रवीश कुमार का ब्लॉग : भजनात्मक कांग्रेस, आक्रामक भाजपा

फरीदाबाद में बीजेपी की रैली

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत... गायक बलराम आर्या भजनात्मक शैली में गाए जा रहा था। मोहाना, फरीदाबाद में ब्लॉक स्तर की एक सभा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सुनने आए बुजुर्ग लोग मारकाट वाली राजनीति के इस दौर में सात्विक होने लगे। यह वही गायक था, जिसे ठीक एक दिन पहले मैंने फरीदाबाद में नरेंद्र मोदी की रैली में गाते हुए देखा और सुना था। तब बलराम आर्या की मंडली के सभी सदस्यों के सिर पर रंगीन पगड़ी थी और सभी कलफ़दार सफेद कुर्ता पहने हुए थे। नरेंद्र मोदी की रैली के लिए इनका मंच ऊंचा बनाया गया था, ताकि लोग इन्हें दूर से देख सके और झूम सकें। प्रधानमंत्री की रैली में इन कलाकारों का सुर उठान पर था। गाने भी ऐसे चुने थे, जिनसे जोश पैदा हो सके। कांग्रेस की सभा में यही कलाकार गा रहे थे, मगर गानों की आक्रामकता गायब थी। मंच काफी नीचे बना था। मैंने बलराम आर्या से पूछा तो कहा कि दोनों की राजनीतिक संस्कृतियां अलग हैं। हमारा कांग्रेस के उम्मीदवार से लगाव तो है, मगर दिल मिलता है भाजपा से, इसलिए उनकी रैली में गाते हुए जोश पैदा हो जाता है।

इन बातों के संदर्भ में मैं याद करने लगा कि प्रधानमंत्री की रैली में गाए गए गीतों के बोल और भाव क्या थे और कांग्रेस की रैली में क्या गाया जा रहा है। वहां 1857 की क्रांति के नायकों का गुणगान हो रहा था। रानी लक्ष्मीबाई की शहादत का बखान करते हुए ऐसे ही स्वाभाविक रूप से ऊर्जा आ जाती है। सारे गीत वीर रस के थे।

कांग्रेस की रैली में भी आज़ादी के गीत बजे, लेकिन यहां भगत सिंह और सुखदेव की शहादत की चर्चा हो रही थी, मगर सुर एकदम शांत। हां, दोनों जगहों के क्रांतिकारी गानों में गांधी गायब थे। शायद गांधी को लेकर वीर रस का कोई गीत नहीं रचा जा सकता होगा। गायक गांधी को लेकर अचरज और रोचकता नहीं पैदा कर पाता होगा। तभी वह कांग्रेस की सभा में ढांढस बंधाते हुए गा रहा था, "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत..." यह भी कोई चुनावी गीत है भला। लगता है शोकसभा में गाया जा रहा है।

एक ही गायक और एक ही पृष्ठभूमि के गीतों के अंतर से आप कांग्रेस और भाजपा की रैलियों में आए नेताओं और समर्थकों की देह भाषा को भांप सकते हैं। कांग्रेस की रैली में सफेद कुर्ता तो है, मगर कुर्ते की चमक फीकी पड़ गई है। ऐसा लगा कि कार्यकर्ता ने पिछले दिन का कुर्ता पहन रखा है। भाजपा की रैली में कार्यकर्ताओं को देखकर लगा कि उनकी जीत तय है, इसलिए सब नए नए कुर्ते या धुले कुर्ते में नज़र आ रहे थे। कांग्रेसी सभाओं का आयोजन सादगी के नाम पर उदासीनता से भरा हुआ लगा, जबकि भाजपाई सभाओं का आयोजन ऊर्जा के नाम पर थियेटरनुमा।

