मधुमेह रोगियों के पांव जल्दी ही बहुत खूबसूरत होंगे, जमीन पर रखने लायक!

यह ब्लॉग येल की महिमा के लिए नहीं है, हमारी आपकी दुर्दशा पर बात करने और रास्ता निकालने पर विचार के लिए है... काश हम सबके जीवन में एक अच्छी यूनिवर्सिटी की यादें होतीं

मधुमेह रोगियों के पांव जल्दी ही बहुत खूबसूरत होंगे, जमीन पर रखने लायक!

सन 1701 में येल यूनिवर्सिटी की बुनियाद पड़ी थी. चार सौ साल की यात्रा पूरी करने वाली इस यूनिवर्सिटी की आत्मा ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में बसती है, जबकि है अमरीका के न्यू हेवन शहर में. यहां दो दिनों से भटक रहा हूं. आज भटकते हुए बायो-मेकेनिक्स की प्रयोगशाला में पहुंचा. यहां तीन भारतीय छात्र नीलिमा, निहव और अली हमारे पांव और उंगलियों की स्थिरता और उसके जरिए लगने वाले बल के बीच संतुलन का अध्ययन कर रहे हैं. अली मेकेनिकल इंजीनियर हैं. निहव फ़िज़िक्स के छात्र और नीलिमा बायो टेक्नालॉजी की. अलग-अलग विषयों से स्नातक होने के बाद ये तीन इस लैब में पहुंचे हैं. वत्सल चाहते थे कि इनके लैब में चला जाए वहां दूसरी तरह की सोशल साइंस से मुलाकात होगी.

यहां एक छोटे से कमरे में दस करोड़ से भी अधिक के उपकरण लगे हैं. एक सेकेंड में एक लाख फ़्रेम कैप्चर करने वाले महंगे कैमरे हैं, तो सपाट पांवों का अध्ययन करने के लिए बेहद महंगी ट्रेड मिल. यह कमरा इन तीनों का जीवन है, जहां हमारे जीवन को बेहतर करने के उपाय खोजे जा रहे हैं. इन तीनों से जो सीखा वह आपसे साझा कर रहा हूं.

अली हमारे पांव के तलवे की सपाट सतह ( Flat feet) का अध्ययन कर रहे हैं. अमेरिका में पुराने अध्ययन के अनुसार बीस प्रतिशत लोगों के पांव के तलवे सपाट हैं. मधुमेह की बीमारी ऐसे सपाट तलवे वालों के लिए तबाही से कम नहीं. भारत में मधुमेह के मरीज़ों की आबादी हम जानते हैं. यह भी जानते हैं कि मधुमेह के कारण पांव में घाव हो जाते हैं. मगर हम यह नहीं जानते कि सपाट पांव की वजह से पांव में अल्सर हो जाता है. इसके कारण पांव काटने पड़ जाते हैं. अमेरिका में दुर्घटना के बाद अल्सर के कारण सबसे अधिक पांव काटने की नौबत आती है. भारत में तो यह संख्या और भी ज़्यादा होती होगी लेकिन हम नहीं जानते.

अली ने बताया कि मधुमेह के आखिरी चरण में भी पांव सपाट हो जाता है. तब शरीर का भार अलग तरीके से पूरे पांव पर पड़ने लगता है. इसी गलत लोडिंग के कारण अल्सर होता है. तो अली का अध्ययन इसका समाधान खोज रहा है कि कैसा जूता बने या शरीर की गतिविधियों में क्या बदलाव लाया जाए कि पांव सपाट न हो और यदि हो तो गलत लोडिंग से घाव न हो. फिर काटने की नौबत न आए. किस तरह से एड़ी और उंगलियों के बीच मेहराबदार ऊंचाई बनी रहे. अली का अध्ययन लकवे के शिकार मरीजों को फिर से खड़ा करने या चलने के लायक बनाने के काम आ सकता है. अली को इंसानी शरीर के चार पांव मिले हैं, साक्षात. मौत के बाद जो शरीर अस्पतालों को दान दिए जाते हैं उसी से काट कर. अली पता लगा रहे हैं कि कौन सा लिगमेंट रिपेयर हो सकता है जिससे मधुमेह के मरीज़ों के पांव ठीक हो सकें. लिगमेंट दो हड्डियों के बीच जोड़ने वाली कोशिकाएं होती हैं जिन्हें अंग्रेजी में सेल्स कह सकते हैं, समझने के लिए.

