रवीश कुमार : गणित और अंग्रेज़ी के डर से अपराधी बनते बच्चे

नई दिल्ली : क्या आप जानते हैं कि 2014 में छत्तीसगढ़ में दसवीं का इम्तहान देने वाले करीब 44 प्रतिशत छात्र फेल हो गए थे। इसी साल मध्य प्रदेश में करीब 52 प्रतिशत, राजस्थान में करीब 33 प्रतिशत छात्र फेल हुए थे। बिहार में 25 प्रतिशत छात्र फेल हुए तो इसी साल उत्तर प्रदेश में 13 प्रतिशत बच्चे फेल हुए। उत्तराखंड में 2013 में करीब 28 प्रतिशत छात्र फेल हो गए। जिन राज्यों में लाखों की संख्या में दसवीं के बच्चे फेल होते हों, वहां आप परीक्षा में नकल की समस्या को कैसे देखना चाहेंगे। किस पार्टी की सरकार है, इस लिहाज़ से है या यह क्यों हैं कि ये परिणाम हर राज्य की एक-सी हालत कैसे बयां कर सकते हैं। यह आप तय कर लीजिए।

मध्य प्रदेश में पिछले चार सालों में सबसे अधिक बच्चे 2011 में पास हुए थे। तब दसवीं का पास प्रतिशत 54 फीसदी गया था। 2012 में 53 फीसदी, 2013 में 51 फीसदी और 2014 में 47.74 प्रतिशत हो गया। 2008 में उत्तर प्रदेश में 40.07 प्रतिशत ही बच्चे पास हुए थे। करीब 60 प्रतिशत बच्चे जिस राज्य में फेल हो जाएं, आप कल्पना कर सकते हैं कि सामान्य परिवारों पर इसका सामाजिक असर क्या पड़ा होगा। 2008 से 2013 के बीच उत्तर प्रदेश ने ऐसा क्या कर दिया कि दसवीं का पास प्रतिशत 40 प्रतिशत से बढ़कर दोगुना हो गया, 83.75 प्रतिशत पर आ गया। आजकल यहां 90 प्रतिशत बच्चे पास होने लगे हैं। दिल्ली सहित कई राज्यों के सरकारी बोर्ड के टीचर अब नंबर देने में उदार हो गए हैं, क्योंकि फेल होने पर उनके खिलाफ कार्रवाई हो जाती है। इसके अलावा पढ़ाने और समझने की सच्चाई में कोई बदलाव नहीं आया है।

मार्च के महीने में जहां तमाम राज्यों में बजट का हिसाब देने के लिए लूट चल रही होती है, उसी महीने में भारत के भविष्य बोर्ड का इम्तहान दे रहे होते हैं। मार्च का महीना हमारी सरकारी और सार्वजनिक संस्कृति में भ्रष्ट महीना माना जाता है। उत्तर प्रदेश में भले ही 90 प्रतिशत बच्चे पास होने लगे हों, मगर यूपी का हर कोई जानता है कि चोरी हकीकत है। मध्य प्रदेश में भले ही आधे बच्चे फेल हो जाते हों, आप दावे के साथ नहीं कह सकते कि वहां चोरी नहीं होती। उत्तर प्रदेश में नकल करने पर जेल भेजने का कानून भी आया था, जिसे लेकर खूब हंगामा हुआ था।

बिहार के हाजीपुर ज़िले की जिस तस्वीर ने दुनिया भर में तहलका मचा दिया है, उससे जुड़ा हर सवाल और चिन्ता वाजिब है। 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव कवर करते समय मैं झांसी से जालौन की सीमा में प्रवेश कर ही रहा था कि पिनौरा गांव के एक स्कूल पर नज़र पड़ गई। बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे और ठीक हाजीपुर के स्कूल की तरह बड़ी संख्या में परिवार के सदस्य खिड़कियों पर लटके हुए थे। भीड़ इतनी थी कि वहां से बचकर निकलना मुश्किल था। लिहाज़ा कार धीरे-धीरे बैक कर एक पेड़ की ओट में लगाया और गाड़ी से ही सारा मंज़र शूट करना पड़ा।

नकल करना और कराना अपराध है, इससे किसी की असहमति नहीं हो सकती। बिहार की इस तस्वीर ने एक बार फिर से शर्मसार किया है। उससे ज्यादा झकझोरा है। नकल करने वाला कौन है। कई लोगों ने लिखा है कि सरकारी स्कूल में वंचित तबका ही पढ़ता है। इसे हम जातिगत एंगल से देख सकते हैं, लेकिन हम तब क्यों नहीं जागते, जब इन टीचरों को चुनाव से लेकर तमाम ऐसे कामों में लगाया जाता है, जिनका पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। हम तब क्यों नही जागते, जब ट्रेनिंग के दौरान टीचर पांचवीं क्लास के सवालों का जवाब नहीं दे पाते। हम तब क्यों नहीं जागते, जब स्कूल के स्कूल अस्थायी टीचरों से भरे होते हैं और वे पढ़ाने से ज्यादा राजधानियों के चौक पर नौकरी पक्की कराने के लिए लाठियां खा रहे होते हैं। स्कूल के स्कूल रद्दी मास्टरों से भरे हैं। बहुत अच्छे मास्टर भी हैं, पर वे भी तो इसी सिस्टम के शिकार हैं।

