हिन्दू विवेक का होलिका दहन हो रहा है, परमाणु बम का ज़िक्र दीवाली में हो रहा है

भारत के लाखों स्कूलों में न्यूक्लियर बम की विनाशलीला के बारे में बताया गया होगा. न्यूक्लियर बम बच्चों का खिलौना नहीं है. इसने लाखों लोगों की जान ली है. पीढ़ियां नष्ट की है.

हिन्दू विवेक का होलिका दहन हो रहा है, परमाणु बम का ज़िक्र दीवाली में हो रहा है

“भारत ने पाकिस्तान की धमकी से डरने की नीति को छोड़ दिया. ये ठीक किया न मैंने?वरना आये दिन हमारे पास न्यूक्लियर बटन है, न्यूक्लियर बटन है... यही कहते थे? हमारे अख़बारवाले भी लिखते थे. पाकिस्तान के पास भी न्यूक्लियर है, तो हमारे पास क्या है भाई, ये दीवाली के लिए रखा है क्या?”

यह सुनकर कोई भी भारतीय कंफ्यूज़ हो सकता है कि दीवाली का न्यूक्लियर बम से क्या लेना देना, क्या हम दीवाली में न्यूक्लियर बम छोड़ते हैं या छोड़ने वाले हैं? दीवाली जैसे ख़ूबसूरत त्योहार पर किसी ने ऐसी दाग़ नहीं लगाई थी. परमाणु बम अपने धमाकों की तेज़ रौशनी से अंधेरा पैदा करता है. लाशें बिछाता है. दीवाली की रौशनी उम्मीद पैदा करती है. जीवन देती है. लेकिन किसी को यह कंफ्यूज़न नहीं होना चाहिए कि प्रधानमंत्री न्यूक्लियर बम छोड़ने की बात कर रहे हैं. और यह बात ठीक नहीं है. सबको एक स्वर से कहना चाहिए.

भारत के लाखों स्कूलों में न्यूक्लियर बम की विनाशलीला के बारे में बताया गया होगा. न्यूक्लियर बम बच्चों का खिलौना नहीं है. इसने लाखों लोगों की जान ली है. पीढ़ियां नष्ट की है. दुनिया भर में यही सीखाया जाता है कि न्यूक्लियर बम धरती पर इंसान के वजूद को मिटा देने का बम है. विज्ञान का अभिशाप है. शांतिदूत भारत के प्रधानमंत्री चुनाव में न्यूक्लियर बम चला देने की बात कर रहे हैं. उनकी इस बात पर कोई प्रतिकार नहीं है. कोई बहस नहीं है. कोई सवाल नहीं है.

न्यूक्लियर बम चलाने से लेकर हत्या और आतंक की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर का बचाव भी प्रधानमंत्री कर सकते हैं. संविधान के संरक्षक होने के नाते वे प्रज्ञा ठाकुर पर लगाए गए सारे आरोपों को हिन्दू धर्म के गौरव से जोड़ कर उन्हें आरोप मुक्त घोषित कर सकते हैं. उनके समर्थक हर बात पर चुप रह सकते हैं. मोदी नहीं तो कौन. मोदी ही ज़रूरी है. लेकिन मोदी को दोबारा चुने जाने के लिए प्रज्ञा ठाकुर और न्यूक्लियर बम क्यों ज़रूरी है?

मालेगांव धमाके में कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को आरोपी बनाया है. वो ज़मानत पर हैं मगर आरोप मुक्त नहीं हुई हैं. इस केस में NIA आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रही थी. मोदी लहर के उस उफान में अभियोजन पक्ष की विशेष वकील शालिनी सालियान ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था कि NIA ने उनसे कहा था कि वे आरोपियों को लेकर ज़रा नरम रहें. बाद में शालिनी का तबादला हो गया. शालिनी सालियान महाराष्ट्र की प्रतिष्ठित अभियोजन वकील हैं. उनका इंटरव्यू आप पढ़ सकते हैं. NIA ने प्रज्ञा ठाकुर को क्लिन चिट देने की कोशिश की मगर अदालत ने नहीं माना. जब आरोप तय हुए तब केंद्र में मोदी की ही सरकार थी.

29 दिसंबर 2007 को संघ के प्रचारक सुनील जोशी की हत्या होती है. इस हत्या में अवैध असलहों का इस्तमाल होता है. देवास पुलिस ने संघ के प्रचारक की हत्या के मामले में जल्दी ही केस बंद कर दिया. इस बीच मालेगांव धमाका होता है. समझौता धमाका होता है. अजमेर दरगाह धमाका होता है. NIA जांच करती है और हर्षद सोलंकी नाम के एक शख्स को पकड़ती है. हर्षद से पूछताछ के दौरान केस खुलता है कि उसके ग्रुप ने देवास में किसी सुनील जोशी नाम के संघ के प्रचारक की हत्या की है. NIA कोर्ट इस केस को देवास पुलिस को सौंप देती है क्योंकि यह हत्या का मामला था. देवास पुलिस बंद पड़े केस को खोलती है और जांच करती है. देवास के सत्र न्यायालय में केस चलता है. आठ लोग आरोपी बनाए जाते हैं. इसमें हर्षद और प्रज्ञा सिंह भी हैं. कोर्ट के पेपर में प्रज्ञा सिंह लिखा है.

