हमारी दादी-नानी, बहू-जेठानी चोर नहीं हैं, उनका पैसा-उनकी आज़ादी कैसे लौटेगी?

हमारी दादी-नानी, बहू-जेठानी चोर नहीं हैं, उनका पैसा-उनकी आज़ादी कैसे लौटेगी?

नोटबंदी के इस फैसले से एक झटके में औरतें बिन पैसे के फिर से मर्दों पर आश्रित हो गईं

कोसीला, पतिसा, अचरा, नेहाली, लुकई डबल, कोलउध, कोलवारी, धरोड़, गुप्ती, कुठिया का धन, चोरउका, चोरिता, चोरउधा, खूंट, फाड़ा, फूंफी, गांठ, पोटली, अड़ी अड़ास... भारत के अलग-अलग हिस्सों में ये शब्द आपकों घर घर में मिलेंगे. आपकी नज़र में ये सब अनजान से लगने वाले शब्द होंगे, लेकिन जब आप इनकी तहों तक जाएंगे, तब पता चलेगा कि नोटबंदी के फैसले ने हिन्दुस्तान की करोड़ों औरतों को किस तरह से निहत्था कर दिया है. हम सब इस नोटबंदी का असर अर्थव्यवस्था की किताबों में खोज रहे हैं, लेकिन मेरी जितनी समझ है, उससे यही लगता है कि इस एक फैसले ने करोड़ों औरतों को अपने ही घर में चोर बना दिया है. वे संदिग्ध निगाह से देखी जा रही हैं. सरकार का फैसला जैसे ही घरों में पहुंचा, वैसे ही बहू-जेठानी, दादी-नानी अपना अपना गुल्लक लेकर आंगन में आ गईं. ऐसे जैसे किसी ने चींटी के बिल में पानी भर दिया हो. किसी के पास दस हज़ार निकला, तो किसी के पास दो लाख. किसी के पास तीन हज़ार निकला तो किसी के पास अस्सी हज़ार. ये औरतों का अपना पैसा होता है, लेकिन अब वह सबका हो चुका था. मर्दों की खुशी देखते बन रही है. औरतों का दुख कोई नहीं देख रहा है. कई साल से बचाए गए, उनके पैसे एक झटके में सरकार और परिवार की निगाह में आ गए. एक झटके में औरतें बिन पैसे के फिर से मर्दों पर आश्रित हो गईं.

किसी भी राजनेता और नारीवादी नेता ने औरतों की इस बेचैनी को आवाज़ नहीं दी है. घर-घर में बीवियां चोर की तरह देखी जा रही हैं. उनके पैसे पर पति का नियंत्रण हो चुका है. औरतों का यह पैसा चोरी का नहीं है. मगर चोरी के पैसे की तरह घर-घर में पकड़ आया है. कई साल लगाकर औरतों ने दस हज़ार से लेकर पांच लाख तक बचाये हैं. अपनी इच्छाओं को मारा है. इन पैसों से वे अपने स्तर पर सामाजिक कार्य व्यवहार करती हैं. मायके से आए भाई को ख़ाली हाथ जाने नहीं देती हैं. अपनी सहेलियों के लिए कभी साड़ी ख़रीद ली, तो अपनी मां के लिए कुछ सामान. भारत का समाज निहायत ही औरत विरोधी समाज है. इस समाज में औरतें सिर्फ कैलेंडर और त्योहारों में पूजी जाती हैं. उनकी बचत का पैसा ही वह कोना है, जिसके दम वे भयंकर गुलामी के आंगन में आज़ादी की एक खिड़की बना लेती हैं. आज वो खिड़की बंद हो गई.

मैंने ऊपर जिन शब्दों का ज़िक्र किया है, उनके मतलब एक ही हैं. घरों में वर्षों से दादी, नानी, दीदी, मां, बहू, सास और बेटी नाम की औरतें इस पैसे को बचा कर रखती आईं हैं. ये इनका पैसा नहीं होता है. ये चोरी का भी नहीं होता है, लेकिन जब इनके आंचल के किसी कोने से चिपका रह जाता है, घर के किसी कोने में पड़ा रह जाता है, तब उस पर से धीरे-धीरे देने वाले का नाम मिट जाता है और इनका अपना पैसा कहलाने लगता है. इन पैसों से कोई दादी बिस्तर पर पड़े-पड़े घर की बहू कुछ दे देती है, अपनी पोतियों को चुपके से दे देती है. आप शहरी कहेंगे कि दादी बेटे से मांग भी सकती है. मुझे तो हंसी आएगी, लेकिन फिर भी जवाब देता हूं. मां से लेकर दादी तक का अपना स्वाभिमान होता है. कोई नहीं चाहता कि हर बात के लिए किसी से पैसे मांगे. किसी को देने के लिए मांगते वक्त ज़्यादा झिझक होती है. इसलिए बेवा दादी भी आराम से सो लेती है, शादी के घर में नया दूल्हा आशीर्वाद लेने आ भी गया, तो वो बिना किसी से मांगे चुपचाप हज़ार पांच सौ दे देंगी. इसके लिए भी वह वर्षों से बचाना शुरू कर देती हैं.