एक मिनट के लिए चोरी करने वाले और फेल होने वाले लाखों छात्रों की तरफ देखिए। क्यों कोई फेल होता है। क्यों चोरी करनी पड़ती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था गणित और अंग्रेजी के नाम पर लाखों छात्रों को समाज और कानून की नज़र में अपराधी बना रही है। दूसरे विषयों का भी यही हाल है। गणित और अंग्रेज़ी से डरा हुआ बच्चा भला कैसे दूसरे विषयों में मन लगा सकता है। इसीलिए चोरी के बहाने बिहार से आई तमाम तस्वीरों को देखिए। पढ़ाए जाने वाले विषयों ने कितना आतंकित किया होगा। एक तस्वीर में एक लड़की के चेहरे पर शून्य पसरा हुआ है, लेकिन शून्य की आकृति के बीच जो भय का दैत्य दिख रहा है, वह डरा देने वाला है। क्या चोरी करने या फेल होने वाले वही छात्र हैं, जो पढ़ते नहीं हैं। यह पूरी तस्वीर नहीं है।

“Maths breaks hearts, CBSE strikes fear” - 19 मार्च, टाइम्स आफ इंडिया, दिल्ली। इसी अखबार के पहले पन्ने पर एक और ख़बर थी, जिसका उन्वान था - ‘Tough’ maths paper leaves many in tears. ये उन बच्चों का हाल है, जिन्हें सरकारी स्कूलों से बेहतर शिक्षा मिलती हैं। कोचिंग से लेकर ट्यूशन तक सब एक पल में हाज़िर हो जाता है। सामाजिक और आर्थिक स्थिति से कमज़ोर उन बच्चों की कल्पना कीजिए, जिन्हें गणित और अंग्रेजी का पर्चा भीतर से तोड़ देता होगा। मैं खुद कमज़ोर विद्यार्थी होने के नाते इस पीड़ा से गुज़रा हूं। आज भी लगता है कि सारा काम छोड़कर इस देश को गणित से मुक्त कराने की किसी यात्रा पर निकल जाऊं। मुझे यह देश गणित से हारा हुआ देश लगता है। किसी भी शहर की दीवारों पर मर्दाना कमज़ोरी की दवा बेचने वालों के साथ गणित और अंग्रेजी के ही मास्टर पास होने की दवा बेचते नज़र आते हैं।

टाइम्स आफ इंडिया की इस खबर ने मेरे भीतर इस दहशत को फिर ज़िंदा कर दिया। उस लड़की तस्वीर दोबारा से याद आ रही है, जो अपनी गोद में चोरी के फर्रे को दबाए बैठी है और पर्चे पर लिख रही है। उसकी आंखों में वही दहशत देखी, जिसे मैं अपने दिनों में दूसरों से छिपाता फिरता था। मैंने नकल का रास्ता कभी नहीं चुना, लेकिन भय से आज तक मुक्त नहीं हो सका हूं। आज भी सोचता हूं कि मैं स्कूल क्यों गया, जब आधा से ज्यादा विषय समझ ही नहीं सका। अक्सर सोचता हूं कि संस्कृत, गणित, फिजिक्स और बायोलॉजी का चैप्टर याद क्यों नहीं आ रहा है, जिसे तीन बजे सुबह से ही उठकर रटने लगता था। आज चार लाइन अंग्रेजी की नहीं लिख सकता, मगर तब रट-रटकर पास हो गया था। आज भी जब रिपोर्टिंग के दौरान किसी स्कूल में जाता हूं, तो बच्चों से ज़रूर पूछता हूं कि आप जो पढ़ रहे हैं, वह समझ पा रहे हैं कि क्या पढ़ रहे हैं। क्यों पढ़ रहे हैं। क्या आप यह सवाल अपने मास्टर से पूछते हैं।

बिहार की इस तस्वीर पर किसी से कोई नरमी करने की ज़रूरत नहीं है। वहां का समाज जानता है कि कौन मेरिट से पास हुआ है और कौन चोरी से। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरिट से पास होने वालों की गुणवत्ता बहुत बेहतर ही हो। पढ़ाने और विषय को समझने में इतना अंतर रह जाता है कि रटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। यह शिक्षा व्यवस्था एक बोझ की तरह हमारी पीठ पर लादी गई है, जिसे हम कभी 90 प्रतिशत तो कभी मेरिट के नाम पर ढो रहे हैं। बेरोज़गारी दूर करने के नाम पर चपरासी और सिपाही बनने की बाध्यता न होती तो ये सारे लोग एक सर्टिफिकेट के लिए चोरी करने का जोखिम नहीं उठाते। किसी को पूछना चाहिए था कि आप क्या बनने के लिए चोरी से पास हो रहे हैं। जवाब मिल जाता।

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चोरी रोक देना एक प्रशासनिक सफलता हो सकती है, लेकिन क्लास रूम में जो हो रहा है या जो नहीं हो रहा है, उसका समाधान तो तब भी नहीं होता है। पर इसका समाधान कड़ाई नहीं है। जो सवाल है, वहीं का वहीं रह जाएगा। हम क्यों समान गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल तैयार नहीं कर पाए हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और बिहार। बाकी राज्यों का तो पता भी नहीं, लेकिन जिनका पता है, क्या ये आंकड़े नहीं बता रहे हैं कि सारी भाषणबाज़ी अखबारों और टीवी में हो रही है। क्लास रूम में कुछ नहीं हो रहा है।