बीजेपी ने रैलियों को काफी गंभीरता से लिया है। रैलियों को भव्यता प्रदान की है। पंडाल के रंग नए होते हैं। मंच ऊंचे होते हैं। कांग्रेस की सभाओं को देखकर लगता है कि पार्टी न सिर्फ संसाधनों की कमी से जूझ रही है, बल्कि इरादे भी नहीं दिखते। यह भी हो सकता है कि कांग्रेस के नेता हार निश्चित मान चुके हैं और रैलियों या चुनाव के लिए ज़रूरी पोस्टर-बैनर पर खर्च नहीं कर रहे हैं। हरियाणा में हर दस कदम पर बीजेपी का पोस्टर दिख जाएगा। इनेलो का भी दिख जाएगा, मगर कांग्रेस का बहुत कम। ऐसा नहीं है कि सत्ता में आने के बाद से हो गया, बल्कि नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले जब अपने अभियान की शुरुआत की, उसी दिन से बीजेपी ने अपनी रैलियों को एक सेट में बदल दिया। हर कोने को कैमरे के एक फ्रेम में बदल दिया गया।

कांग्रेस को जल्दी ही रैलियों के आयोजन को गंभीरता से लेना होगा। इस मामले में बीजेपी से सीख लेने में कोई बुराई नहीं है। बीजेपी ने ज़मीनी स्तर पर चुनाव लड़ने की रणनीति को राम भरोसे नहीं छोड़ा है। उसने एक-एक वोटर की घेराबंदी कर ली है। जिला से लेकर ब्लॉक स्तर पर रणनीतियों को चाक-चौबंद कर दिया है। हर कार्यकर्ता के पास कोई न कोई काम है, लक्ष्य है। पार्टी मोदीमय हो गई है, मगर इसी बहाने बीजेपी एक पेशेवर पार्टी भी हो गई है। बीजेपी के आईटी सेल के सदस्यों ने बताया कि फरीदाबाद में घर−घर जाकर, पार्कों में जाकर लोगों से फोन नंबर लिए गए। हमने यहां तक पूछा कि एसएमएस करेंगे तो तकलीफ तो नहीं होगी। लोगों के नंबर देने के भाव से पता चलता गया कि सामने वाला बीजेपी को कितना पसंद करता है।

बीजेपी में आईटी सेल दिखावटी यूनिट नहीं है। आईटी सेल के सदस्यों ने बताया कि पहले हम आईटी सेल का उद्घाटन खुद ही करते थे, मगर इस बार रोहतक में जब 'वार-रूम' बना तो उद्घाटन में 1,500 नेता-कार्यकर्ता आ गए। हर बड़ा नेता वहां मौजूद था। बीजेपी की किसी भी सभा में जाइए, आईटी सेल की टीम व्यवस्थित रूप से प्रचार कार्य में लगी होती है। कांग्रेस की सभा में मुझे कोई मिला ही नहीं, जो आईटी का काम कर रहा हो। कभी-कभार ही टकराते हैं।

बीजेपी के नेताओं ने बताया कि फरीदाबाद में ही उन्होंने आठ लाख लोगों के फोन नंबर जुटा लिए हैं। पेशा, मोहल्ला और तबके के हिसाब से। ट्विटर और फेसबुक से ज्यादा व्हाट्सएप के सहारे प्रचार हो रहा है। सोशल मीडिया के राजनीतिक प्रभाव के अध्ययन में अलग से व्हाट्सएप पर एक चैप्टर होना ही चाहिए। व्हाट्सएप पर रैली से लेकर बयान तक की सूचना दी जा रही है। विरोधी दल पर हमले किए जा रहे हैं। यहां तक कि बीजेपी ने अपने सरपंच को भी आईटी सेल का मेंबर बना दिया है। फरीदाबाद के एक गांव के सरपंच ने बताया कि उनके गांव के 70 फीसदी लोग फेसबुक पर हैं। कांग्रेस के नेता और समर्थकों का भाषण सुनकर लगा कि वे न तो अपने काम को लेकर उत्साहित है और न ही उनमें हमला करने की धार बची है।

