आरडी बर्मन...संगीत, जो तरंगित है रसिकों के मन में

आरडी बर्मन...संगीत, जो तरंगित है रसिकों के मन में

आज यदि यदि राहुलदेव बर्मन जिंदा होते तो 77 साल के हो गए होते। उन्हें दुनिया से विदा हुए 22 साल से अधिक वक्त बीत गया लेकिन उनका संगीत फिल्म संगीत के रसिकों की रगों में आज भी तरंगित हो रहा है। उनकी धुनें विस्मृत नहीं की जा सकतीं। सवाल यह है कि किसी संगीत सर्जक को बरसों बरस याद क्यों किया जाता रहता है? ऐसा सभी संगीतकारों के साथ तो नहीं हुआ।

किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन भारतीय फिल्म संगीत की दुनिया में पिछले चार दशकों में तो कई संगीतकार आए...कुछ का संगीत काफी लोकप्रिय भी हुआ। बाद में यह संगीतकार नेपथ्य में चले गए और उनके साथ ही चंद वर्षों में ही उनका संगीत भी भुला दिया गया। लेकिन मदनमोहन, शंकर-जयकिशन, नौशाद, खय्याम, रोशन, कल्याणजी-आनंदजी, ओपी नैय्यर और आरडी बर्मन जैसे कुछ ही संगीतकार हैं जिनका संगीत मन में आज भी मधुर रस घोलता है। इन संगीतकारों ने अपने सुनने वालों के मन को जाना-पहचाना और उसी के मुताबिक संगीत रचनाएं बनाईं। यही कारण है कि उनका संगीत भुलाया नहीं गया।

आरडी बर्मन यानि कि पंचम का संगीत फिल्म संगीत के क्षेत्र में मील का पत्थर है। वह ऐसा संगीत है जिसने भारतीय फिल्म संगीत को नई दिशा दी। साठ के दशक से पहले के संगीत और इसके बाद के संगीत को सुनें तो इसमें साफ अंतर महसूस होगा। साठ के दशक से पहले जहां शास्त्रीय और लोक संगीत ही फिल्म संगीत का आधार था वहीं उस दौर में फिल्मों की संगीत रचना में एक खास परंपरा का पालन हो रहा था। सीमित वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। जहां संगीतकारों की अपनी बंधी हुई शैली थी वहीं गायकों का भी अपनी खास गायन शैलियां थीं। संगीत में प्रयोग काफी सीमित थे।  ऐसे समय में सन 1966 में फिल्म 'तीसरी मंजिल' का संगीत आया। यह वह संगीत था जिसने फिल्म संगीत की नई इबारत गढ़ दी। वास्तव में 'तीसरी मंजिल' का संगीत ही हिंदी सिनेमा की संगीत पंरपरा को दो हिस्सों में विभक्त कर देता है। इस फिल्म का संगीत देने से पहले आरडी बर्मन लंदन गए थे और उन्होंने वहां रॉक संगीत का प्रशिक्षण लिया था। उन्होंने लंदन से लौटकर वह संगीत रचा कि जिसने धूम मचा दी। 'तीसरी मंजिल' की धुनें आज भी सुनी-गुनगुनाई जाती हैं...चाहे वह 'ओ मेरे सोना रे सोना रे...' हो या फिर 'तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां...' , यह गीत कभी पुराने नहीं हुए।

आरडी बर्मन की बड़ी खासियत थी उनके संगीत की विविधता यदि वह रॉक संगीत से प्रेरित होते थे तो लोक संगीत और शास्त्रीयता भी उनकी धुनों में देखने को मिल जाती थी। बंगाल के बाउल संगीत की परंपरा उन्हें उनके पिता सचिनदेव बर्मन से मिली थी। अली अकबर खान से उन्होंने सरोद की शिक्षा ली थी। इस तरह शास्त्रीय संगीत से लेकर पश्चिमी संगीत तक उनका संगीत सृजन विस्तारित हुआ। फिल्म 'छोटे नवाब' का गीत 'घर आजा घिर आए बदरा सांवरिया...', फिल्म 'अमर प्रेम' का गीत 'रैना बीती जाए श्याम न आए...' और फिल्म 'महबूबा' का गीत 'मेरे नैना सावन भादौं...', सहित राहुल देव की कई ऐसी धुनें हैं जो शास्त्रीय रागों में निबद्ध हैं।

राहुल देव बर्मन सिनेमा संगीत के प्रेमियों की रुचि की अच्छी पहचान रखते थे। उन्होंने सत्तर और अस्सी के दशकों में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत कई फिल्मों के लिए संगीत दिया। इन फिल्मों के संगीत में खासी विविधता देखी जाती है। तब फिल्मों के हिट होने में काफी अहम भूमिका संगीत की भी होती थी। एक और खास बात यह भी थी कि विभिन्न पाश्चात्य वाद्यों के जमकर इस्तेमाल के बावजूद पंचम के संगीत में गायक की अहमियत कभी कम नहीं हुई। प्री-ल्यूड और इंटर-ल्यूड में वाद्य संगीत का अच्छा भराव होता था लेकिन गायक हमेशा अग्रणी होता था। आज के संगीत में गायक का महत्व कम होता जा रहा है।      

आरडी बर्मन का संगीत उनके अंतिम कुछ वर्षों में खामोश रहा। 4 जनवरी 1994 को पंचम ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन के बाद में उनका आखिरी संगीत आया फिल्म '1942 ए लव स्टोरी' में। यह संगीत उनके पूर्व में रचे गए संगीत से अलग 'टेस्ट' देने वाला था। सुनकर लगा कि उन्होंने जैसे सारे जीवन की मिठास इस संगीत में उड़ेल दी थी। इस संगीत ने लोकप्रियता के नए रिकार्ड बनाए लेकिन तब पंचम अपने चाहने वालों से बहुत दूर जा चुके थे। 'रिमझिम-रिमझिम...' और 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...' जैसे गीत क्या कभी भुलाए जा सकेंगे?

(सूर्यकांत पाठक एनडीटीवी में समाचार संपादक हैं)


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