1 फरवरी 2017 को देवास के प्रथम अपर सत्र न्यायधीश राजीव आप्टे की टिप्पणी है, "हत्या जैसे संवेदनशील और गंभीर प्रकरण में मध्य प्रदेश पुलिस औद्योगिक क्षेत्र देवास एवं राष्ट्रीय अनुसंधान अधिकरण (NIA) दोनों ही अनुसंधान एजेंसियों ने पूर्वाग्रह अथवा अज्ञात कारणों से गंभीरतापूर्वक अनुसंघान नहीं करते हुए दुर्बल प्रकृति की परस्पर प्रतिकूल साक्ष्य एकत्रित की, वह अभियुक्तगण को उन पर विरचित आरोपों में दोषसिद्ध किये जाने हेतु पर्याप्त नहीं होते हुए ऐसी विरोधाभासी स्वरूप की साक्ष्य से अभियोजन के कथानक पर ही गंभीर संदेह उत्पन्न हो गया है."

क्या यह क्लिन चिट है? जज साहब कह रहे हैं कि गंभीरतापूर्वक जांच नहीं हुई. कमज़ोर साक्ष्य पेश किए गए. अब यहां यह एक बात समझने और पूछने लायक है. संघ ने सुनील जोशी की हत्या की जांच की मांग क्यों नहीं की? क्यों केस बंद होने दिया? बीजेपी की सरकार ने सुनील जोशी की हत्या का इंसाफ़ क्यों नहीं दिलवाया? उस समय के संघ प्रमुख और इस समय के संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने प्रचारक की हत्या का केस जांच से बंद हो जाने से पहले तब क्यों नहीं मांग की और अब हाईकोर्ट में अपील की मांग क्यों नहीं कर रहे हैं. हाईकोर्ट में अपील क्यों नहीं की गई?

ऐसी ख़बरों को करने वाले पत्रकारों का कहना है कि जब नीचली अदालत से केस खारिज होता है तो अभियोजन अफसर या सरकारी वकील ज़िला कलेक्टर को अपने मत के साथ लिखता है कि इस माले की अपील हाईकोर्ट में की जानी चाहिए. सुनील जोशी हत्याकांड मामले में भी अभियोजन अफसर ने उस समय के ज़िला कलेक्टर आशुतोष अवस्थी को पत्र लिखा. प्रक्रिया के अनुसार ज़िलाधिकारी इसे राज्य के विधि एवं विधायी मंत्रालय को भेजता है. आम तौर पर शत प्रतिशत हत्या के मामले में हाईकोर्ट में अपील की मंज़ूरी दे दी जाती है.

इंदौर के पत्रकार सुनील सिंह बघेल इन मामलों को गहराई से जानते हैं. उन्होंने लोकस्वामी अख़बार के लिए प्रज्ञा सिंह का इंटरव्यू किया था. इंदौर में नवरात्रि के समय पंखेड़ा मनाया जाता है. उत्सव है. इस दौरान लोक स्वामी चार पेज का सप्लिमेंट छापता था. संयोग से किसी के कहने पर सुनील सिंह बघेल ने प्रज्ञा सिंह का इंटरव्यू किया था. यह इंटरव्यू 30 सितंबर 2008 को छपा था और मालेगांव धमाका 29 सितंबर 2008 को हुआ था.

अब यहां कमलनाथ सरकार की भूमिका बनती है कि वह फाइल की तलाश करने की हिम्मत दिखाए और बताए कि क्या फैसला हुआ था, किस आधार पर संघ के प्रचारक सुनील जोशी की हत्या के मामले में हाई कोर्ट में अपील नहीं की गई. उससे पहले यह सवाल शिवराज सिंह चौहान से पूछा जाना चाहिए कि फरवरी 2017 से उनके कार्यकाल खत्म होने तक हाईकोर्ट में अपील क्यों नहीं की गई? क्या वे नीचली अदालत को सुप्रीम कोर्ट मानते हैं? समझौता ब्लास्ट मामले में भी जज की टिप्पणी पढ़िए. जज जगदीप सिंह ने लिखा है कि NIA ने ठोस साक्ष्यों को रिकार्ड पर नहीं लाया. अब आप इसके बाद भी इसे क्लिन चिट कहेंगे?

