क्या लोग सरकार से डरने लगे हैं?

नई दिल्ली:

2003 का साल था। रायपुर में एक पान वाले से पूछ रहा था कि सरकार किसकी बनेगी। वो चुप रह गया। जब लोग चले गए तो पान वाले ने कहा कि हम कुछ नहीं कहेंगे। पता नहीं कौन सरकार का आदमी यहां खड़ा हो और बाद में मुझे परेशानी हो जाए। उसी दौरान एक वरिष्ठ अफसर मुझसे मिलने आए। होटल के कमरे में आने पर बताया कि वो सामने से नहीं बल्कि होटल के पीछे से आए हैं। मुझे बहुत हैरानी हुई। कहा कि पता नहीं कब सरकार को पता चल जाए। ऐसे कई किस्से सुनने को मिले थे। ज़रूरी नहीं कि सच ही हों मगर लोगों में यह बैठ गई थी कि सरकार साये की तरह उनका पीछा कर रही है।

पहली बार चुनाव कवर करने का मौका मिला था। छत्तीसगढ़ घूमने का जुनून भी सवार हो गया। अजीत जोगी की सरकार का काम उसकी बनाई सड़कों पर दिखता था। तब छत्तीसगढ़ में हमारे राज्य बिहार की तुलना में कई गुना बेहतर सड़कें थीं। उन सड़कों को देखकर लगता था कि जोगी नहीं हारेंगे, लेकिन जब लोग बात करते-करते चुप हो जाते थे तो यकीन हो जाता था कि जोगी हारेंगे। आम लोगों में भी यह छवि बन गई थी कि छत्तीसगढ़ की मीडिया में जोगी के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं छपता है। उन्होंने एक टीवी चैनल भी खोल लिया था, जो उनके चुनाव हारते ही गायब हो गया। अक्सर कई लोग मीडिया और सोशल मीडिया से खेलने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेते हैं लेकिन यह सब कांग्रेस संस्कृति का ही हिस्सा रहा है। लोगों को पता था कि अख़बार में सिर्फ सरकार की तारीफ छपती है। जोगी ने कुछ चैनलों को बंद भी करा दिया था।

सारे सर्वे जोगी सरकार की बढ़त दिखा रहे थे। मैं सिर्फ इसी आधार पर कह रहा था कि जोगी हार जाएंगे। मुझे याद है तबके मेरे संपादक ने कहा था कि कैसे कहते हो हार जाएंगे। सर्वे तो जोगी को जीता रहे हैं। मैं यही कहता था कि अगर किसी सरकार की धारणा यह बन जाए कि वो हर बात सुन रही है, साये की तरह पीछा कर रही है और उसकी निंदा कोई खुलेआम नहीं कर सकता, उसे लोग हरा देते हैं। तब बीजेपी के कई बड़े नेता भी मुझसे यह पूछा करते थे कि वाकई हम जीत रहे हैं। ठीक ऐसा ही मैंने हरियाणा में चौटाला सरकार के समय होते देखा है। वहां की मीडिया चौटाला मय हो गई थी। लोगों को खुलकर बोलने में भय लगता था कि चौटाला के लोग सुन लेंगे।

अब डर कायम करने में सरकार की सीधे भूमिका थी या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है मगर कई बार समाज के एक वर्ग में ऐसी धारणा बन जाती है कि मीडिया आज़ाद नहीं है। कोई कुछ बोल नहीं रहा है। कोई उनका पीछा कर रहा है। कोई फोन सुन रहा है। कोई टैक्स की फाइलें पलट रहा है तो लोग उस सरकार से डरने लगते हैं। जब आदमी सरकार से डरने लगे तो फिर उस सरकार के पास कुछ बचा नहीं रह जाता। सत्ता के मद में नेता अक्सर इस बात का लुत्फ उठाने लगते हैं कि मेरा जलवा कायम है। तब हरियाणा में चौटाला सरकार के किसी करीबी समर्थक ने पूछा भी था कि क्या लगता है। मैंने इसी आधार पर कह दिया था कि चौटाला हार जाएंगे। मज़ाक में कह दिया कि आपने गलती की। अखबारों में अपने ख़िलाफ खबरें भी छपने देते। ज़ाहिर है देर हो चुकी थी।

मैं समझता हूं कि किसी की हार और जीत के एक कारण नहीं होते हैं। कई कारण होते हैं और कई प्रकार की स्थितियां बनती हैं। लेकिन उन तमाम कारणों में एक कारण यह भी है कि सरकार के बारे में धारणा कैसी है। इस बार दिल्ली में एक तबके में इस भय का ज़िक्र खूब सुना। खासकर किरण बेदी के इंटरव्यू के बाद। कई लोग मुझे ही कई बार फोन करने लगे। इनमें से कुछ सरकार समर्थक लोग भी थे। सब सलाह देने लगे कि संभल कर चलना चाहिए। एक दुकानदार ने कहा कि आपको डर नहीं लगता। ये सरकार कुछ भी कर सकती है। मुझे बहुत हैरानी होती थी। मैं ही कहता रहता था कि ऐसा कुछ नहीं है। सरकार की आलोचना तो होते ही रहती है। मीडिया में भी होती है। मगर लोग मानने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि देखिये मीडिया में सिर्फ सरकार की तारीफ ही होती रहती है। अखबारों में दूसरी बातों का कोई ज़िक्र ही नहीं है। एक साधारण महिला की बात भूल नहीं पा रहा हूं कि हम एक की ही बात क्यों सुने। कैसे पता कि वो ठीक है। दूसरे की सुनेंगे तभी तो मिलाकर देखेंगे कि कौन ठीक है।

