जामिया में जो हुआ वह भारतीय स्टेट का नया चेहरा है, अब बेनकाब हो रहा है...

बंदूक के साये में जामिया मिल्लिया के छात्र अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए चले आ रहे हैं. जब भी यह दृश्य आंखों के सामने से फार्वर्ड होता था मेरे ज़हन में सारा इतिहास रिवाइंड होने लगता था.

जामिया में जो हुआ वह भारतीय स्टेट का नया चेहरा है, अब बेनकाब हो रहा है...

जामिया में CAA के खिलाफ छात्रों का प्रदर्शन- (फाइल फोटो)

बंदूक के साये में जामिया मिल्लिया के छात्र अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए चले आ रहे हैं.

जब भी यह दृश्य आंखों के सामने से फार्वर्ड होता था मेरे ज़हन में सारा इतिहास रिवाइंड होने लगता था. जब भी यह दृश्य धुंधला (ब्लर) होता था अतीत का इतिहास साफ (क्लीयर) हो जाता था. जब अतीत का इतिहास धुंधला होता था, सामने बन रहा इतिहास साफ दिखने लगता था. अगर आपने व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी से इतिहास की पढ़ाई नहीं की है तो मेरी बात आसानी से समझ जाएंगे. उम्मीद है हाथ ऊपर कर लाए गए छात्र ख़ुद को अपमान के जाल में फंसने नहीं देंगे और समझ सकेंगे कि यह भारतीय स्टेट का नया चेहरा है. और उस चेहरे से नकाब हटना शुरू हुआ है.

दिल्ली पुलिस ने अपने इतिहास में हज़ारों प्रदर्शनों को संभाला होगा. हज़ारों प्रदर्शनों में शामिल लोगों ने दिल्ली पुलिस को भी देखा है. निर्भया के समय हज़ारों लोग सरकार के ठीक सामने रायसीना हिल्स पर आ गए थे. नारे दिल्ली पुलिस के ख़िलाफ़ भी लग रहे थे मगर एक भरोसा था कि पुलिस गोली नहीं चलाएगी. जामिया के छात्रों को हाथ उठाते बाहर आते देख अब वह भरोसा टूट गया है. उन छात्रों के साथ एक ऐसी पुलिस भी बाहर आ रही थी जो अब बदल चुकी है. जिसके पास बंदूक है. पानी की बौछारें नहीं है.

बाहरी लोगों की तलाश में जामिया के भीतर गई थी, बाहर आई तो छात्रों को लेकर आ रही थी. इतनी सी बात नहीं समझ सकते तो इतनी ही सी बात समझ लीजिए. आपकी आवाज़ पर बंदूकों के पहरे लगा दिए गए हैं. दिल्ली पुलिस हमारी नहीं, ‘उनकी' पुलिस हो गई है. ‘उनकी' का मतलब सरकार नहीं, ‘स्टेट' है.

प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल की हिंसा में शामिल लोगों को उनके कपड़े से पहचानने की बात की थी. प्रधानमंत्री की यह भाषा सोशल मीडिया की भाषा और टोन से अलग नहीं थी. ज़ाहिर है यह ‘स्टेट' की भी भाषा होगी. तभी राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा ने ट्विट किया और जामिया मिल्लिया के प्रदर्शन की तुलना मुस्लीम लीग के डायरेक्ट एक्शन से की. उस जामिया की पहचान डायरेक्ट एक्शन से की जिसकी बुनियाद गांधी जी ने रखी थी. 1946 में मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्‍शन का एलान किया था जिसके बाद कोलकाता में हुए भयंकर दंगों में हज़ारों की संख्या में हिन्दू मारे गए थे.

गांधी ने वहां दंगाइयों के कपड़े नहीं देखे थे बल्कि वे कोलकाता गए थे. दंगों के बीच खड़े हो गए थे और शांत कर दिया था. कोलकाता के बाद गांधी बिहार भी गए जहां हिन्दुओं ने मुसलमानो को मारा था. बिहार की हिंसा को शांत कर दिया था. गांधी के तन पर कपड़ा कम था इसलिए वो कपड़ा नहीं देख सके. उन्होंने तन के पीछे मन को देखा और उसकी खूबसूरती को ढूंढा.
 
राकेश सिन्हा का ट्विट कहता है कि यह 1946 नहीं है 2019 है. सिन्हा व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के वास्तविक वाइस चांसलर लगते हैं. जो जामिया की हिंसा पर अपना गुस्सा ज़ाहिर करने के नाम पर इतिहास की समझ बदल देते हैं. एक राष्ट्रीय चरित्र की यूनिवर्सिटी को मुस्‍लिम लीग से जोड़ देते हैं. वो भूल जाते हैं कि जामिया में करीब 50 फीसदी छात्र ग़ैर मुस्लिम हैं. अगर सौ फीसदी मुस्लिम छात्र भी होते तो क्या उन्हें मुस्‍ल‍िम लीग से जोड़ा जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री मोदी और राकेश सिन्हा दोनों कपड़े और रंग से प्रदर्शन में शामिल लोगों की पहचान नहीं कर रहे हैं?