अली ने बताया कि कई देशों की सेनाओं में सपाट पांव वालों की भर्ती नहीं होती है, शायद भारतीय सेना में भी. क्योंकि ऐसे पांव वाले लोग तेज भाग नहीं पाते और जल्दी चोटिल हो जाते हैं. मैक्सिको में ‘तारा हमारा' नाम की एक जनजाति है जो पथरीली ज़मीन पर दो सौ मील तक भाग लेती है. इनके बीच एक गांव से दूसरे गांव दौड़कर जाने की परंपरा है. इन सब सामाजिक और वैज्ञानिक अनुभवों के आधार पर क्या कोई जूता ऐसा बन सकता है जो सपाट पांव वाले मधुमेह के मरीज़ों को नया जीवन दान दे सके, इसी का सपना इस कमरे में तैर रहा है.

नीलिमा ने बताया कि कई बार बुजुर्ग लोग या नौजवान भी चीजों को उठाते समय संतुलन खो देते हैं. बुज़ुर्गों में हाथ कांपने की बीमारी आम होती है. नीलिमा हमारी मांस-पेशियों की गतिविधियों को जानने में लगी हैं. कई बार हमारी उंगलियां संतुलित होती हैं, स्थिर होती हैं मगर बल सही से नहीं लगा पातीं. अगर कमजोर उंगलियों के लिए कुछ ऐसा सहारा बना दिया जाए जिससे गिलास या पेन उठाने के बाद छूटकर नीचे न गिरे, इससे इंसान का आत्म विश्वास लौट आएगा. उठाना और उसे उठाए रखना दो अलग-अलग बातें हैं. नीलिमा ने कहा कि उठाने का संबंध स्थिरता ( stability) से है और उठाए रखने का ताकत ( force) से.

इन दोनों के बीच निहव कृत्रिम पांव या हाथ बनाने पर रिसर्च कर रहे हैं. कई बार ऐसे पांव बनाते समय स्थिरता का ध्यान तो रखा जाता है मगर बल (force) का नहीं. तीनों कई साल से इस काम में लगे हैं. इनके प्रोफेसर या गाइड मधुसूदन वेंकटेशन भी भारतीय हैं. तीनों के साथ बात करते-करते आज काफी कुछ जाना. कोई भी इनके काम को जानना चाहे तो ज़रूरी नहीं कि आप दोस्त ही हों. बस भटकते हुए इनके लैब आ जाएं, बाहर बाकायदा पोस्टर लगा है. स्केच से समझाया गया है कि कमरे के अंदर क्या काम हो रहा है.

यह सब इसलिए भी बता रहा हूं कि भारत में भी कई यूनिवर्सिटी हैं जिनका क्षेत्रफल काफी बड़ा है. लोकेशन भी शानदार है. कस्बों तक में लोगों ने कालेज के लिए जमीन दान दी और अपने जीवन की सारी कमाई लगाई. इनमें से कइयों की उम्र भी सौ साल से अधिक की हो चुकी है मगर इनकी क्या हालत है इसे लेकर कोई चिन्ता ही नहीं है. हमने बहुत जल्दी धीरज खो दिया. दो दिन पहले फ्रांस से एक रिश्तेदार आईं थीं. बता रही थीं कि पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय से ही आर्गेनिक खेती का मॉडल निकला जिसे कई जगहों पर अपनाया गया. आज पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय की कई एकड़ जमीन पर अवैध कब्जे हो चुके हैं. उसकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं. आप मद्रास यूनिवर्सिटी, बीएचयू, जेएनयू या विश्वभारती घूम आएं, क्या नहीं है वहां. बस यूनिवर्सिटी की आत्मा नहीं है.

बीएचयू अब सिर्फ धार्मिक भावुकता पैदा करती है. जेएनयू को लेकर दोयम दर्जे की राजनीतिक भावुकता. बाकी कई सारी यूनिवर्सिटी कुछ भी पैदा नहीं करती हैं. उन पर कोई सरकार बुलडोजर भी चलवा दे तो छात्र उफ़्फ़ नहीं करेंगे. लाखों छात्र कालेज में एडमिशन लेते हैं मगर बगैर कालेज की ज़िंदगी जीकर बाहर आ जाते हैं. यह ब्लॉग येल की महिमा के लिए नहीं है, हमारी आपकी दुर्दशा पर बात करने और रास्ता निकालने पर विचार के लिए है. काश हम सबके जीवन में एक अच्छी यूनिवर्सिटी की यादें होतीं.


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