कश्मीर में अख़बार बंद : वाजपेयी जी के शब्दों में - यह अच्छी बात नहीं है...

कश्मीर में अख़बार बंद : वाजपेयी जी के शब्दों में - यह अच्छी बात नहीं है...

`कश्मीर में अख़बार बंद है। राज्य सरकार ने छापने और वितरण पर रोक लगा दी है। दिल्ली की मीडिया में ख़बरें आई हैं कि कर्फ़्यू के कारण वितरण रोका गया है। छपी हुई प्रतियां ज़ब्त कर ली गई हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट भी बंद है। कर्फ़्यू के कई दिन गुज़र जाने के बाद ख़्याल आया कि अख़बारों को बंद किया जाए। क्या कर्फ़्यू में दूध, पानी सब बंद है...? मरीज़ों का इलाज भी बंद है...? आधुनिक मानव के जीने के लिए भोजन-पानी के साथ अख़बार भी चाहिए। सूचना न मिले तो और भी अंधेरा हो जाता है, अफ़वाहें सूचना बन जाती हैं और फिर हालात तो बिगड़ते ही हैं, मन भी बिगड़ जाते हैं, खटास आ जाती है।

वहां पहले भी हालात के बिगड़ने पर अख़बारों के छपने पर रोक लगती रही है, लेकिन पहले के नाम पर कब तक आज वही सब होता रहेगा। क्या वहां आतंकवाद अख़बारों के कारण फैला था...? क्या बुरहान वहां के मीडिया की देन है...? क्या मौजूदा हालात के लिए स्थानीय मीडिया ज़िम्मेदार है...? क्या वहां समस्या के कारण को ढूंढ लिया गया है...? उन्हीं अख़बारों से तो ख़बर आई थी कि अनंतनाग तीर्थयात्रा मार्ग में स्थानीय मुस्लिमों ने कर्फ़्यू तोड़कर यात्रियों की मदद की। यह भी ख़बर आई कि मुस्लिमों ने अपने पड़ोसी कश्मीरी पंडित की मां के जनाज़े को कंधा दिया है। यह भी खबर आई कि कई कश्मीरी पंडित फिर से भाग आए हैं। इन खबरों से लोग वहां की विविधता को देख पा रहे थे। अख़बारों पर पाबंदी लगाकर शेष भारत के लोगों से भी यह मौका छीन लिया गया है।

कश्मीर के अख़बारों को कश्मीर के लिए बंद किया गया है या शेष भारत के लिए...? दावे से तो नहीं कह सकता, लेकिन पहली बार लगा कि कश्मीर के मीडिया की ख़बरें शेष भारत तक पहुंच रही हैं। कई तरह के अख़बारों और उनकी वेबसाइट के बारे में सुनने-पढ़ने को मिला। उनके संपादक तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों में आकर बोलने लगे। स्थानीय मीडिया की ख़बरों को लोग साझा कर रहे थे। एक किस्म का बेहतर संवाद बन रहा था। शेष भारत के लोग इन सूचनाओं के आधार पर कश्मीर को जानने-समझने की हिम्मत जुटा रहे थे। संवाद की आवाजाही हो रही थी। वे बंदूक की नाल के अलावा कश्मीर में लोगों की बात सुन रहे थे। इससे कश्मीर की शिकायतें भी कम हो रही थीं कि शेष भारत को उनके बारे में फर्क नहीं पड़ता।

कई बार स्थानीय और दिल्ली के मीडिया की ख़बरों में साम्यता भी होती थी और कई बार भिन्नता भी। इससे ख़बरों की विविधता बनी रही। फिर भी मुझे समझ नहीं आ रहा कि उन ख़बरों में ऐसा क्या था, जो वहां के लोग नहीं जानते हैं और जो वहां से बाहर के लोग नहीं जानते हैं...? क्या उबलता कश्मीर लिख देने से हालात में उबाल आ जाता है...? अगर यह सही है और यह अतिसंवेदनशील सूचना नहीं है, तो इसे छपने में क्या दिक्कत है। क्या यही भाव दिल्ली के मीडिया की ख़बरों और संपादकीय लेखों में नहीं है...? कैराना के मामले में कौन किसे उबाल रहा था, इस पर भी वक्त निकालकर सोचना चाहिए।

बल्कि कश्मीर के आईएएस अधिकारियों से लेकर शेष भारत के तमाम लोग दिल्ली के मीडिया पर सवाल उठा रहे थे कि कुछ एंकर ऐसे बावले हो गए हैं, जिनके कारण हालात और ख़राब हो सकते हैं। शाह फ़ैसल ने साफ-साफ नाम लेकर लिखा कि कौन-कौन-से चैनल हैं, जो अफवाहें फैला रहे हैं। फिर भी बैन का कोई तुक नहीं बनता। न यहां, न वहां। एक अंतर और दिखा। कश्मीर का मीडिया कश्मीर से बात कर रहा था और दिल्ली का मीडिया कश्मीर के बहाने उत्तर भारत में फैले पूर्वाग्रहों को लेकर बात कर रहा था। उन्हीं पुरानी धारणाओं को भड़का रहा था, जो ट्रकों पर लिखे होते हैं - 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे...' लेकिन पाबंदी कश्मीर के मीडिया पर लगाई गई। कहीं के मीडिया को रोकने का फ़ैसला तर्कसंगत नहीं लगता है।

हर दूसरा विशेषज्ञ लिख रहा है कि केंद्र और राज्य सरकारों को कश्मीर के लोगों से बात करनी चाहिए, तो फिर वहां के अख़बारों को कश्मीर से बात करने की सज़ा क्यों दी गई...? वहां के अख़बार वहां के लोगों से ही तो बात कर रहे थे। सामान्य पाठक कैसे जानेगा कि वहां क्या हो रहा है। वहां के लोगों में भी भरोसा बनता कि उनकी बातें शेष भारत तक पहुंच रही हैं और लोग उनके बारे में बात कर रहे हैं। हिंसा के रास्ते से कश्मीर को लौटाने के लिए सब यही तो कहते हैं कि बातचीत होती रहे। थोड़े दिनों बाद सारे डाक्टर अपनी पर्ची पर यही लिखेंगे कि सरकार बात करे।

इस वक्त सरकार का काम अख़बार कर रहे हैं। वहां के लोगों से वहां की बात कर रहे हैं। इससे एक संवाद क़ायम होता है। सही और विविध सूचनाएं लोगों में आत्मविश्वास पैदा करती हैं। लोकतंत्र के प्रति इस विश्वास को ज़िन्दा रखती हैं कि बोला-सुना जा रहा है। प्रेस पर पाबंदी है और प्रेस चुप है। हम सबको चुप रहना अब सहज लगता है। उस सोशल मीडिया में भी चुप्पी है, जो बिना बुलाए लोकतंत्र की बारात में नाचने आ गया है कि हमीं अब इसके अभिभावक हैं। वह भी चुप है। बोलने की पाबंदी के ख़िलाफ़ सबको बोलना चाहिए। वाजपेयी जी के शब्दों में यह अच्छी बात नहीं है।

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