मोहाना की सभा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा का भाषण अच्छा था, मगर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। आक्रामकता नहीं थी। उनके पहले के स्थानीय नेताओं में भी नहीं थी। किसी ने नहीं कहा कि कांग्रेस को ही क्यों जीतना चाहिए। सब ढुलमुल तरीके से बीजेपी पर हमला कर रहे थे। बीजेपी की रैली में नारे लगाए जाते हैं। चीखा जाता है। अच्छी और प्रभावशाली, और कई बार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोली जाती है। पंच लाइन होती है। बोला जाता है कि क्यों कांग्रेस खराब है, क्यों बीजेपी अच्छी है। स्पष्टता होती है और सत्ता में आने की मांग होती है। कांग्रेसी नेताओं का भाषण सुनकर लगता है कि देख लीजिए, आपको ठीक लगे तो हमें वोट दे दीजिएगा। खुद प्रधानमंत्री तमाम अंतर्विरोधों को पीछे धकेल देते हैं। विरोधी दलों की रैलियों में कही गई बातों का जवाब देते हैं। दीपेंद्र हुड्डा जवाब तो दे रहे हैं, मगर उनका जवाब न पोस्टरों पर है, न नारों में।

भूपेंद्र हुड्डा ने अपने भाषण की शुरुआत ही इस बात से की कि चुनाव है। सारे दल वाले आएंगे, अपनी बात कहेंगे। सबकी सुनिए। बीजेपी के नेता कहते हैं कि किसी और को मत सुनो। सिर्फ भाजपा को सुनो और भाजपा को चुनो। यह ठीक है कि हुड्डा ने देसी अंदाज़ में चुटकियां लीं, मगर भाषणबाज़ी में कांग्रेसी नेता पिछड़ रहे हैं। किसी को पराजित करने का उद्घोष नहीं था। दावेदारी में दम नहीं था। जहां बीजेपी के नेता ललकारते हैं, वहीं कांग्रेसी पुचकारते हैं।

एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने कहा कि कांग्रेस को अच्छे वक्ता लाने होंगे। मगर क्या है न जी। हम हार से घबराते नहीं हैं। हम सब्र कर लेते हैं। मोदी जी आज नए हैं। थोड़े दिनों के बाद रंग उतर जाएगा। यह कांग्रेस का पराजय भाव है या पराजय का कांग्रेसी भाव। विद्वान बहस करते रहें, लेकिन पता चल रहा है कि एक पार्टी लड़ने के नाम पर लड़ नहीं रही है और एक पार्टी, जिसका आधार नहीं, मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तक नहीं, वह हरियाणा में ऐसे लड़ रही है, जैसे वही जीतेगी। कांग्रेस नेताविहीन पार्टी भले न हो, मगर वक्ताविहीन ज़रूर हो गई है।

मैं यह नहीं कह रहा कि बीजेपी की आक्रमकता या नाटकीयता ही उसकी जीत का कारण है। मगर अपनी बातों और विचारों को फैलाने का आत्मविश्वास और ऊर्जा तो है ही। इसका जवाब कांग्रेस को ही ढूंढना होगा कि उसकी स्थानीय सभाओं में बुजुर्ग ही क्यों दिखते हैं। लाठी टेकते हुए बाबा-दादा नज़र आते हैं, मगर युवा वाले बाबा लोग नज़र नहीं आते। बीजेपी की फरीदाबाद रैली में ज्यादातर युवा थे। हरियाणा चुनाव में कांग्रेस का विज्ञापन देखिए या सुनिए। ऐसा लगता है कि झूमने के लिए बनाए गए हैं, इसीलिए मैंने 'भजनात्मक' शब्द का ज़िक्र किया। सब कुछ भजन शैली में हैं। बीजेपी के विज्ञापनों की भाषा अगन शैली की है, आग पैदा करने वाली। भजन और अगन के बीच लगन की भी बात होती है, जो कांग्रेस में नहीं दिखती, बीजेपी में दिखती है। 'मिल रहा है तो ले लो', यह बीजेपी का भाव है। 'जा रहा है तो जाने दो', यह कांग्रेस का भाव है।

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।