स्कूल में पढ़ने वाली ग्रैता तुन्बैर जलवायु संकट पर कैसे बन गईं ग्लोबल नेता

स्वीडन की 16 साल की लड़की ग्रेता की कहानी को भारत के हर स्कूल में बताया जाना चाहिए और हर घर में बताया जाना चाहिए

स्कूल में पढ़ने वाली ग्रैता तुन्बैर जलवायु संकट पर कैसे बन गईं ग्लोबल नेता

16 साल की एक लड़की ग्रैता तुनबैर हुक्मरानों के लिए चुनौती बन गई है. ग्रैता ने अपने नैतिक बल और कठोर निश्चय से सबको घेर लिया है. वह अकेली है लेकिन दुनिया भर के लिए आंदोलन बन चुकी है. एक ऐसे नए रास्ते की बुनियाद रख रही है जिसे अब बच्चे तय करेंगे. अगर बड़ों से सिर्फ बातें होती हैं तो अब उन बातों का इंतज़ार नहीं किया जा सकता. बच्चे भी सड़क पर आ सकते हैं, दुनिया भर में यात्राएं कर सकते हैं और जलवायु के सवाल को बड़ा कर सकते हैं और समाधान की मांग कर सकते हैं. ग्रेटा की कहानी को भारत के हर स्कूल में बताया जाना चाहिए और हर घर में बताया जाना चाहिए.

ग्रैता तुन्बैर स्वीडन की हैं. पिछले साल अगस्त में उसने हर शुक्रवार स्कूल छोड़ना शुरू किया और स्टाकहोम में स्वीडन की संसद के बाहर तख्ती लेकर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. उनकी तस्वीर तब की है जब हमारी सहयोगी अंजिली इस्टवाल मार्च महीने में स्टाकहोम गई थीं और वहां ग्रैता तुन्बैर से मुलाकात की थी. अंजिली ने बताया कि इनका नाम ग्रैता तुन्बैर उच्चारित होना चाहिए न कि ग्रेटा थन्बर्ग. ग्रैता की तख्ती पर लिखा था कि जलवायु के लिए स्कूल से छुट्टी. ग्रैता छुट्टी की जगह स्ट्राइक का इस्तेमाल करती हैं. हड़ताल या स्ट्राइक से  एक राजनीतिक निश्चय झलकता है. 15 साल की ग्रैता जब लंबे अवसाद के चक्र से निकली तो उसने तय किया कि अगर भविष्य ही नहीं बचा है तो स्कूल जाने का कोई मतलब नहीं रहा. ग्रैता ने आंदोलन करना शुरू कर दिया. 11 साल की थी जब ग्रैता ने जलवायु संकट के बारे में जाना था. संकट इतना गहरा हो चुका है इस बात ने ग्रैता को अवसाद में धकेल दिया. वह सोचने लगी कि फिर जीने का क्या मतलब है. यह दुनिया ऐसे ही खत्म हो जाएगी तो घर बैठने का क्या मतलब. अवसाद से बाहर आई तो वह एक नई ग्रैता थी. भारत के लोग ग्रैता में गांधी देख सकते हैं. वह दुनिया के ताकतवर नेताओं के सामने अपने नैतिक बल के सहारे खड़ी हो गई. इसलिए इस वक्त हर स्कूल में एक क्लास ग्रैता के लिए रखा जाना चाहिए और सभी बच्चों को बताना चाहिए कि ग्रैता तुन्बैर नाम की एक लड़की दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिए किस तरह लड़ रही है.

ग्रैता ने दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है. एक साल के भीतर उस पर अनगिनत लेख छप चुके हैं. कई सभाओं में बोलने के लिए बुलाई जा चुकी है. पिछले साल दिसबंर में पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की बैठक में बोल चुकी है, जनवरी में दावोस में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम में बोल चुकी है. लंदन में ब्रिटिश संसद में, इटली की संसद में और फ्रांस में यूरोपियन संसद में बोल चुकी है. 17 सिंतंबर को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में थी. वहां पर सिनेट की जलवायु परिवर्तन पर बनी कमेटी से मुलाकात की. उसके साथ तीन और बच्चे थे जो अलग अलग देशों से आए थे. कमेटी के सामने ग्रैता ने अपनी बात रखी कि अमेरिका और अन्य देशों को जलवायु संकट को लेकर गंभीर होना चाहिए. तुन्बैर ने कहा कि वह चाहती है कि उसे नहीं, सांसद वैज्ञानिकों की बात सुने. आईपीसीसी 2018 की रिपोर्ट का उदाहरण दिया. आईपीसीसी संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है. पूरा नाम हुआ इंटर गर्वमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज. सिनेट की कमेटी ने इन्हें जानने के लिए बुलाया था कि आने वाली पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या सोचती है. 18 सितंबर को उसने अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित भी किया. सांसदों के सामने साफ साफ कहा कि माफ कीजिए आपकी कोशिशें काफी नहीं हैं. हमें आपकी तारीफ़ की ज़रूरत नहीं है. अपनी तारीफ़ बचाकर रखें. हमें यहां पर यह बताने के लिए न बुलाएं कि हम कितने प्रेरित करने वाले हैं. जब तक आप कुछ ठोस काम नहीं करते हैं, इन सब बातों का कोई फायदा नहीं है. कांग्रेस के सांसद ने उन्हें सुना और प्रतिक्रिया भी दी. ग्रैता ने राष्ट्रपति ट्रंप पर भी तंज किया कि कैसे अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर आ गया. कार्बन और ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन घटाने का लक्ष्य तय करने के लिए पेरिस समझौता हुआ था. ग्रैता कहीं भी जाती है सांसदों और हुक्मरानों को सीधा जवाबदेह ठहराती है कि आप सभी की वजह से ऐसा हो रहा है. कांग्रेस में खड़ी होकर ग्रैता ने अमरीका को ही सुना दिया कि दुनिया के इतिहास में अमेरिका सबसे बड़ा कार्बन गैस पैदा करने वाला देश है. डेढ़ सौ सांसदों के सामने बोल दिया. क्या ऐसा भारत की संसद में हो सकता है. इससे पहले उसने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा से भी मुलाकात की.

