यह ख़बर 31 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश कुमार की कलम से : बंगाल में बीजेपी आ रही है या नहीं...?

रवीश कुमार की कलम से : बंगाल में बीजेपी आ रही है या नहीं...?

कोलकाता:

बंगाल में सियासी चर्चाओं का यह सवाल नंबर एक है। जब कोई सवाल संभावना नंबर एक बन जाए तो इसका मतलब यह है कि लोग एक जवाब खोज रहे हैं। कोलकाता की सड़कों और बैठकखाने में यह सवाल आ ही जाता है। यह और बात है कि घूम-फिरकर वहीं पहुंच जाता है कि शायद आने में टाइम लग जाए।

इस लिहाज़ से राजनीतिक चर्चाओं में बीजेपी ने पर्याप्त जगह बना ली है। इसका मतलब यह भी है कि तृणमूल कांग्रेस के सामने सीपीएम चर्चा नंबर एक पार्टी नहीं रही। कांग्रेस का तो पर्चा भी कहीं बिखरा हुआ नहीं मिलता। लोग जल्दी से कांग्रेस को एक लाइन में निपटा देते हैं कि पार्टी तो दिखती ही नहीं है। इस बात में बहुत दम भी है।

शारदा घोटाले को लेकर बीजेपी और सीपीएम की पोस्टरबाज़ी तो दिख भी जाती है, लेकिन कांग्रेस की कहीं नहीं दिखती। मुश्किल से बड़ा बाज़ार में कुछ दुकानों पर कांग्रेस का झंडा दिखा। वहीं पर इंदिरा, राजीव और महात्मा गांधी की फूलों से सजी प्रतिमा भी दिखी, लेकिन इन अपवादों के अलावा कांग्रेस लुप्तप्राय पार्टी हो गई है।

सीपीएम ने शारदा घोटाले को लेकर ममता पर हमला बोला है, लेकिन वह भी सियासी चर्चाओं में तेज़ी से नीचे सरकती जा रही है। एक सज्जन ने कहा कि सीपीएम के समर्थक और कार्यकर्ता पहले तृणमूल गए और अब उन्हें एक और अड्डा मिल गया है 'बीजेपी'। एक बैंक कर्मचारी ने कहा, तृणमूल अभी बंगाल का सीपीएम बन गया है, बीजेपी को आंदोलन के रास्ते आना होगा और यह रास्ता लम्बा है, इसलिए दो साल बाद सीट तो बढ़ जाएगी, मगर सरकार नहीं बना सकेगी। उनके पास नेता कौन है...? बीजेपी को भी आंदोलन के लंबे दौर से गुज़रना होगा..." बैंक कर्मचारी अपनी समझदारी को सिद्धांत की तरह व्यक्त कर रहे थे।

एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर से कहा कि तृणमूल सीपीएम है तो हंस दिए, बोले कि बंगाल में सब जानता है कि सीपीएम को कमज़ोर पड़ता देख उनके कार्यकर्ता संरक्षण के लिए तृणमूल में आ गए और जो सीपीएम में रह गए, उनमें से कुछ अब बीजेपी में जा रहे हैं, शारदा स्कैम को लेकर बीजेपी आक्रामक हो गई है... सीबीआई और ईडी के कारण बीजेपी संदेश देने में सफल रही है कि वह अब बंगाल में संरक्षण देने की स्थिति में है। मास्टर साहब की बात से एक बात समझ आ गई कि लोगों ने पहले सीपीएम से मुक्ति पाई और अब अगर तृणमूल भी सीपीएम बनती जा रही है तो यह बात पार्टी के लिए शुभ संकेत तो नहीं है।

ध्यान रहे कि सारी बातचीत कोलकाता में हो रही है... कोलकाता का मध्यमवर्ग बदल गया है। वह बीजेपी के जरिये अपनी राजनीतिक आउटलुक या पहचान को किसी राष्ट्रीय पार्टी से जोड़ना चाहता है। ममता बनर्जी पूरी तरह से क्षेत्रीय भूमिका में सिमट गई हैं और यह बात किसी भी क्षेत्रीय दल के मध्यमवर्गीय आधार के लिए ख़तरे की घंटी है। ममता और लेफ़्ट अपने ग्रामीण आधार में इतने उलझे और सिमटे हुए हैं कि गांव-क़स्बों से लेकर शहरों तक का मध्यमवर्ग या मध्यमवर्गीय आकांक्षा वाला तबक़ा सियासी रूप से बिन मां-बाप के आवारा घूम रहा है। इस तबके का गैर-राजनीतिकरण ही बीजेपी के लिए संभावनाएं पैदा कर रहा है।

