डॉ विजय अग्रवाल : आमिर खान के बयान के पीछे छिपा सच

डॉ विजय अग्रवाल : आमिर खान के बयान के पीछे छिपा सच

अभिनेता आमिर खान की फाइल तस्वीर

''असुरक्षा की भावना, बल्कि मैं इसे 'हताशापूर्ण' (despodency) कहना चाहूंगा... किरण ने पहली बार यह कहा कि क्या हमें भारत से बाहर चले जाना चाहिए... यह उनका एक बहुत खतरनाक / डरावना वक्तव्य था...''

रामनाथ गोयनका पुरस्कार समारोह में कहे गए आमिर खान के इन शब्दों ने फिलहाल पूरे देश में खलबली मचा रही है। वैसे यदि देखें तो आमिर ने अपने घर में पत्नी से होने वाली उस आम बातचीत की बात कही थी, जो हम सभी के घरों में कभी न कभी होती ही रहती है। उन्होंने अपनी पत्नी के भय को एक प्रतिनिधि के रूप में पेश किया, और देखते ही देखते गर्म कड़ाही में उफान आ गया। इस उफान का शब्द बना 'असहिष्णुता', जो पहले से ही काफी 'हॉट' था... जबकि आमिर का शब्द था 'डेस्पोन्डेन्सी'। उन्होंने इस शब्द पर जोर दिया था, और बातचीत के दौरान किसी दूसरे शब्द को बदलकर इसे ठीक भी किया था। खैर...

(पढ़ें - न मेरा, न ही मेरी पत्नी का देश छोड़ने का कोई इरादा : पढ़ें आमिर खान का पूरा बयान)

इस बारे में दो बातें बेहद गौरतलब हैं। पहली, हम वह नहीं देखते, नहीं सुनते, जो है, या जो कहा जा रहा है, बल्कि हम सभी वही देखते हैं, जो हम देखना चाहते हैं, और हम वही सुनते हैं, जो हम सुनना चाहते हैं। जैसी होती है हमारी दृष्टि, वैसे ही दिखाई पड़ने लगते हैं दृश्य। कम्युनिकेशन की दुनिया की यह सबसे जटिल समस्या है, और इंसान दूसरों से कम्युनिकेशन के जरिये ही जुड़ता है, इसलिए दूसरों को समझाने तथा दूसरों को समझने का काम हम सभी की ज़िन्दगियों का सबसे कठिन और चुनौतियों से भरा काम बन गया है।

वस्तुतः इसके लिए चाहिए तटस्थ दृष्टि, यानी एक ऐसी स्थिति, जब हम नदी के तट पर स्थित होकर नदी में बहने वाले प्रवाह को देख रहे हैं, उसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप किए बिना। यानी, हमें खुद को पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से मुक्त करके चीजों और घटनाओं को देखना होगा। ऐसा करते ही अर्थ बदल जाएंगे और बड़ी बात यह होगी कि यही बदले हुए अर्थ सही अर्थ होंगे।

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दूसरी बात सम्पूर्णता की है। हमारा जीवन द्वीप की तरह नहीं होता, जो विशाल महासागर में अलग-थलग खड़ा रहता है। यानी, समुद्र में होते हुए भी वह उसका नहीं होता। जीवन का मैकेनिज्म समुद्र की तरह काम करता है। इन समुद्रों के नाम तो अलग-अलग होते हैं, लेकिन इसके बावजूद ये एक-दूसरे से कुछ इस तरह जुड़े हुए होते हैं कि इन्हें हम एक भी कह सकते हैं।

चाहे क्षेत्र कम्युनिकेशन का हो या फिर जीवन का कोई भी अन्य क्षेत्र, यहां महासागर की प्रणाली काम करती है, द्वीप (आइलैण्ड) की नहीं। जैसे ही हम इनमें से किसी को भी उसकी सम्पूर्णता से काटकर समझने की कोशिश करते हैं, सत्य हमारे हाथ से छूट जाता है। इसके छूट जाने के बाद हमारी उन कोशिशों का कोई मतलब नहीं रह जाता, जो हम इस तथाकथित सत्य, जिसे हम अर्द्धसत्य या पूर्णअसत्य कह सकते हैं, के लिए कर रहे थे।

(पढ़ें - सिस्टम को सुधारिए मिस्‍टर आमिर खान, उससे भागिए मत : ऋषि कपूर)

तभी तो अक्सर लोग यह सफाई देते हुए सुने जाते हैं कि 'मेरी बात को पूरी तरह समझा नहीं गया' या फिर यह कि 'मेरे कहने का मतलब यह नहीं था'... लेकिन यदि किसी बात की शुरुआत ही गड़बड़ी से हो गई, तो फिर उसे ठीक कर पाना संभव नहीं रह जाता, चाहे उसके लिए कितनी भी कोशिश क्यों न कर ली जाएं।

दरअसल, ये दोनों ऊपर देखने पर भले ही सामाजिक या राजनीतिक समस्याएं दिखाई दे रही हों, लेकिन मूलतः ये मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं। इसके प्रमाण हम अपने रोजमर्रा के जीवन में पा सकते हैं। बस, आपको करना यह होगा कि आप थोड़े सतर्क हो जाएं। जैसे ही यह सत्य, जीवन का यह गहरा सत्य आपकी पकड़ में आएगा, वैसे ही ज़िन्दगी बदलनी शुरू हो जाएगी। आमिर खान के कहे का सत्य समझ में आ जाएगा, और उस कहे को जैसे समझा गया, उसका सत्य भी। यह बहुत मज़ेदार भी होगा। (पढ़ें - आमिर खान के बयान पर सोशल मीडिया दो खेमों में बंटा)

- डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...

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