हिन्दुस्तान में मुद्रा के चलन को आप सिर्फ अर्थशास्त्र के निज़ाम से नहीं समझ सकते हैं. औरतों ने सदियों से अपने लिए ये व्यवस्था की है. इस पैसे के दम पर न जाने कितने घरों के आर्थिक संकट दूर हुए हैं. अब ये सारे पैसे बैंकों में पहुंच जाएंगे. बहुत सी औरतों के पास बैंक के खाते तो होते हैं, फिर भी कुछ पैसा स्त्रीधन के रूप में किसी गुप्त स्थान पर रखा होता है. यह पैसा भी समय समय पर या कहें तो दोपहर के वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था को सींचता रहता है. ऐसा नहीं है कि यह पैसा भारतीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं है, बस घर के मर्द की जानकारी में नहीं है. यह पैसा उस मर्द का ही है जो अपनी कमाई पर टैक्स देता है, लेकिन अब दादी नानी के पास बहुत दिनों के लिए अपना पैसा नहीं रहा. ग़रीब घरों की औरतों पर तो बहुत ही मार पड़ी है.

अब अगर कोई औरत ढाई लाख से ज़्यादा जमा करेगी तो उसे सोर्स बताना पड़ेगा. ज़रूर कई लोग औरतों के खाते का इस्तमाल करके काला धन वहां टिका देंगे. लेकिन औरतों का जो पैसा घरों में बरामद हुआ है, वो सिर्फ मर्दों से उन तक नहीं पहुंचा है. यह औरतों की अपनी समानांतर अर्थव्यवस्था का परिणाम है. हमारे बिहार में जब कोई औरत विदा होती है, तो दूसरी औरतें उसके आंचल में चावल, हल्दी, दूब, सिंदूर और अपनी क्षमता से दस रुपये से लेकर हज़ार रुपये तक देती हैं. इसे खोंइचा कहते हैं. हमारी औरतें अपनी आर्थिक सुरक्षा को इन्हीं सब नेमतों से दूसरी औरतों के साथ बांटती रहती हैं. किसी को मुंह दिखाई में पैसा मिला तो किसी को विदाई में. किसी के बच्चे के मुंह दिखाई में मिलता है तो औरतें उसे तुरंत लंबे समय के लिए जमा कर देती हैं. ध्यान से देखेंगे तो यह पैसा उनके काम कम आता है, आपातकाल में परिवार के ही काम आता है. अब लौट कर नहीं आएगा. आएगा भी तो दादी का नहीं रहेगा, परिवार को हो जाएगा.

अब हमारे वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि शादी जैसे पुण्य कार्य को क्यों अपवित्र करना है. लोग चेक से भी पैसे देंगे. अरुण जेटली की इस बात से हैरान हूं. नारीवादी स्त्रियों का समूह अगर औरतों को नहीं जानता है तो क्या हमारे नेता भी समाज को नहीं जानते हैं. वित्तमंत्री ने ज़रा भी सोचा होता तो ये बात नहीं कहते. शगुन का पैसा देने वालों का अपना एक स्वाभिमान होता है. भले उसकी आर्थिक स्थिति बेहतर न हो, लेकिन जब वह सौ रुपये का शगुन देता है तो दस रुपये का लिफाफा भी ख़रीदता है, ताकि भीड़ में किसी की नज़र न पड़े और सामाजिक दायित्व भी पूरा हो जाए. सोचिये, जब वह सौ रुपये या पांच सौ रुपये के चेक काटेगा तो कितनी शर्मिंदगी से गुज़रेगा. क्या अब मुंह दिखाई और मुंडन के पैसे भी चेक से दिए जाएंगे? औरतें अपनी मुंह दिखाई के पैसे को आयकर विभाग की किस धारा के तहत बताएंगी. क्या कोई नानी या सास अपनी नातीन या बहू को पे-टीएम से विदाई के पैसे देगी? शगुन का पैसा दिया ही जाता है कि शादी के घर की थोड़ी बहुत भरपाई हो सके. अब घर का मालिक बारात विदा कर बैंक बैंक दौड़ेगा... सौ पचास के अनगिनत चेक भंजाने?