इस प्रज्ञा सिंह का बचाव प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं. संघ के प्रचारक सुनील जोशी की हत्या को सब भूल चुके हैं. उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि जब सुनील जोशी की हत्या हुई तब बीजेपी की सरकार थी. सुनील जोशी की हत्या को लेकर उन्होंने कुछ नहीं कहा. इस चुनाव में संघ और बीजेपी का कार्यकर्ता प्रज्ञा ठाकुर ज़िंदाबाद बोलेगा. संघ का कार्यकर्ता सुनील जोशी अमर रहे, सुनील जोशी को दो इंसाफ़ नहीं बोलेगा. प्रज्ञा सिंह हिन्दू भी हैं और ठाकुर भी हैं. राजनीति का अपना चुनावी मकसद होता है. प्रधानमंत्री ने प्रज्ञा सिंह पर लगे आरोपों को हिन्दू सभ्यता के अपमान से जोड़ दिया है.

महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है. दिसंबर 2018 में मुंबई एंटी टेरर स्कावड (एटीएस) ने सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति के बारे में कहा कि यह संस्था कथित तौर पर भारत की अखंडता और संप्रभुता के खिलाफ काम कर रही है. टाइम्स आफ इंडिया समेत कई अखबारों में यह खबर छपी है. न्यूज़ चैनलों ने भी दिखाया था. इससे जुड़े एक शख्स को मुंबई के पास नाला सोपारा से गिरफ्तार किया. उस पर बम बनाने का आरोप था.

केंद्र सरकार के पास सनातन संस्था को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव लंबित है. यह मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस का बयान है जो मीडिया में छपा है. केंद्र सरकार बताए कि उसका एटीएस की इस जांच पर क्या कहना है, उसने इन संस्थाओं को प्रतिबंधित करने का निर्णय लेने में देरी क्यों की है? क्या प्रधानमंत्री एटीएस को हिन्दू विरोधी, विधर्मी कह देंगे? उसके द्वारा गिरफ्तार सभी हिन्दुओं को देवता घोषित कर देना चाहिए. उनके समर्थक मान लेंगे कि हां यह सही है क्योंकि मोदी ही ज़रूरी हैं.

नरेंद्र मोदी इस चुनाव को हिन्दुत्व के एजेंडे पर लड़ रहे हैं. विकास के सवालों को उन्होंने हिन्दुत्व से ढंक दिया है. उनके हिन्दुत्व के एजेंडे में हिन्दू के नाम पर कही जाने वाली हर बात सही होती है. ग़लत कुछ नहीं होता. ग़लत सिर्फ विरोधियों का होता है. प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दुत्व से हिन्दू विवेक को विस्थापित कर दिया है। हिन्दू विवेक होता तो उनसे हत्या और आतंक के आरोपी का समर्थन करने को लेकर प्रश्न करता मगर उल्टा उनका समर्थन किया जा रहा है. उनसे प्रश्न करता कि क्या हिन्दू के नाम पर कुछ भी ग़लत कहा जाएगा, हर ग़लत का समर्थन करना पड़ेगा?

प्रधानमंत्री मोदी को यकीन हो गया है कि हिन्दू का अपना विवेक नहीं होता है. जो मोदी का सियासी विवेक कहेगा वही हिन्दू विवेक होगा. दुनिया की कोई ऐसी धार्मिक सभ्यता नहीं है जहां हिंसा और रक्तपात का इतिहास नहीं है. प्राचीन भारत का इतिहास भी भाइयों और पिताओं को मार कर राजा बनने से भरा हुआ है. अशोक ने जिस रक्तपात की व्यर्थता को देखा था वह क्या था. क्या बौद्ध धर्म के इतिहास में हिंसा नहीं है? क्या ईसाई और इस्लाम को मानने वाली सभ्यताओं में हिंसा नहीं है, युद्ध नहीं है? आतंक नहीं है? क्या आतंक की परिभाषा हत्या और हिंसा से मुक्त है?

भारत के प्रधानमंत्री प्रज्ञा सिंह ठाकुर का राजनीतिक बचाव कर सकते थे. मगर हिन्दू धर्म की आड़ में क्यों किया? बीजेपी के नेता और प्रज्ञा ठाकुर कहे जा रही हैं कि हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता इसका आधार क्या है? राजीव गांधी को बम धमाके में मारने वाले कौन थे? इस तर्क से तो हिन्दू बलात्कारी नहीं हो सकता. हिन्दू हत्यारा नहीं हो सकता. हिन्दू पाकेटमार नहीं हो सकता. क्या हम हत्या और बलात्कार के आरोपियों को भी धर्म से जोड़ेंगे? प्रधानमंत्री संविधान के संरक्षक हैं. वे संस्थाओं और सिस्टम के भीतर की नाकामियों पर बोल सकते थे. बता सकते थे कि जिन केसों में फर्ज़ी फंसाया गया उनकी जांच हो रही है. क्या ऐसा हुआ है? क्या उन्होंने ऐसा कुछ किया है जिससे अधिकारी किसी और को फर्ज़ी केस में न फंसाएं.

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