ग्रैता से किसी ने पूछा कि वह राष्ट्रपति ट्रंप से क्या कहना चाहती हैं तो जवाब था कि बस यही कि वे विज्ञान की सुनें. ग्रैता ने बताया कि उसकी सारी पीढ़ी यही मानकर चलती है कि जो झरना जो पहाड़ आज देख रहे हैं वो कल शायद न बचे. ग्रैता के पिता पत्रकार हैं. माता विख्यात ओपेरा सिंगर हैं. उसने हवाई जहाज़ से यात्रा छोड़ दी है. वह ज़मीन के रास्ते या समंदर में नाव से यात्रा करती है. इसके लिए उसने सौर ऊर्जा से चलने वाली नाव से दो हफ्ते में अटलांटिक पार किया है. इस नाव से कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता है. इस उम्र में ग्रैता ने इतना बड़ा जोखिम उठाया. समंदर की हवाओं को चुनौती देते हुए वह अमेरिका पहुंची. बीच में तूफान का भी सामना करना पड़ा जिस कारण ग्रैता को पहुंचने में देर हुई. 14 अगस्त को वह ब्रिटेन के प्लिमथ बंदरगाह से निकली. ढाई हज़ार नौटिकल्स माइल्स से ज़्यादा की यात्रा कर न्यूयार्क पहुंची तो वहां उसके स्वागत के लिए बहुत सारे बच्चे और लोग भी आए थे. यूरोप के भीतर वह ट्रेन से सफर करती है. हवाई जहाज़ से बहुत ज़्यादा कार्बन निकलता है जिससे जलवायु पर बुरा असर पड़ता है. ग्रैता के पिता उसकी यात्राओं में साथ होते हैं.

ग्रैता नज़र मिलाकर बात नहीं कर पाती, संकोची है. उसे एक किस्म का आटिज़्म है. जिन्हें एस्परगर्स सिंड्राम होता है वो साफ साफ बोलते हैं. दायें बायें करके अपनी बात नहीं रखती है. ग्रैता इसे अपना सुपर पावर बताती है. वह अपनी बीमारी को लेकर शर्मिंदा नहीं है बल्कि कहती है कि इस बीमारी ने ही उसे लड़ना सिखाया है. उसके इरादे फौलाद के बना दिए हैं. ग्रैता ने लिखा है कि एक समय वह काफी अकेली थी. उसका कोई सामाजिक जीवन नहीं था, दोस्त नहीं थे. आज वही ग्रैता पूरी दुनिया के लिए लड़ रही है. वह जिस मुल्क से आती है वहां पिछले साल भयंकर गर्मी पड़ी थी. इतिहास में सबसे अधिक तापमान हो गया था. जंगलों में आग लग गई थी. 2018 का साल स्वीडन के इतिहास में सबसे गर्म साल था. ग्रैता को आप ट्वीटर पर भी फॉलो कर सकते हैं. उसके अकाउंट पर फोलोअर की संख्या बढ़ती जा रही है. दिसंबर में जब संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन में भाणष दिया तो ट्विटर पर उसके फोलोअर की संख्या 4000 प्रतिशत बढ़ गई. इसका हैशटैग है #FridaysForFuture and #YouthStrike4Climate.

ग्रैता के कारण schoolstrikesforclimate अपने आप में एक आंदोलन बन गया है. शुक्रवार को बच्चे स्कूल स्ट्राइक करते हैं. ग्रैता के ट्विटर अकाउंट पर जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुत सारी बातें मिलेंगी. इटली के शहर वेरोना के पास एक खेत में ट्रैक्टर से बनाई गई 16 साल की स्वीडिश पर्यावरणविद ग्रैता तुन्बैर की तस्वीर... नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित की गई हैं.

