पत्रकार बनने के बाद हम हमेशा खुद को ऑपरेशन थियेटर में पाते हैं। हर मुद्दा एक बीमारी की तरह नज़र आता है, जिसके एक हिस्से की कटाई-छंटाई करते हुए ही खुद को महारथी डॉक्टर समझने लगते हैं। जबकि पूरे शरीर का उस बीमारी में क्या रोल रहा या उस ऑपरेशन से पूरे शरीर पर क्या असर पड़ा, पता भी नहीं चलता। हम एक नागरिक या वोटर बनने के रोमांच और तनाव से वंचित हो जाते हैं, क्योंकि सारा ऑपरेशन हम अपने सुख या बेहतरी के लिए कम दूसरे को बताने के लिए कर रहे होते हैं।
यह बात आपसे इसलिए कही कि एक वोटर के तौर पर आप कैसे तमाम राजनीतिक घटनाओं से गुज़रते होंगे। आपकी अपनी निष्ठा, तटस्था किन-किन घाटों से टकराती होगी। राजनेता या राजनीतिक दल हर वक्त आपकी निगाह में होने के लिए कसरत करते रहते हैं। उन्हें इस बात का ख़ौफ़ सताता ही होगा कि कहीं आपकी निगाह में न गिर जाएं या कोई गिरा न दे। हालांकि यह हर दौर में हुआ है, मगर अपने दौर में देख रहा हूं कि जब भी नेता की छवि गिरती है, वह नई छवियों को गढ़ने में लग जाता है।
क्या राजनीति सिर्फ छवियों के प्रबंधन का ही खेल है। छवियों की चिंता करना और निरंतर संवाद करते रहना जायज़ राजनीतिक प्रक्रिया और अधिकार है, लेकिन क्या आप इस जायज़ चिंता और प्रोपेगैंडा में फर्क कर पाते हैं। हो सकता है कि पूरे विभाग से लोग परेशान हों, मगर एक आदमी के काम को लेकर व्हाट्स-ऐप से लेकर फेसबुक तक पर तस्वीरें ठेल दी जाती हैं। यह प्रोपेगैंडा है। असली सवालों को छोटा करने के लिए ऐसी सच्ची तस्वीरों का जाल बिछा देना, जिससे लगे कि वाकई वह सवाल अहम नहीं हैं।
क्या वोटर इन छवियों के निर्माण की प्रक्रिया से आगे जाकर नहीं देख पाता होता। क्या वह उन सवालों को भूल ट्विटर, फेसबुक पर ठेले गए नए अभियानों पर मोहित हो जाता होगा। जब भी कोई नेता विवादों में घिरता है, लगता है कि लोगों की निगाह में गिरा है, तो वह तरह-तरह की कवायद में जुट जाता है। लोगों के बीच जाने लगता है, कुछ दूसरी अच्छी बातों का प्रसार करने लगता है। सोशल मीडिया के ज़रिये पॉज़ीटिव या कुछ काम करते हुए अपनी तस्वीरें लगा लगा कर वह अपनी खराब छवि पर एक तरह से मिट्टी की नई परतें डालने लगता है। इस काम के लिए जनमतशाला में एक से एक माहिर लोग लगाए जाते हैं, जिन्हें पानी का बुलबुला से लेकर साबुन-सर्फ सब बेचने का तजुर्बा हासिल है।
रोज़ ट्विटर और फेसबुक पर ऐसे अभियानों को देख रहा हूं। कोई फीता काट रहा है तो किसी के फाइल साइन करने की तस्वीर जारी की गई है। इन तस्वीरों से नेता को अथक प्रयास करता हुआ दिखाया जाता है, जबकि इनमें से कोई भी अभियान मूल सवालों से नहीं टकराते। बल्कि उन सवालों को छोड़ दूसरी छवियां गढ़ने में लग जाते हैं। किसी की मदद कर देते हैं, तो कोई नया स्कीम लॉन्च कर देते हैं। कहीं जाकर लंबा-लंबा भाषण दे आते हैं। ट्विटर पर ऐसी तस्वीरें ठेली जाने लगती हैं। टीवी के लिए नया कैंपेन लॉन्च कर दिया जाता है।
राजनीति में जनसंपर्क जारी रहना चाहिए, लेकिन जनसंपर्क का मतलब जनता से संपर्क की जगह जनता के पास जाकर अपनी छवि चमकाना भर रह जाए, तो एक वोटर को अपने कान खड़े कर लेने चाहिए। जनसंपर्क सिर्फ और सिर्फ छवि प्रबंधन का डिपार्टमेंट बनकर रह गया है। इसमें लोगों से जुड़ने और उन्हें सुनने की ईमानदारी नज़र नहीं आती है। दिल्ली के अखबारों में सुदूर राज्यों के विज्ञापन छपने लगे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर दिल्ली में यह अभियान क्यों चलाया जाता है, अपने राज्यों में क्यों नहीं। क्या इसका मतलब यह है कि यहां के अखबारों में लिखने वाले लोग दिल्ली से बाहर नहीं देख पाते। बाहर की तस्वीरों को ख़ुद चलकर दिल्ली की तरफ आना होता है।
छवियों से छवियों को ढकने के बीच जनता या वोटर को देखना चाहिए कि उसकी ज़िंदगी बदल रही है या नहीं। उसके आस-पास की ज़िंदगी बदली है या नहीं। उसके नाते रिश्तेदारों की ज़िंदगी बदल रही है या नहीं। सिर्फ छवियों के दम पर नई छवि गढ़ देने की सोच जनता की सहज बुद्धि को कम आंकना है। यह लिखने का उद्देश्य इतना भर जानना है कि आप इन सारे प्रयासों को किस तरह से देखते हैं। क्या सचमुच आपके लिए यही बड़ी बात होती है कि कोई नेता आपके बीच आ गया या ट्विटर पर बधाई संदेश दे दिया या आप इन सब छवियों की धुंध से पर्दा हटाकर असली काम को देख पाते हैं। बताइएगा। तब तक दिल्ली जो एक जनमतशाला है, वहां बनने वाली छवियों का लुत्फ उठाइये। बस इतना जान लीजिए कि हर नई छवि पिछली करनी पर एक पर्दा है।