बड़े मुद्दों के पीछे-पीछे अपनी तक़लीफों को ढोता हुआ दिल्ली आ गया है किसान...

मुद्दों की लड़ाई इतनी लंबी हो जाती है कि नेता की ज़िंदगी गुज़र जाती है. किसानों के मुद्दे बदलते भी नहीं. अमूमन एक ही मुद्दे के लिए बार-बार सरकार के सामने खड़ा होना पड़ता है.

बड़े मुद्दों के पीछे-पीछे अपनी तक़लीफों को ढोता हुआ दिल्ली आ गया है किसान...

देश भर में घूम-घूमकर किसानों को संगठित करने और उन्हें मार्च के लिए तैयार करने में किसान नेताओं का बड़ा रोल होता है. किसानों की नेतागीरी करना ही कौन चाहेगा. मुद्दों की लड़ाई इतनी लंबी हो जाती है कि नेता की ज़िंदगी गुज़र जाती है. किसानों के मुद्दे बदलते भी नहीं. अमूमन एक ही मुद्दे के लिए बार-बार सरकार के सामने खड़ा होना पड़ता है. कुछ समय बाद मीडिया को हर किसान नेता घिसा-पिटा लगने लगता है. उन्हें तवज्जो देना बंद कर देता है. हर चुनाव के साथ किसान नेता पुराना हो जाता है और दो क़दम पीछे की ओर धकेल दिया जाता है. सरकारों ने बड़ी चालाकी से ऐसे कितने ही किसान नेता ख़त्म कर दिए. कमाल यह है कि इसके बाद भी नए किसान नेता खड़े हो गए हैं.

किसान नेताओं से बात करने का थोड़ा बहुत अनुभव हो गया है. उनकी बातों में 'प्रमुख बातों' का ज़ोर रहता है. ये प्रमुख बातें मीडिया के बने बनाए खांचे में फिट बैठने के लिए बनाई जाती हैं. इनसे भी समस्याओं का अंदाज़ा होता है, लेकिन पूरा नहीं होता है. प्रमुख बातों के कारण मुद्दों की विविधता ख़त्म हो जाती है. मुद्दों की अभिव्यक्ति सीमित हो जाती है और भाषा
के लिहाज से शुद्ध हो जाती है. इस शुद्धता के कारण किसानों की पीड़ा सामान्य पीड़ा में बदल जाती है. आज जब किसान मार्च कवर करने निकला तो रास्ते में तय कर लिया कि प्राइम टाइम में शुरू से अंत तक किसान ही होंगे. किसानों से बातें करते-करते हमने कुछ नया सीखा है जो आपसे साझा करना चाहता हूं. मैं आम लोगों से ही बात करता हूं, लेकिन इस बार ख़ास तौर से समझ आया कि बड़े नेताओं तक मुद्दे पहुंचते-पहुंचते कितने कंट-छंट जाते हैं. रैली में किसान सिर्फ बड़े मुद्दों के लिए नहीं आता है, वह अपनी-अपनी उन तकलीफों को भी लिए आ रहा है, जिन्हें वो नेता तक भी नहीं पहुंचा पाते हैं.

सर पर गुड़ का बड़ा सा टुकड़ा बांधे एक किसान पर नज़र पड़ी तो कुछ और ही कहानी पता चली. श्रव्या नाम की एक वोलंटियर ने अनुवाद कर काम आसान कर दिया. पता चला कि ये किसान विशाखापट्टनम के अनकापल्ली के हैं जो भारत मे गुड़ उत्पादन में दूसरा स्थान रखता है. इस किसान ने बताया कि उन्हें उचित दाम नहीं मिल रहा है. अगर सरकार जनवितरण प्रणाली यानी राशन कार्ड में गुड़ के वितरण को भी शामिल कर ले और किसानों का गुड़ ख़रीद ले तो किसान कम दाम पर भी बेचने को तैयार हैं. क्योंकि इससे गुड़ की ख़रीद पक्की हो जाएगी और कम दाम में ज़्यादा बेचकर अपना मुनाफा कर लेंगे.
 

 

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तेलंगाना के किसानों से बात करने में मेरे पसीने छूट गए. मगर इस बार उस मीडिया के लिए अनुवाद की खास व्यवस्था नज़र आई जो किसानों के लिए आया ही नहीं. तेलंगाना के किसान हों या तमिलनाडू के किसान, उनके करीब जाते ही कोई अनुवादक मदद के लिए आ जाता था. यूनिवर्सिटी के ये नौजवान मदद करने लगते थे. तेलंगाना से औरतों का जत्था अपने पतियों की तस्वीर के साथ चल रहा था. ये वो किसान हैं जिन्होंने आत्महत्या कर ली हैं. अपने मृत पति की तस्वीर हाथ में रखकर चलना इन महिलाओं के लिए उस घड़ी से बार-बार गुज़रना रहा होगा जब इन्होंने अपने पति को रस्सी से झूलते हुए देखा होगा. मार्च का उद्देश्य तो एक है. मगर उसके भीतर हज़ार तरह के मुद्दे मार्च कर रहे हैं.

