खूब लड़ा ऑस्ट्रेलिया का मीडिया, खूब झुका भारत का मीडिया

सूचनाओं का कम पहुंचना सिर्फ प्रेस की आज़ादी पर हमला नहीं है, वो आपकी आज़ादी पर हमला है. क्या आप अपनी आज़ादी गंवाने के लिए तैयार हैं?

आप जो अख़बार ख़रीदते हैं, या जो चैनल देखते हैं, क्या वह आज़ाद है? उसके आज़ाद होने का क्या मतलब है? सिर्फ छपना और बोलना आज़ादी नहीं होती. प्रेस की आज़ादी का मतलब है कि संपादक और रिपोर्टर ने किसी सूचना को हासिल करने के लिए मेहनत की हो, उन्हें छापने से पहले सब चेक किया हो और फिर बेखौफ होकर छापा और टीवी पर दिखाया हो. इस आज़ादी को ख़तरा सिर्फ डर से नहीं होता है. जब सरकारें सूचना के तमाम सोर्स पर पहरा बढ़ा देती हैं तब आपके पास सूचनाएं कम पहुंचने लगती हैं. सूचनाओं का कम पहुंचना सिर्फ प्रेस की आज़ादी पर हमला नहीं है, वो आपकी आज़ादी पर हमला है. क्या आप अपनी आज़ादी गंवाने के लिए तैयार हैं? अगर हां तो आपने यह फ़ैसला कब कर लिया और किस आधार पर किया? मुझे मालूम है कि आप गोदी मीडिया की करतूत से परेशान हैं. आपको पता है कि भारत का प्रेस इस वक्त किनके चरणों में लेटा हुआ है. लेकिन आपने एक और चीज़ नोटिस की होगी. भारत का प्रेस सरेंडर करने लगा है, वह लड़ना भूल गया है. चुनिंदा मामलों में निंदा प्रस्ताव पास करने के अलावा पत्रकारिता के मानकों की फिर से स्थापना की कोशिश और पत्रकारिता की आज़ादी हासिल करने का जज़्बा दिखाई नहीं देता. डरे हुओं के लिए एक अच्छी ख़बर आई है, आस्ट्रेलिया से. वैसे वहां जो हुआ, उसके जैसा कुछ-कुछ भारत में भी हो चुका है लेकिन इस तरह से नहीं जैसा 21 अक्टूबर की सुबह ऑस्ट्रेलिया के लोगों ने देखा जब अख़बार खोला.

The Daily Telegraph, Financial Review, The Australian, The Sydney Morning Herald and the Canberra Times, the herald sun, the age, the courier mail, the advertiser, nt news, the chronicle, ऑस्ट्रेलिया के ज़्यादातर अख़बारों का पहला पन्ना 21 अक्टूबर की सुबह ऐसे ही आया. पहले पन्ने पर कोई ख़बर नहीं छपी थी. पन्ना ख़ाली तो नहीं था लेकिन इस तरह से छापा जैसे लिखी हुई ख़बरों को स्याही से पोत दिया गया हो. पहले पन्ने पर ही कोने में एक लाल रंग का स्टैंप लगा है जिस पर सीक्रेट लिखा है और किनारे पर लिखा है नॉट फॉर रिलीज़. यह अखबारों की तरफ से जनता को एक साथ एक तरह से बताने का फैसला था, उसे सूचनाओं से दूर रखने के लिए सरकार कैसे-कैसे कानून बना रही है. 2007 में The Right To Know coalition बना था लेकिन उसके इतिहास में पहली बार व्यापक स्तर पर ऐसा अभियान चला है. इस अभियान का कहना है कि कि ऑस्ट्रेलिया की संसद ऐसे-ऐसे कानून पास कर रही है जिसके कारण लोग नहीं जान पा रहे हैं कि सरकार क्या-क्या खेल खेलती है. अखबारों का कहना है कि हर अख़बार का एक दूसरे से काम्पटीशन है लेकिन उन्होंने यह कदम ऑस्ट्रेलिया के नागरिकों के जानने के अधिकार की रक्षा के लिए उठाया है. किसी भी देश में मीडिया का स्वतंत्र होना बहुत ज़रूरी है. वर्ना सत्ता में बैठे लोग सनक जाते हैं. विदेशी कंपनियों के साथ लैंड डील हो रही है, जनता की जासूसी हो रही है, लेकिन जब पत्रकार इसकी खबरें लिखता है तो छापे पड़ते हैं, गिरफ्तारियां होती हैं और मुकदमों में घसीटकर उसके करियर को बर्बाद कर दिया जाता है. ऑस्ट्रेलिया के अख़बारों का कहना है कि अगर फ्री प्रेस नहीं होता तो बैंक में हुए घोटाले और बुज़ुर्गों के केयर सेक्टर में धांधली की ख़बरें कभी बाहर ही नहीं आ पातीं. इसका असर भी हुआ. ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस ने कहा कि वह पत्रकारों के छापे के मामले में सतर्कता बरतेगी. इस साल ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस ने न्यूज़ कोर के राजनीतिक पत्रकार अन्निका स्मेथर्स्ट के यहां छापा मारा था. एबीसी के सिडनी मुख्यालय में भी छापे पड़े थे. अटार्नी जनरल क्रिश्चियन पोर्टर आदेश देते हैं कि बग़ैर उनकी अनुमति के किसी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी. पोर्टर ने एबीसी चैनल के कार्यक्रम में कहा कि वे गारंटी तो नहीं दे सकते कि प्रधानमंत्री पर मुकदमा चलेगा या नहीं लेकिन वे किसी पत्रकार पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना चाहेंगे. यह जनहित में ज़रूरी है.