इसके बावजूद तृणमूल इस लड़ाई को हर दिन लड़ रही है। सत्ता में आने के बाद विपक्षी तेवर के बने रहने का लाभ पार्टी को अब मिल रहा है। शारदा जांच से घिरे होने के बाद भी कोलकाता में कदम-कदम पर ममता बनर्जी के ही पोस्टर दिखते हैं। अक्सर इस मामले में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को अव्वल माना जाता है, लेकिन कोलकाता में ममता बनर्जी सबसे आगे हैं। गली-गली में तृणमूल के झंडे दिख जाते हैं। हर दूसरे-तीसरे दिन तृणमूल की छोटी-मोटी सभाएं होती रहती हैं। पोस्टरों में स्थानीय स्तर पर किए गए कार्यों की तस्वीरों के झुंड होते हैं।

बीजेपी के भी पोस्टर हैं, मगर तृणमूल के अनुपात में कम। पोस्टर और झंडों के लिहाज़ से शहर में बीजेपी लड़ती दिख रही है। उसका हर हमला शारदा को लेकर है तो तृणमूल ने भी शारदा के जवाब में सहारा ढूंढ लिया है। नुक्कड़ों पर तृणमूल ने बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए हैं। इनमें जेल में बंद 'सुब्रत राय सहारा' की तस्वीर को लाल घेरे में रखा गया है। किसी फ्रेम में सुब्रत राय सहारा के साथ नरेंद्र मोदी हैं तो किसी में अरुण जेटली तो किसी में रविशंकर प्रसाद।

शायद इसी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण चर्चाकारों को लगता है कि तृणमूल इतनी आसानी से बंगाल हाथ से जाने नहीं देगी, लेकिन बीजेपी भी कहां इतनी आसानी से हार मानने वाली है। शहर में विवेकानंद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पोस्टरों की भरमार बताती है कि बंगाल के चुनाव में ये दोनों महापुरुष काफी काम आने वाले हैं।

बीजेपी को पता है कि तृणमूल की ज़मीन कितनी मज़बूत है। लोकसभा के मोदी लहर में भी तृणमूल कांग्रेस ने 33 सीटें जीत ली थीं। तब भी शारदा स्कैम था, लेकिन इतनी गिरफ्तारियां नहीं हुई थीं। विधानसभा में भी तृणमूल के 180 से ज़्यादा विधायक हैं। पार्टी की अगर पकड़ मज़बूत न होती तो प्रति लोकसभा पांच सीटों के हिसाब से विधानसभा की 165 सीटों पर जीत हासिल नहीं करती। इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

लेकिन अब आप इस सच को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि 'तृणमूल के सामने कौन' की बहस में बीजेपी खड़ी हो गई है। 2016 में अभी काफी वक्त है, इस लिहाज़ से पहले पायदान पर जगह मिलना बड़ी बात है। तभी चाय की दुकान पर एक नौजवान ने कहा कि मैं बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता हूं। राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन नरेंद्र मोदी को वोट किया। क्यों...? क्योंकि मैं बंगाल में उद्योग चाहता हूं। मुझे लगता है कि वह उद्योग लाएंगे।

युवाओं से काफी लंबी बात हुई। जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने पर कहा कि बंद नहीं तो कम नहीं कर सकते... अब तो प्रधानमंत्री भी मन की बात में आप लोगों से अपील कर रहे हैं... लड़कों ने मुस्कुरा दिया, ड्रग्स और तंबाकू में वे फर्क समझते हैं। मैंने कहा कि मोदी सरकार के पहले स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन तो सिगरेट के खिलाफ थे तो इस पर भी चुप रहे, शायद यह उनका प्राइवेट स्पेस है और इस मामले में वे राजनीतिक दख़लंदाज़ी पसंद नहीं करते, लेकिन जैसे ही मैंने उन्हें बताया कि कोलकाता के बड़ा बाजा़र में तंबाकू और बीड़ी के जितने भी बड़े व्यापारी हैं, सबकी दुकान के आगे बीजेपी का नया-नया झंडा लगा हुआ है तो लड़के खिलखिलाकर हंस पड़े।

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बंगाल बीजेपी के आने या न आने को लेकर बहस कर रहा है। तृणमूल के सामने विपक्ष का जो विशाल खाली मैदान पड़ा है, उसे समेटने का संसाधन और संगठन जिसके पास है, वह जगह बना लेगा। बीजेपी के पास संसाधन और संगठन की कोई कमी नहीं है, लेफ़्ट भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है, तभी कई वामदल जनता परिवार की तरह एकजुट हो रहे हैं, लेकिन स्लोगन और पोस्टरबाज़ी के मास्टर लेफ़्ट के नेताओं को मैं नहीं बताना चाहता... हो सके तो आप बता दीजिए कि अच्छे दिन का वादा ममता ने नहीं, मोदी ने किया है।