अगर आपको यकीन नहीं है तो आज रात 9 बजे NDTV इंडिया पर प्राइम टाइम ज़रूर देखिएगा। कैसे लोगों के घर बिना पानी के डूब गए हैं। नाली और सीवर नहीं डालने के कारण बरसात का पानी जमा होता गया। साल-दर-साल उस पर खड़ंजा बिछाते रहने के कारण सड़क ऊंची होती चली गई। इतनी ऊंची कि हर घर की छत सड़क से नीचे चली गई या इतनी डूब गई कि अब लोग स्टूल और बेंच लगाकर अपने घर से बाहर निकलते हैं। गली-दर-गली में मकान सड़क से नीचे डूब गए हैं।
मकानों के डूबने के कारण घर बर्बाद हो गए हैं। बहुत कम लोगों के पास अब पैसे हैं कि वे नीचे के मकान को भरकर उसके ऊपर मकान बना लें। ज्यादातर लोग कबाड़ी, तरकारी, इमारती मज़दूर का काम काम करते हैं, रिक्शा चलाते हैं, तो चाट-मूंगफली बेचकर भी गुज़ारा करते हैं। ऐसे लोगों की कोई आवाज़ इस चुनाव में सुनाई नहीं देती है, लेकिन नेताओं को इनकी संख्या मालूम है, इसलिए आप देखेंगे कि दिल्ली में जितने भी होर्डिंग लगे हैं, उनमें हर दूसरे पर इन्हीं से जुड़े मुद्दे हैं। मगर इन मुद्दों की कोई चर्चा नहीं है। कोई ईमानदार बहस नहीं है।
सीमेंट की साफ-सुथरी सड़क देखकर आप कहेंगे कि विकास हो गया है, लेकिन यही तो समझना है। आखिर यह कौन सा विकास था, जिसके तहत इतना नहीं सोचा गया कि सड़क बना देने से किसी के घर का दरवाज़ा बंद हो सकता है, घर डूब सकता है। सड़क का पानी अब घर में गिरता है। कॉलोनी में कहीं भी पानी का कनेक्शन नहीं है। सबने अपने घर के आगे हैंडपम्प लगा रखे हैं। दिल्ली जैसे महानगर में हैंडपम्प की मौजूदगी बता रही है कि हमारी सरकारें सबको पानी देने में फेल रही हैं।
जहां हैंडपम्प लगा है, वहीं से नाली का पानी निकल रहा है। नतीजा यह हुआ है कि गंदा पानी ज़मीन के नीचे जा रहा है और हैंडपम्प से ऊपर आ रहा है। मैंने कई औरतों को देखा कि वे बाल्टी में पानी भर कर दो-दो घंटे इंतज़ार करती हैं कि पानी का गंदा हिस्सा नीचे बैठ जाए, ताकि घर का कुछ काम कर सकें। औरते पीने का पानी लेने के लिए दो-दो किलोमीटर पैदल चलकर जाती हैं। इलाके में पानी बेचने के कई व्यापारी आ गए हैं, मगर इन्हें पानी का बुनियादी अधिकार हासिल नहीं है। औरतों का सारा जीवन पानी के आसपास कैद होकर रह गया है।
कुछ दिन पहले दक्षिणी दिल्ली की संजय गांधी कालोनी गया था। वहां पानी की समस्या ने औरतों को दूसरी तरह से झुका दिया है। रसायन के बड़े-बड़े ड्रमों में पानी भरा जाता है। ज़ाहिर है, इसे औरतें अपने सिर पर उठाकर नहीं ले जा सकती हैं, लिहाज़ा उन्हें ड्रम को नीचे गिराकर धक्का मारना पड़ता है। एक महिला ने बताया कि उसे ड्रम को धक्के मारकर घर तक ले जाने में कई बार घंटा भर समय लग जाता है। मैंने उस महिला को देखा कि जैसे ही ड्रम को धक्के मारने के लिए झुकी, सामने से मोटरसाइकिल आ गई। उसे खड़ा होना पड़ा, फिर कुछ दूर धक्के देने के बाद कोई और सामने आ गया। इस तरह से झुकते-उठते वह ड्रम को अपने घर तक ले गई।
इसलिए होर्डिंग पर नारे लिख देना - कि सबको मकान मिलेगा, पानी मिलेगा - पर्याप्त नहीं है। इन कॉलोनियों में रहने वाले लोगों की संख्या साठ लाख बताई जाती है। लोकतंत्र में संख्या की ताकत तो है, मगर ये लोग लाचार हैं। विधायक-पार्षद और स्थानीय गुंडों की धमकी के कारण उनके साथ रहने के लिए मजबूर भी हैं। इन्हें पता है कि इस गली से वोट कम पड़ा तो मकान तोड़ दिए जाएंगे। निगम के टैंकर से पानी नहीं मिलेगा।
सिर्फ नारे लिखकर इनके मुद्दों का समाधान नहीं होता है। सड़क तो बनी है, मगर उसके कारण घर डूबे हैं। अब सीवर और पानी का कनेक्शन देना होगा तो सात से आठ फुट ऊंची सड़क को तोड़कर सीवर लाइन डालनी होगी। यह सब एक जटिल काम हैं और वाकई ईमानदार नीयत की ज़रूरत है। किसी भी सरकार को अपनी प्राथमिकता में इसे नारों से आगे ले जाना होगा। दिल्ली के लिए भी अच्छा है कि भारत की राजधानी के सामान्य नागरिकों को सम्मानित जीवन जीने का मौका मिल रहा है।