ग्रैता तुन्बैर...ग्रैता के आंदोलन का असर भारत में भी होने लगा है. पिछले साल हरियाणा के ग्रुरुग्राम में 5000 से अधिक स्कूलों बच्चों ने पर्यावरण को लेकर मानव श्रृंखला का निर्माण किया था. कई किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई थी. विरोध इस बात का था कि सरकार जो हाईवे बना रही है वो अरावली के बायडाइवर्सिटी पार्क को रौंद कर जा रहा है. 26 सिंतबर को फिर से ऐसा प्रदर्शन होने वाला है. इसका नाम है ग्लोबल स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट चेंज. forests are our future. तो इस 26 सितंबर को कौन कोन गुरुग्राम जा रहा है, डायरी में नोट कर लें अभी से.

सबका एक ही लक्ष्य है कि कार्बन का उत्सर्जन कम हो. उसका साफ साफ कहना है कि हम बच्चे हैं. हम अपने भविष्य की चिन्ता ही क्यों करें जब कोई कुछ कर ही नहीं रहा है. कितना वाजिब सवाल है. ग्रैता पढ़ाई भी कर ही है. परीक्षा की तैयारी भी करती है. होमवर्क भी पूरा करती है.

ग्रैता कहती है सपना देखने का टाइम चला गया. जागने का वक्त है. ग्रैता को निशाने पर भी लिया जाता है कि वह अमेरिका पर बोलती है, चीन पर नहीं तो उसका कहना है मैं दूसरी नावों से भी कहूंगी कि समंदर में कचरा डालना बंद करो. मैं एक छोटे से देश स्वीडन से हूं. हर जगह वही बात है कि हम क्यों करें. अमेरिका को देखो, जैसे आप कह रहे हैं कि हम क्यों करें, चीन को देखो. ओपेक यानि आर्गेनाइज़ेशन आफ द पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज़, के सेक्रेट्री जनरल भी बच्चों के इस आंदोलन से परेशान हो रहे हैं. ओपेक अधिकारियों के भीतर दबाव बनने लगा है. उनके बच्चे अपने भविष्य को लेकर सवाल करने लगे हैं. क्योंकि वे देख रहे हैं कि दूसरे बच्चे तेल कंपनियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. ज़ाहिर है ग्रैता और उसके जैसे बच्चों का आंदोलन असर कर रहा है. रिज़ल्ट अभी नहीं आया है. शुक्रवार को जलवायु को लेकर दुनिया भर के स्कूलों में बड़ी स्ट्राइक हो रही है जिसमें 150 देशों के बच्चे भाग लेंगे. मनोज वाजपेयी और दीया मिर्ज़ा ने भारतीय नागरिकों से अपील की है कि वे ग्लोबल स्ट्राइक में हिस्सा लें. 23 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र में जलवायु को लेकर एक सम्मेलन हो रहा है जिसमें ग्रैता के साथ दुनिया भर से और भी बच्चे बुलाए गए हैं.

भारत के शहरों में भी पेड़ों को लेकर आंदोलन होने लगा है. पिछले साल जब दिल्ली के सरोजिनी नगर में 11000 पेड़ काटे जाने थे तब लोग बाहर निकले और पेड़ों को बाहों में भर लिया. कई संगठन भी साथ आए. इसी तरह का आंदोलन इन दिनों मुंबई में चल रहा है. आरे में मेट्रो का शेड बनना है जिसके लिए 2702 पेड़ काटे जाने है. कुछ लोग जिसमें फिल्म अभिनेता भी शामिल हैं, विकास के नाम पर यानि मेट्रो की खूबियों के नाम पर पेड़ों के काटे जाने का समर्थन कर रहे हैं. वही तर्क विकास के लिए विनाश ठीक है.

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आरे मिल्क कालोनी मुंबई में है. संजय गांधी नेशनल पार्क के पास है. इलाके के हिसाब से समझें तो पवई से लेकर गोरेगांव तक यह फैला हुआ है. जिसमें चार लाख से अधिक पेड़ है. आरे को मुंबई का आख़िरी फेफड़ा कहा जाता है. बीएमसी चाहती है कि यहां 2702 पेड़ काटे जाएं ताकि मेट्रो योजना के लिए शेड बन सके. जैसे ही फैसले की खबर पहुंची पहले वनशक्ति के स्टालिन दयानंद कोर्ट पहुंच गए. उनके साथ ज़ोरू भथेना भी थे. अदालत ने 30 सितंबर तक रोक लगा दी है लेकिन मुंबई में पेड़ बनाम मेट्रो को लेकर बहस हो रही है. यह मामला 2014 से चला आ रहा है. अब यह आंदोलन आम लोगों का हो चुका है. हर शनिवार और रविवार को मुंबईकर आते हैं और सड़क के किनारे खड़े होकर आरे के पेड़ों को बचाने का संकल्प दोहराते हैं. मेट्रो का कहना है कि जितने पेड़ कटेंगे उससे अधिक लगाए जाएंगे. मेट्रो चलेगी तो एक हफ्ते में जितना कार्बन कम करेगी, उतना कार्बन डाईआक्साइड 2000 पेड़ एक साल में सोख पाएंगे. लोगों का कहना है कि दुनिया भर में विकास का यही सपना दिखाकर प्रकृति को तबाह कर दिया गया और आज जलवायु संकट सबके सामने है. इसी तरह मुंबई के मैंग्रोव समाप्त हो गए. यहां की मीठी नदी नाले में बदल गई.