क्या बनारस और हरिद्वार के पंडों को भी चेक दिया जाए? तब तो मंदिरों में भी चेक और पे-टीएम से दान देने का कानून बनना चाहिए. पंडे अपनी आमदनी का सोर्स क्या बताएंगे. क्या आयकर विभाग दक्षिणा को आमदनी का सोर्स मानता है? मुझे आयकर कानून की जानकारी नहीं है, लेकिन हर आमदनी का सोर्स पता करने की यह ज़िद उसी तरह से नज़र आती है, जैसै हमारे राजनीतिक दल अपने चंदे का सोर्स न बताने की ज़िद पाले रहते हैं. मैं ज़रा देखना चाहता हूं कि कौन पंडों और मोलवियों से पूछने की हिम्मत करता है. क्या आपने सुना कि पंडों के घर पर आयकर विभाग ने छापे मारे हैं? सरकार समर्थक धार्मिक संगठन ही मुर्दाबाद करने लगेंगे. प्रवचन देना आसान है. वैसे मंदिरों के ज़रिये बड़ी मात्रा में काला धन के सफेद करने के किस्से सुनाई दे रहे हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर को देना चाहिए कि मुंह दिखाई और मुंडन के पैसे को औरतें किस खाते में दिखाएं. अब हमारा समाज ऐसा है तो है. हम जैसे लोग जो कर्मकांड से दूर हैं, वो भी दिखाई-विदाई में कुछ दे ही देते हैं. जब हम कर्मकांड समाप्त करने की बात करते हैं, तो लोग गाली लेकर सोशल मीडिया पर कूद पड़ते हैं. तो चलिये कर्मकांड को आर्थिक सिस्टम से जोड़ने की बात कर देते हैं. अब से मंदिर मस्जिद में इलेक्ट्रॉनिक तरीके से दान कर्म किए जाए. कीजिए मेरी वाहवाही, करेंगे?

जिस तरह से औरतें मायूस दिख रही हैं, वह अप्रत्याशित है. मुझे पंडों और मंदिरों की बिल्कुल चिंता नहीं है. मुझे इस फैसले से औरतों की मनोवैज्ञानिक आज़ादी के चले जाने की चिंता है. यह सही है कि उनका पैसा कहीं खो नहीं गया है. नष्ट नहीं हुआ है. उनके खाते में रहेगा. लेकिन अब वह गुप्त नहीं रहेगा. अब वो पैसा पतियों का हो गया. परिवार का हो गया. बैंकों का लाखों करोड़ का नॉन प्रोफिट असेट (एनपीए) हमारी औरतों की वजह से नहीं बना है. 57 उद्योगपतियों के नाम बताने में अदालत और सरकार को संकट हैं, जिन्होंने 85,000 करोड़ रुपये चपत कर लिए. लेकिन आम औरतों से पूछा जा रहा है कि उनके पास कहां से पैसा आया. करोड़ों औरतें इस फ़ैसले से अपने परिवार में चोर और ख़ाली हो गई हैं. कानून का हस्तक्षेप बग़ैर सामाजिक यथार्थ के मान्य नहीं हो सकता है.
 
मैं नहीं कहता कि बैंकों में पैसे जाने से अर्थव्यवस्था को लाभ नहीं होगा. वह जब होगा तब होगा, फिलहाल जिनका नुकसान हो रहा है, उनकी बात तो हो सकती है. औरतों की इस आज़ादी के जाने की बात करने का यह मतलब नहीं है कि काला धन का समर्थन किया जा रहा है. इस फैसले से मैं भी उत्साहित हूं, लेकिन जैसे-जैसे तमाम महिलाओं से बात हो रही है, मुझे लगता है कि उनकी इस सीमित आर्थिक आज़ादी के जाने की बेचैनी को दर्ज करना ही चाहिए. आवाज़ देनी चाहिए. इस समस्या का एक मात्र पहलू यही नहीं है कि लोग जगह जगह एटीएम की कतारों में लगे हैं. यह भी एक बड़ा पहलू हैं कि औरतें घर-घर में बेघर हो गई हैं. हर परिवार का आपातकोष चला गया. दरअसल यह आपातकोष नहीं, हमारी औरतों का आज़ादकोष है, वो चला गया.

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