दुनिया के कई देशों में बड़ी ख़बरों को देश की सुरक्षा से जोड़कर सरकारें अपना खेल खेल रही हैं. दरअसल देश की सुरक्षा के नाम पर वे अपनी सुरक्षा करती हैं कि जनता को पता न चल जाए. हालत यह हो गई है कि एक पत्रकार ने ऑस्ट्रेलिया के संसद सदस्यों के डाइनिंग रूम में खाने-पीने की चीज़ों के रेट की जानकारी मांगी तो नहीं दी गई. महीनों बाद जब दी गई तो इस शर्त के साथ कि नहीं छापेंगे. पत्रकार विलियम समर्स किताब लिख रहे थे कि सांसदों को क्या-क्या सुविधाएं मिलती हैं. ऑस्ट्रेलिया में अपना अखबार चला रहे नीरज नंदा ने हिन्दी में हमारे लिए यह जानकारी भेजी है. नीरज जी मेलबॉर्न में South Asia times के संपादक हैं.

जब सुबह-सुबह ये अख़बार छपकर लोगों तक पहुंचे तो ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में थे. वहां जब सवालों से घिर गए तो कहा कि प्रधानमंत्री से लेकर पत्रकार तक कोई भी कानून से ऊपर नहीं है. लेकिन इससे इस अभियान पर कोई फर्क नहीं पड़ा. अखबारों के साथ ऑस्ट्रेलिया के सभी बड़े न्यूज़ चैनल भी शामिल थे. न्यूज़ कॉर्प ऑस्ट्रेलिया ने भी वीडियो बनाकर बताया है कि वह भी इस अभियान के साथ है.

बस इतना सवाल ज़हन में रखिए. सरकार बता रही है या बताने के नाम पर छिपा रही है? देखते चलिए कि सरकार ने लोगों को अंधेरे में रखने के लिए क्या-क्या कानून बनाए हैं. जो लोग सरकार चुनते हैं, उनके सोचने की क्षमता पर अंकुश क्यों लगाया जा रहा है. यह सारे सवाल अखबारों ने अपने संपादकीय में उठाए हैं और जनता को जागरूक करने का प्रयास किया है. ऑस्ट्रेलियन बिजनेस रिव्यू ने अपने पाठकों से कहा है कि हमारी सरकार नहीं चाहती कि आप जानें कि वह क्या कर रही है. पत्रकारों पर बैन लगाया जा रहा है. मैं एक बात साफ कर दूं. सुनकर आपको लगता होगा कि भारत की बात बता रहा हूं लेकिन दरअसल ये ऑस्ट्रेलिया की बात है. भारत की बात से मिलती जुलती ज़रूर है लेकिन भारत में अखबारों या चैनलों में ऑस्ट्रेलिया की तरह एकजुट होकर कोई कदम नहीं उठाया है. ऑस्ट्रेलियन बिजनेस रिव्यू ने लिखा है कि you have a right to be -suspicious and concerned. यानी शंका करना और चिन्तित होना आपका अधिकार है. सीक्रेट के नाम पर वर्षों से सरकारें, अदालतें और संस्थाएं अपनी दीवार ऊंची करती जा रही हैं. कानून बना रही हैं ताकि मीडिया को मुकदमे में फंसाकर आपको बताने से रोक सकें. 2001 से 75 ऐसे कानून बने हैं जिनके कारण पता चलना मुश्किल हो गया है कि देश में चल क्या रहा है.

