UN में सुषमा स्‍वराज का 'वो' संवाद किसने लिखा था...

UN में सुषमा स्‍वराज का 'वो' संवाद किसने लिखा था...

संयुक्‍त राष्‍ट्र में अपने संबोधन के दौरान विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज

"जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर फेंका नहीं करते ", विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जब यह संवाद दोहराया तो वो चेतावनी टीवी के सामने बैठे दर्शकों को गदगद कर गई. उस एक संवाद ने सुषमा स्वराज के भाषण में तेवरों की जो छौंक डाली, उसका अंदाज़ा आप उस पर मिलने वाली तालियों से भी नहीं लगा सकते.

मशहूर फ़िल्म 'वक़्त' का यह संवाद भारत की कूटनीति का हथियार बनेगा, किसी ने नहीं सोचा होगा. बीआर चोपड़ा की फ़िल्म 'वक़्त' का यह संवाद किस सिनेमा प्रेमी का पसंदीदा संवाद नहीं होगा. राजकुमार जब चिनॉय सेठ को याद दिलाते हुए कहते हैं कि जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते. यह कहते ही राजा बने राजकुमार वाइन ग्लास तोड़ देते हैं. 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के माहौल में 'वक़्त' रिलीज़ हुई थी. आज 50 साल बाद फ़िर से भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध सा माहौल है और इस फ़िल्म का यह संवाद तालियां बटोर रहा है.

'वक्त' फ़िल्म का संवाद लिखा था मशहूर शायर अख़्तरूल ईमान ने. हिंदी सिनेमा में पचास साल तक उन्होंने संवाद लेखन किया है. इत्तफ़ाक़, क़ानून, धुंध, पाकीज़ा, पत्थर के सनम, गुमराह जैसी फ़िल्में लोगों की ज़ुबान पर आई तो उसका एक कारण अख़्तरूल ईमान का संवाद लेखन भी था.
 

(अख़्तरूल ईमान की फाइल फोटो)

अख़्तरूल ईमान बेहद संजीदा और पेचीदा शायर माने गए हैं. उनकी शायरी का संकलन हिन्दी में भी सरो-सामां नाम से उपलब्ध है, जिसे सारांश प्रकाशन ने छापा है. किताब की प्रस्तावना में अतहर फ़ारूक़ी ने लिखा है कि "अख़्तरूल ईमान की शायरी के तमाम पहलुओं को समझने में तो अभी उर्दूवालों को सदियां लगेंगी. ईमान को अपने पाठक से अपेक्षा होती है कि जब वह उन्हें पढ़ना शुरू करे तो औसत दर्जे के साहित्य से उसका संबंध बाकी न रह जाए." ऐसी ठसक वाले शायर का ही ऐसा संवाद हो सकता है जिसे सुषमा स्वराज न्यूयार्क में मिसाइल की तरह इस्‍तेमाल कर रही थीं.

एनडीटीवी में हमारे पूर्व सहयोगी देवेश अख़्तरूल ईमान की एक नज़्म 'एक लड़का' का ज़बरदस्त पाठ करते थे. हम सबने देवेश का हाल-चाल पूछने से पहले कहते थे कि
यार, अख़्तरूल ईमान को सुना दो. बस एक बार. देवेश मुस्काराते हुए सुनाने लग जाते थे.

दियारे-शर्क़ की आबादियों के ऊंचे टीलों पर
कभी आमों के बाग़ों में कभी खेतों की मेड़ों पर
ये मुझसे पूछता है,अख़्तरूल ईमान तुम ही हो?
(दियारे शर्क़ मतलब पूरब के देश)


"जिस माहौल में हम सांस ले रहे हैं वह सिर्फ एक अराजक माहौल है, बेक़ाबू, बदहवास और बिखरा हुआ. राष्ट्रीय सतह पर भी, अंतर्राष्ट्रीय सतह पर भी. जब से धरती दो गिरोहों में बंटी है, बायें बाजूवाले और दायें बाजूवाले, राजनीतिक प्रभुत्व की दौड़ इतनी तेज़ हो गई है कि दम फूले जा रहे हैं लोगों के." 1983 के साल सरों-सामां आई थी और उसी किताब की प्रस्तावना में अख़्तरूल ईमान की यह पंक्ति हांफती हुई मिली. अख़्तरूल ईमान की पैदाइश उत्‍तरप्रदेश के नजीबाबाद के मौजा किला में हुई थी और यह शायर इस दुनिया से बहुत पहले जा चुका है. उनकी एक नज़्म से आपका परिचय कराता हूं. इसमें दो शब्द आयेंगे जिनमें से एक फ़रावां का मतलब है प्रचुर और तोशा का मतलब है राह ख़र्च. नज़्म का नाम है सोग.

मरने दो मरने वालों को, ग़म का शौक़ फ़रावां क्यों हो
किसने अपना हाल सुना है हम ही किसका दर्द निबाहें
ये दुनिया, ये दुनियावाले अपनी-अपनी फ़िक्रें में हैं
अपना-अपना तोशा सबका, अपनी-अपनी सबकी राहें
वो भी मुर्दा, हम भी मुर्दा, वो आगे, हम पीछे- पीछे
अपने पास धरा ही क्या है नंगे आंसू, भूखी आहें


तो आप जब भी ये संवाद दोहरायें कि 'जिनके घर शीशे के होते हैं..' अख़्तरूल ईमान को ज़रूर याद करें.

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