता प्राप्त है. न तो इसके बाद खेल का मैदान है, न ही प्रयोगशाला है. आस पास के किसानो के बच्चे यहां एडमिशन लेकर कालेज में पढ़ने का भरम पालते हैं. यहां पर कई साल से काम कर रहे शिक्षकों को मात्र 5000 रुपये सैलरी मिलती है. न्यूतनम मज़दूरी से कम, मनरेगा के रेट से भी कम पर काम कर रहे हैं. सरकारी रेट है 240 रुपये प्रति पीरियड. इस हिसाब से भी शिक्षकों को कम मिलता है. 200 के करीब छात्र यहां पढ़ते हैं. यहां पर एक भी शिक्षक परमानेंट नहीं है. भारत के कालेज शिक्षकों को गुलाम बनाने के गोदाम हैं. छात्रों को बर्बाद करने का कारखाना. जिस गांव में यह कालेज है वहां से मात्र दस किमी की दूरी पर भारत के पहले कृषि मंत्री पंजाब राव देशमुख का गांव है. शिक्षक कहते हैं कि पांच हज़ार रुपये में हम कैसे जीवन चलाएंगे. 

अमरावती संत गाडगे बाबा विश्वविद्यालय में शिक्षकों के कई पद ख़ाली हैं. यहां की इमारत तो अच्छी है मगर कई विभागों में लेक्चरर के पद ख़ाली हैं. हिन्दी विभाग में एक प्रोफेसर परमानेंट हैं. हिन्दी की जगह मराठी के प्रोफेसर की नियुक्ति हो गई है. समाजशास्त्र विभाग में केवल 2 ही प्रोफेसर हैं. कई डिपार्टमेंट ऐसे हैं जो एक एक प्रोफेसर के भरोसे चल रहे हैं. 

प्रोफेसर के 17 पद मज़ूर हैं मगर 11 ख़ाली हैं. 
अस्सिटेंट प्रोफेसर के 29 पद हैं, मगर 11 ख़ाली हैं. 
लेक्चरर के 65 पद मंज़ूर हैं मगर 11 ख़ाली हैं. 
यूनिवर्सिटी ने सरकार के पास प्रस्ताव भेजा है कि 130 से ज़्यादा शिक्षकों की ज़रूरत है, 

यूनिवर्सिटी सीरीज़ का यह चौदहवां अंक आपको कैसा लगा, ये हमें नहीं, अपने पड़ोसी को बताइये, आपस में चर्चा कीजिए कि करना क्या है. क्या भारत में उच्च शिक्षा के नाम पर समय की बर्बादी का कारखाना बंद कर दिया जाना चाहिए या शिक्षकों के साथ साथ भारत को कालेज का भी निर्यात करना चाहिए. हम चाह लें तो बेकार पड़े इन कालेजों का निर्यात कर सकते हैं. जसे हम शिक्षकों का निर्यात करने वाले हैं. ब्रेक ले लेते हैं.
 


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