ऑस्ट्रेलिया की यह घटना बहुत बड़ी है. अभी तक यह लड़ाई पत्रकारों की होती थी. मालिक बचकर निकल जाते हैं. कार्पोरेट किनारा कर लेते हैं. लेकिन ऑस्ट्रेलिया में लड़ने का जिम्मा अख़बार और चैनल ने लिया है. आखिर पत्रकारिता का सवाल अकेले पत्रकार का नहीं होता, संस्थान और उसके पाठकों का भी होता है. क्या यह मज़ाक नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया में एक व्हिसिल ब्लोअर रिचर्ड बॉयल पर 66 केस दर्ज कर दिए गए. अगर सब में सज़ा हो गई तो उसे 161 साल की सज़ा होगी. छह आजीवन कारावास के बराबर. इस व्हिसिल ब्लोअर का कसूर क्या था, यही कि सरकारी अफसर होते हुए उसने मीडिया को बता दिया कि कैसे आयकर विभाग छोटे बिजनेस के खाते से बिना उनकी जानकारी और अनुमति के पैसे निकाल लेता है. उस पत्रकार के घर पर भी छापे पड़े जिसने रिचर्ड बॉयल के साथ मिलकर जांच की और खबर छापी.

अखबारों ने एक वेबसाइट भी बनाई है yourrighttoknow.com.au. पत्रकारिता के छात्रों को इस वेबसाइट पर ज़रूर जाना चाहिए. देखना चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया में ऐसा क्या-क्या हो रहा है जिसके कारण सभी अखबारों और चैनलों को एक साथ आना पड़ा है. भारत में उल्टा हो जाता है. चैनलों और अखबारों के मालिक चुप हो जाते हैं और एक इशारे में एंकर या रिपोर्टर को निकाल देते हैं. इशारा किसका होता है बार-बार बताने की ज़रूरत नहीं है. अखबारों ने लिखा है कि नेताओं के दावों के बहकावे में मत आइए कि मीडिया अपने हित में यह अभियान चला रहा है, यह सच नहीं है. यह अभियान आप पाठकों और दर्शकों के जानने के अधिकार के बारे में है. यह अभियान बता रहा है कि जब पत्रकार सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगते हैं तो उसमें देरी की जाती है. वहां के कानून का नाम है फ्रीडम ऑफ इंफोर्मेशन एक्ट. सूचना देने में इतनी देरी की जाती है कि चुनाव निकल जाता है, जनता को पता नहीं चलता और फिर उस सूचना का महत्व नहीं रह जाता. जब सूचनाएं दी भी जाती हैं तो आधी-अधूरी होती हैं जिनका मतलब निकालना मुश्किल हो जाता है. इस खबर को हिन्दी में पढ़ने से कितना भारतीय- भारतीय लगता है. मेलबार्न में एक आरएमआईटी यूनिवर्सिटी है. वहां के इंटरनेशनल बिजनेस पढ़ाने वाले एसोसिएट प्रोफेसर शरीफ-अस-साबिर का बयान पढ़ि‍ए.