मैं कई नेताओं से बात करता हूं तो अचानक उनके स्वर बदल जाते हैं। जैसे ही उन्हें ध्यान आता है कि कोई सुन लेगा वो इधर-उधऱ देखने लगते हैं। पत्रकारों से बात करता हूं तो यह बात ज्यादा सुनाई देती है कि फोन पर नहीं। मिलकर बात करेंगे। एक सज्जन मुझसे मिलने आए थे। मुझे हैरानी हुई कि वो यह बात फोन पर नहीं कह सकते थे इसलिए मिलने आए। यह सब किसी सरकार के लिए अच्छे संकेत नहीं होते हैं। धीरे-धीरे ये सारी बातें अलग-अलग स्तरों पर पब्लिक होने लगती हैं। सरकार का इक़बाल होना चाहिए। सरकार का डर कायम नहीं होना चाहिए।

मैं संख्या तो नहीं बता सकता मगर यह संख्या इतनी तो थी ही कि किसी भी सरकार को चिन्ता करनी चाहिए। ऐसी धारणा बन गई थी। टीवी पर घंटो कवरेज ने लोगों के मन में शंका पैदा कर दी थी कि आखिर क्या बात है कि सिर्फ तारीफ हो रही है। वो अपने आस-पास के हालात भी देख रहे थे जिनमें उस स्तर का बदलाव तो हुआ ही नहीं था जिस स्तर की तारीफ हो रही थी। दिल्ली टीवी और अखबार से लैस शहर है। यहां अखबार ध्यान से पढ़े जाते हैं। कई लोग कहते हैं कि जनता अधीर हो गई। ऐसा नहीं है। जिस अनुपात में मीडिया सरकार की तारीफ कर रहा था, उस अनुपात में बदलाव नज़र नहीं आ रहा था। हुआ यह कि अपने आप बिना कुछ किए एक किस्म का अविश्वास बन गया।

लोग मज़बूत नेतृत्व चाहते हैं इसलिए कि वो कड़े फैसले लें और सबको साथ लेकर चलें। लेकिन कहीं से यह संदेश गया कि मज़बूत नेतृत्व के नाम पर लोगों को भी डराया जा रहा है। इसमें योगदान दिया उन लोगों की आक्रामकता ने जो दिन भर प्रधानमंत्री का नाम लेकर विरोधी स्वर को धमकाने लगे थे। प्रधानमंत्री तो एक तरफ संवाद बना रहे थे मगर दूसरी तरफ उनके नाम पर बोलने वाले कुछ और ही संदेश दे रहे थे। इसी के साथ ही जोड़-तोड़ से जुड़ी ख़बरों ने भी इन आशंकाओं को बल दिया कि सरकार के खिलाफ बोलना मुश्किल है।

लोकतंत्र में जनता सरकार के ख़िलाफ़ बोलने को हमेशा दुश्मन की तरह नहीं लेती है। वो इस बोलने से राहत महसूस करती है। उसे लगता है कि कोई सरकार को सीधे रास्ते पर रख रहा है। ऐसा इसलिए चाहती है कि वो उस सरकार से प्यार करती है। जनता उस सरकार को चुनने वाली होती है तो चाहती है कि कोई उस पर निगाह रखे। कोई उसकी आलोचना करे और सरकार भी सामने आकर जवाब दे। जबतक यह दोतरफा संवाद नहीं होता है लोगों का सरकार में भरोसा कमज़ोर होता चला जाता है। आजकल तमाम सरकारें एकतरफा संवाद का तरीका अपनाने लगी हैं। इससे सूचनाओ के अविश्वसनीय होने का खतरा बना रहता है।

सोशल मीडिया आलोचना के स्वर को दबाने का हथियार बन गया है। यहां चुप कराने के कई तरीके गढ़ लिये गए हैं। आप एक सवाल करेंगे तो उधर से कई लोग पूछेंगे कि आपने उनके बारे में सवाल किया। यह संतुलन और तुलना नहीं है बल्कि जवाब देने के बजाए धमकाना है कि सवाल पूछा कैसे। आम लोगों को इससे भरोसा नहीं मिलता है। अभी भी आम लोग ऐसे हैं जो वोट सभी को देते हैं मगर उनसे दूरी बनाए रखते हुए नज़र भी रखते हैं। इस नई राजनीतिक संस्कृति में अब एक पार्टी ही शामिल नहीं है। ज्यादातर पार्टियां ऐसा करने लगी हैं। समर्थकों की ऐसी फौज है कि एक सवाल किया नहीं कि धुनाई चालू हो जाती है। पत्रकारों या वैसे लोगों को गालियां दी जाती हैं, जो सवाल करते हैं।

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लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को इन बातों पर गहराई से सोचना होगा। आलोचना और यहां तक कि एकतरफा आलोचना की जगह भी उपलब्ध कराने का जिम्मा सरकार का है। एक सरकार के बारे में जितना खुला मूल्यांकन होता है उतना ही अच्छा होता है। सरकार के पास संवाद और समाधान करने का मौका होता है। दिल्ली के जनादेश को तरह-तरह से पढ़ा जाएगा और पढ़ा जाना चाहिए। अभी तो नरेंद्र मोदी के विजय का ही सही तरीके से विश्लेषण होना बाकी है, अरविंद केजरीवाल के करिश्मे का भी चैप्टर जुड़ गया है। पर जो भी विश्लेषण करें, एक चैप्टर इस पर भी रखें कि हारते और जीतते वक्त जनता में सरकार के बारे में क्या धारणा थी। आखिर क्यों लोग कह रहे थे कि कोई आवाज़ उठाने वाला होना चाहिए। क्या लोग सरकार से डरने लगे थे।