हम युवाओं को जिस तरह से देखते हैं उसमें काफी समस्या है. हमें लगता है कि भारत का युवा स्मार्ट फोन की दुनिया में डंप हो गया है. अपने कान में ईयर पीस लगाकर पसंद के गाने में खो गया है. अभी कुछ दिनों की बात है, गुजरात की राजधानी गांधीनगर में नॉन सेक्रेटेरियट की परीक्षा में धांधली के ख़िलाफ़ सैंकड़ों छात्र जमा हो गए. रात के वक्त उन्होंने अपने स्मार्ट फोन की स्क्रीन लाइट को मशाल बना लिया था. गुजरात सरकार को लगा कि कुछ दिन में शांत हो जाएंगे मगर नौजवान डटे रहे और अंत में सरकार को परीक्षा रद्द करनी पड़ी. 11 लाख नौजवानों ने इस परीक्षा के लिए फार्म भरा था. यूपी में 69000 शिक्षकों की भर्ती की परीक्षा हर दिन ट्विटर पर ट्रेंड होता रहता है. मीडिया इग्नोर कर देता है. किसी को परवाह नहीं कि चुनाव के समय रेलवे की जो परीक्षा निकली थी उसमें अभी तक सभी को अप्वाइंटमेंट लेटर नहीं मिला है. आपने नहीं देखा कि दिल्ली के मंडी हाउस पर रेलवे की परीक्षा से जुड़े विकलांग कई दिनों तक प्रदर्शन करते रहे. अपनी लड़ाई लड़ते रहे. देहरादून में 45 दिनों से अधिक तक आर्युवेदिक कालेजों के छात्र फीस वृद्धि के खिलाफ संघर्ष करते रहे.

जब छात्र यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन करते हैं तो लेक्चर दिया जाता है कि वो पढ़ने आए हैं. पढ़ाई करें. जब यूनिवर्सिटी के शिक्षक क्लास में शिक्षकों की कमी को लेकर प्रदर्शन करते हैं तो लेक्चर दिया जाता है कि पढ़ाई नहीं कर रहे. जब पढ़ाने वाले नहीं होंगे तो पढ़ाई कैसे होगी. इस सवाल को लेक्चर देने वाले गोल कर जाते हैं. जब जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में फीस वृद्धि को लेकर छात्र सड़क पर आते हैं तो मज़ाक उड़ाया जाता है. अर्बन नक्सल कहा जाता है. तब पढ़ाई की बात करने वाले नहीं कहते कि पढ़ाई महंगी होगी तो साधारण परिवारों के छात्र कहां पढ़ेंगे. उसी जे एन यू के पास इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के छात्र 16 दिनों से फीस वृद्धि के खिलाफ धरने पर बैठते हैं तो कोई उनकी चिन्ता नहीं करता.

दरअसल यूनिवर्सिटी को लेकर लेक्चर देने वाला का एक ही पैटर्न है. वो सरकारी यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले कस्बों और गांवों के निम्न मध्यम और ग़रीब वर्ग के लड़के लड़कियों से नफ़रत करते हैं. तभी बहुत से लोग तर्क देने आ जाते हैं कि हमारे टैक्स के पैसे से ये 40 साल तक रिसर्च करते हैं. हमारे टैक्स के पैसे से ये मुफ्त में पढ़ाई के नाम पर प्रदर्शन करते हैं. रिसर्च का उम्र से क्या लेना-देना?

इसलिए जामिया मिल्लिया या इसके बहाने किसी को इस ट्रैप में नहीं पढ़ना चाहिए कि इनकी चिन्ता यूनिवर्सिटी में पढ़ाई को लेकर है. इन्हें परेशानी बस यही है कि बार बार यूनिवर्सिटी से सरकार के खिलाफ आवाज़ क्यों उठती है? विपक्षी दल ख़त्म हो गए मगर यूनिवर्सिटी में असहमति और विपक्ष की आवाज़ मज़बूत होती चली जा रही है. इस आवाज़ से दिक्कत है.

दो साल से देश की कई यूनिवर्सिटी के छात्रों के संपर्क में हूं. मैं मानता हूं कि छात्रों का बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक हो चुका है लेकिन उनमें अब भी लोकतंत्र के छोटे छोटे ख़्वाब बचे हुए हैं. इन्हीं बचे हुए ख़्वाब के सहारे वे फीस के ख़िलाफ तो अपनी परीक्षा के रिज़ल्ट के लिए सड़कों पर आ जाते हैं. एक दिन वे सांप्रदायिक सोच से भी बाहर आएंगे. मुझे ऐसे बहुत से युवाओं के पत्र आते हैं जो लिखते हैं कि व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी ने उन्हें सांप्रदायिक बना दिया था. वे अफसोस ज़ाहिर करते हैं. वे देख पा रहे हैं कि भारत का भविष्य सांप्रदायिक होने में नहीं है. वो 1947 के विभाजन को नहीं जानते मगर 2019 के विभाजन का भयावह रुप देख पा रहे हैं. ये आप है जो भारत के नौजवानों से दूर हैं. उन्हें समझ नहीं पा रहे हैं.

आपने शुरू में देखा कि कैसे हाथ उठाए अपराधियों की तरह जामिया छात्रों को निकाला गया. उसी जामिया की दो तस्वीरें और हैं. शाहीन अब्दुल्लाह को बचाने के लिए आयशा और फरज़ाना सीना तान कर खड़ी हो जाती हैं. लड़के को लड़कियां बचा रही हैं. जामिया के ही ग़ालिब स्टैच्यू के पास ऊंचाई पर भी आयशा और फरज़ाना खड़ी हैं. उनके साथ एक और लड़की चंदना खड़ी है. ये वो तस्वीर है जो देश की हर यूनिवर्सिटी के गर्ल्स हॉस्टल के कमरे में लग जानी चाहिए. भारत इनके सपनो और जज़्बों की तरह ख़ूबसूरत हो जाएगा.

अगर आप दस्तक देते हुए नए भारत को समझना चाहते हैं तो जामिया से आई इन दो तस्वीरों को बार बार रिवाइंड कीजिए. फारवर्ड कीजिए. आप अच्छा महसूस करेंगे. गुड लक इंडिया.

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