किसानों से बात करने पर लगता है कि उनके पास हर चीज़ का बहीखाता तैयार है. वे अपनी फसल की हर चीज़ की लागत के दाम बताने लगते हैं. पिछले साल और इस साल की तुलना करने लगते हैं. फिर बताते हैं कि सरकारी मंडी में उनकी पूरी फसल नहीं ली गई. न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला मगर जो उगाया था उसके तीस फीसदी हिस्से का ही मिला. बाकी सत्तर फीसदी फसल कम दाम पर बेचनी पड़ी. महाराष्ट्र के नांदेड़ से आया एक किसान वन विभाग के अधिकारियों की गुंडागर्दी का बखान करने लगा. बताया कि संसद ने हमारे लिए कानून बनाया कि जिन ज़मीनों पर हम पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं, उन पर मालिकाना हक हमारा होगा, लेकिन हमारे पास पांच एकड़ ज़मीन है तो एक ही एकड़ का पट्टा मिला है. सरकार को एक लिस्ट जारी करनी चाहिए जिसे देखकर यह जाना जा सके कि किस किसाब को कितनी ज़मीन मिली है और उसके पास कितनी ज़मीन थी. गुजरात से आया किसान बताने लगे कि हमारे दादा जी के पिताजी जिस ज़मीन पर खेती करते थे उस पर हक नहीं मिला है. कलेक्टर ने आदेश कर दिए हैं मगर वन विभाग ने वहां पौधारोपण कर दिया है. दोनों की लड़ाई में हम दस्तावेज़ों की फाइल लिए इधर से उधर घूमते रहते हैं.

 
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मध्यप्रदेश से आई महिलाओं को देखकर पहला सवाल यही था कि आप लोग दिल्ली में हैं तो कल वोट नहीं किया. सबने अपनी उंगली के निशान दिखा दिए. बताया कि सुबह-सुबह ही मतदान कर हम लोग दिल्ली के लिए चल दिए. उनके गांव में पीने का पानी नहीं है. खाना नहीं बन पाता है. अनाज उगाने के लिए पानी नहीं है. अनाज नहीं उग पाता है. हरियाणा के किसानों से बात कीजिए. सब के सब फसल बीमा योजना के मारे मिलेंगे. इस एक योजना ने किसानों को खूब लूटा है. खेती की है बाजरे की, बैंक ने बीमा कर दिया है ज्वार का. बैंक वाले बीमा का प्रीमियम काटते हैं 5000 हज़ार लेकिन बीमा कंपनी कहती है कि आपने प्रीमियम दिया मात्र 2000. इस तरह की समस्याओं से किसान परेशान है. फसल बीमा ने किसानों पर नई तरह की परेशानियों लाद दी है. किसान समझ गया है कि फसल बीमा के नाम पर उनके साथ कितना खेल खेला है.  एक किसान ने कहा कि हमें सरकार कुछ नहीं देती है. सरकार भी हमसे कमाती है. बस हम अपनी फसल से नहीं कमा पाते हैं.

 
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एक हिन्दी भाषी पत्रकार ख़ुद को असहाय महसूस कर रहा था. काश मुझे भारत की कम से कम तीन चार भाषाएं मालूम होतीं. मेरे हाथ में लाल माइक देखकर किसान अपने आप बोलने लग जाते थे. तमिल तो कभी मलयाली तो कभी तेलगु तो कभी हरियाणवी. किसान बोलने के लिए बेचैन हैं. सबके पास अपनी तकलीफ है. कुछ तकलीफ बीस साल पुरानी है कुछ तकलीफ छह महीने पुरानी. हरियाणा के एक किसान से पूछा कि इस बार भी कुछ नहीं हुआ तो क्या करेंगे. जवाब मिला फिर आएंगे. इस बार पूरा गांव आएगा. हमारी लुगाई यानी पत्नियां भी आएंगी. किसान बता रहे हैं कि वे अब आना नहीं छोड़ेंगे. किसानों को ठीक-ठीक पता है कि देश का मीडिया क्या कर रहा है. कई किसानों ने कहा कि उन्होंने टीवी देखना बंद कर दिया है. केवल हिन्दू मुस्लिम चलता है. हमें दाम चाहिए, दंगा नहीं चाहिए.


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