दिल्ली सचिवालय (फाइल फोटो)
एक शेर कभी पढ़ा था...न शायर का नाम याद है न पूरी लाइनें।
तुमसे दोस्ती करने का हिसाब ना आया,
मेरे किसी भी सवाल का जवाब ना आया।
दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री की प्रेस कॉन्फ्रेंस में अचानक ये शेर मेरे जेहन में आया। 'आपका सवाल होगा...लेकिन मैं आपके सवाल पर कुढ़ता हूं। जाओ अपना सवाल अपने पास रखो।' नेक्स्ट...की तेज आवाज...पर्दा गिर जाता है।
कुछ इसी तरह दिल्ली सरकार के तमाम सलाहकारों में से एक जोड़ी घूरती आंखें मुझ पर टिक जाती हैं। उनकी आंखों ने मानो हुक्म सुनाया कि 'तुम्हारी ऐसी जुर्रत कि तुम उस सरकार की आंखों में आंखें डालकर वो सवाल पूछ रहे हो, जिसे एक दिन पहले एक सियासी पार्टी पूछ चुकी थी और हमने उसका जवाब तक देना मुनासिब नहीं समझा। ज्यादा तिकड़म बतियाया तो तुझे फलां पार्टी दलाल से लेकर फलां भक्त तक की संज्ञा से नवाज देंगे...फिर तू सफाई देता भागता रहेगा। ये सोचकर मैं सहम सा गया।'
दिल्ली सरकार में कुछ लोग हैं, जो सुबह उठकर अपने से सवाल पूछने के बजाए दूसरों को सवालों में उलझाना जानते हैं। लेकिन फेसबुक, ट्विटर, टीवी, अखबार और न जाने किन-किन तरीकों से हर मसले पर हर संस्था से, हर पार्टी से, हर पत्रकार से सवाल पूछने वाले लोग आजकल सवाल पर बड़बड़ाते हैं। घबराते हैं, आंखे तरेरते हैं, व्यंगात्मक लहजे से हंसते हैं। मानो वो कह रहे हों कि हम ही सवाल पूछ सकते हैं, क्योंकि हम स्वघोषित देश के ठेकेदार हैं। हम ही लोगों को दलाल कह सकते हैं क्योंकि हम जन्मजात ईमानदार हैं। हम ही लोगों को भक्त कह सकते हैं, क्योंकि हम एक ऐसी पार्टी से जुड़े हैं, जिसका सिद्धांत बंद कमरों में बैठकर चंद लोग लिखते हैं।
मुबारकबाद देना चाहता हूं ऐसे सलाहकार साहब को। आप इसी तरह हर सवाल से उबलते रहें...मंत्री को सवाल टालने की ट्रेनिंग देते रहें, भुनभुनाते रहें, सवालों का जरिया बनने वालों का लिस्ट से नाम काटते रहें। उनको बदनाम तमगों से नवाजते रहें और खुद को महान से महानतम बनाते रहें। दिली मुबारकबाद ऐसे सलाहकारों को।
रवीश रंजन शुक्ला NDTV इंडिया में कार्यरत हैं
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