'There are some area, some classified ares, where they should not have access, they should not have let people know, national security, defense, international relations, law enforcement, public saftey, these are the areas the govt is saying should not be accessed by anyone including journalist, interstingly when we talk about freedome of information act, then the cabinet documents are also exempts from freedom of informations, so there is what is happening, many of those documents are leaked out, there are some whistle blowers and these are affecting the media and the same time affceting the govt but the people in australia in genral more than 87 of the people think that they have the right to know what is happening, and now only 37 percent think that it is happening. there is a problem here, there is a real issue here, that needs to be sorted out, when we talk abt public ofcourse, in terms of freedom of info act, if we look at that particular act closely, these exceptions are not allowing people or the public to know a lot of things they want to know/ but at the same time we do realise the govt may be concerned because it could be something that the govt would want to control. and that control is creating a issue now, media is suggesting that govt is dealing with those issues, in a heavy handed manner, so regardles of govt and media positions, i think public in gen in austraila they are becoming concerned what is happenig and why is this hide and seek game happening in austraila, whether people are safe, or they are facing some trouble or they are expecting something ominous in the future, peole are worried because they dont know what is the real agenda of the govt and what sort of information restrictions they want to actually put on the media, and why they are scared and afred of letting the people know.'

न्यूज़ कॉर्प ऑस्ट्रेलिया के कार्यकारी अध्यक्ष माइकल मिलर ने भी अपने संपादकीय में इस अभियान के बारे में लिखा है कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने ठीक कहा है कि ऑस्ट्रेलिया दुनिया का सबसे रहस्यमयी लोकतंत्र है. मतलब क्या हो रहा है किसी को पता नहीं है. इस लेख में ऑस्ट्रेलिया के एक मशहूर संवैधानिक मामलों के वकील जार्य विलियम्स का बयान भी है कि ऑस्ट्रेलिया में आतंक विरोधी और राष्ट्रीय सुरक्षा के कानून बनाकर सूचनाओं को रोका जा रहा है. इन कानूनों के बाद ऑस्ट्रेलिया एक पुलिस स्टेट बन गया है. नाम का लोकतंत्र रह गया है.

कई लोगों ने कहा कि यह पहली घटना नहीं है. 16 अगस्त 2018 को अमरीका के 300 से अधिक अखबारों ने ऐसा ही एक बड़ा अभियान चलाया था जिसकी कल्पना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में असंभव है, जो भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. अभियान का नाम था कि पत्रकार शत्रु नहीं हैं.

उस दिन 300 से अधिक अखबारों ने संपादकीय छापा था कि कैसे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित हो रही है. इस अभियान का नेतृत्व 146 साल पुराना अखबार The Boston Globe ने किया था. बॉस्टन ग्लोब ने अपनी वेबसाइट पर उन सभी संपादकीयों को छापा था. ऐसा बहुत कम होता है जब एक अखबार 300 से अधिक दूसरे अखबारों के संपादकीय को अपने यहां जगह दे. सारे संपादकीय अलग-अलग थे. उनमें अलग-अलग जानकारी थी. यह बताने के लिए कि कैसे राष्ट्रपति ट्रंप मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला कर रहे हैं. वे अक्सर मीडिया को फेक न्यूज़ कहते रहते हैं. पत्रकारों को जनता का शत्रु कहते रहते हैं जबकि पत्रकार शत्रु नहीं हैं. 300 से अधिक अखबारों ने एक साथ संपादकीय छापकर बता दिया था कि अमेरिका के प्रेस में कितना दम है. न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने संपादकीय में 1964 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला दिया था जिसमें कहा गया था कि सार्वजनिक बहस खुलेमन से होनी चाहिए. कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए भले ही वह किसी को अच्छा न लगे. न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है. कुछ गलत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है. न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक इंसान हैं. उनसे गलतियां हो सकती हैं. उन्हें ठीक करना हमारे पेशे का अहम हिस्सा है. लेकिन जो सत्य पसंद नहीं है उसे फेक न्यूज़ कहना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. The boston globe ने इस अभियान में सिर्फ बड़े अखबारों को ही नहीं बल्कि कस्बों के छोटे अखबारों को भी शामिल किया था. ताकि पाठकों को अमेरिका के आज़ाद प्रेस के महत्व की याद दिला सकें.

अमेरिका की लड़ाई दूसरी है. वहां खबरें तो आ रही हैं, छप रही हैं मगर राष्ट्रपति उन्हें फेक न्यूज़ कह देते हैं. ऑस्ट्रेलिया की लड़ाई कुछ और है. वहां कानून बनाकर मीडिया में खबरों को आने से रोका गया है. भारत की कहानी तीसरी है. सब अपने आप हां जी, हां जी मुद्रा में होता जा रहा है. मैंने ब्लैक स्क्रीन की बात अभी नहीं की है, वो फिर कभी.

आंध्र प्रदेश में तीन महीने के भीतर चार पत्रकारों पर गंभीर हमले हुए हैं. सबसे बड़े तेलुगु अखबार आंध्र ज्योति के पत्रकार की हत्या हो गई है. पूर्वी गोदावरी ज़िले की तुनी ग्रामीण थाना क्षेत्र के सत्यनारायण की धारदार हथियारों से हत्या कर दी. सत्यनाराण 20 साल से आंध्र ज्योति अखबार के लिए काम कर रहे थे. एफआईआर में वाईएसआर कांग्रेस के विधायक रामालिंगेस्वरा राव का भी नाम है. सत्यनारायण के भाई का कहना है कि रामालिंगेस्वरा ने कई बार धमकी दी थी. सत्यनारायण ने पुलिस को सूचना दी थी कि उसका जीवन खतरे में है. विधायक रामालिंगेस्वरा वाईएसआर कांग्रेस के मुख्य सचेतक भी हैं. उनका कहना है कि उनका नाम ज़बरन लिया गया है. उनका हत्यारों से संबंध नहीं है. जबकि जगन कैबिनेट ने पत्रकारों के खिलाफ कानूनी कदम उठाने के एक प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कि उनकी सरकार पत्रकारों को परेशान नहीं करना चाहती है लेकिन इस साल अगस्त महीने से उनकी पार्टी के विधायकों के नाम पत्रकारों पर हुए चार चार हमले में आ चुके हैं. इंडियन एक्सप्रेस की श्रीनिवास जनयाला ने रिपोर्ट की है. सीपीआई के मुखपत्र विशाल आंधरा के पत्रकार पर गंभीर हमला हुआ था. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. इस हमले में भी वाईएसआर के नेता का हाथ बताया जा रहा है. सितंबर में नागार्जुन रेड्डी पर चाकू से हमला हुआ. ओंगले ज़िले के थे. हत्यारे का संबंध पूर्व विधायक ए कृष्ण मोहन से बताया जाता है.

25 सितंबर को Editors Guild of India ने एक बयान जारी किया था. कहा था कि आंध के दो न्यूज़ चैनलों TV5 and ABN पर अघोषित बैन लगाना चिन्ता का विषय है. वाईएसआर सरकार से अपील की गई थी कि ऐसा करना प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है.

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प्रेस की स्वतंत्रता का सवाल आपकी स्वतंत्रता का सवाल है. भारतीय मीडिया पर नज़र रखिए. आजकल एक सर्वे आ रहा है कि किस चैनल पर पाकिस्तान और हिन्दू मुस्लिम डिबेट हुआ है और रोज़गार और अर्थव्यवस्था की खराब हालत पर एक भी डिबेट नहीं. हमें खुशी है कि हमने प्राइम टाइम में इस बार एग्ज़िट पोल पर विश्लेषण नहीं दिखाया. एक बार के लिए ही सही, ऐसी ख़ुशी बड़ी ख़ुशी होती है. ऐसी चीज़ों से चैनलों पर जनता की स्टोरी के लिए जगह नहीं बचती है. एमसीडी के हज़ारों शिक्षक अपनी नियुक्ति के लिए कई दिन से धरना दे रहे थे. आज दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की सक्रियता से उन्हें राहत मिल गई, ज्वाइनिंग हो गई मगर इन शिक्षकों ने देख लिया कि वे संख्या में हज़ारों थे, बावजूद इसके उनकी आवाज़ किसी ने नहीं उठाई क्योंकि मीडिया हिन्दू-मुस्लिम में लगा हुआ था.