रिहाना और राकेश टिकैत - दोहरे 'R' का किसान आंदोलन पर असर...

लगभग पिछले दो महीनों से ज्यादा वक्त से चल रहे आंदोलन ने जितना समर्थन और सहानुभूति बटोरी थी, वो 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के बाद थोड़ी कम हुई है. लेकिन हिंसा के बाद, इस आंदोलन ने साबित कर दिया कि यह क्यों कई मायनों में 'sui generis' यानी 'अपने आप में अनूठा' है.

रिहाना और राकेश टिकैत - दोहरे 'R' का किसान आंदोलन पर असर...

दिल्ली बॉर्डर पर नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों के प्रदर्शनस्थलों पर कल देर रात इंटरनेशनल पॉप स्टार रिहाना का सुपर हिट गाना 'Rude Boy' बज रहा था. दुनिया की बड़ी सेलेब्स में शुमार रिहाना का एक नया फैन क्लब बन गया है, जिसमें भारत में आंदोलन कर रहे किसान शामिल हैं, क्योंकि रिहाना ने उनके समर्थन में ट्वीट किया है. 

अब मुझे कैसे पता कि रिहाना किसानों के कैंप की नई फेवरेट बन गई हैं? क्योंकि मैं उस वक्त एक किसान नेता के साथ फोन पर बात कर रही थी और पीछे से रिहाना का यह गाना कानफोड़ू ध्वनि के साथ बज रहा था. रिहाना अकेली नहीं हैं. पिछले कुछ घंटों में टीनएज क्लाइमेट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी और लॉयर मीना हैरिस ने किसानों के समर्थन में ट्वीट किया है. विदेश मंत्रालय ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रतिक्रिया दी है कि 'स्वार्थ की भावना से निहित कुछ संगठन भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.'

यह बयान दिखाता है कि विदेश से आया यह समर्थन मोदी सरकार के लिए कितनी बड़ी शर्मिंदगी का विषय है. पिछले कुछ घंटों में प्रदर्शनस्थलों के आस-पास के इलाकों में इंटरनेट शटडाउन कर दिया गया है. सड़कों में नुकीली कीलें लगा दी गई हैं, कॉन्क्रीट के बैरियर खड़े कर दिए गए हैं, और यह सबकुछ इसलिए ताकि किसानों के आंदोलन में अड़चन डाली जा सके.

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सोमवार को ट्विटर ने किसानों से जुड़े ट्वीट कर रहे 250 से ज्यादा अकाउंट्स को ब्लॉक कर दिया था क्योंकि ये ट्वीट, प्रशासन के मुताबिक आपत्तिजनक थे. हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पार्टी के कई नेता और मंत्री सोशल मीडिया के कुशल इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं. 

लगभग पिछले दो महीनों से ज्यादा वक्त से चल रहे आंदोलन ने जितना समर्थन और सहानुभूति बटोरी थी, वो 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के बाद थोड़ी कम हुई है. दिल्ली की तीन सीमाओं पर नवंबर से ही हजारों किसान इस मांग के साथ जुटे हैं कि सरकार तीन नए कृषि कानूनों को रद्द करें क्योंकि उन्हें इसके तहत बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की दया का मोहताज़ हो जाने का डर है. खासकर, उन्हें लगता है कि इन कानूनों के तहत उन्हें सरकार की ओर से उनकी फसल पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म हो जाएगी. सरकार और उसके समर्थकों का कहना है कि इन कानूनों के तहत किसानों को नए, बड़े अवसर मिलेंगे. केंद्र और किसान प्रतिनिधियों के बीच 11 चरणों की बातचीत हो चुकी है, लेकिन नतीजा सिफर रहा है. 

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लेकिन गणतंत्र दिवस की हिंसा के बाद, इस आंदोलन ने साबित कर दिया कि यह क्यों कई मायनों में 'sui generis' यानी 'अपने आप में अनूठा' है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले किसान नेता राकेश टिकैत, हिंसा की घटना के बाद रो पड़े थे, जिसका वीडियो सामने आने के बाद हजारों की संख्या में और भी किसान इन धरनास्थलों की ओर कूच कर पड़े थे. और आज टिकैत के नेतृत्व में हरियाणा के जींद में महा-पंचायत हुई है. ऐसा पहली बार है जब उत्तर प्रदेश के जाट और हरियाणा के जाट एक साथ आए है. सीमाओं के पार की इस एकजुटता के चलते यहां बड़ी भीड़ उमड़ी है.

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जाट किसानों का समुदाय अकसर सख्त, उग्र और रुढ़िवादी विचार रखने वाला माना जाता रहा है. अगर आबादी पर नजर डालें तो यूपी की छह फीसदी, राजस्थान की नौ फीसदी, हरियाणा की 25 फीसदी और पंजाब की 35 फीसदी आबादी इस समुदाय की है. इनकी हलचल बीजेपी के लिए अच्छी बात नहीं है, खासकर यूपी के लिए क्योंकि वहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. जाटों को उनकी शक्तिशाली खाप पंचायतों के लिए भी जाना जाता है जो अकसर कंगारू कोर्ट की तरह काम करती हैं. ये खाप पंचायतें पुराने मूल्यों- जैसे कि अंतरजातीय विवाह करने पर सख्त सजा देने जैसे आदेश सुनाती हैं. चूंकि इन खापों का इतना बोलबाला है और ये सामाजिक बहिष्कार का रास्ता अपनाते हैं, ऐसे में जाट अकसर अपनी राजनीतिक हैसियत से ज्यादा फायदा उठा ले जाते हैं.

मैंने कल टिकैत से बात की और उनसे उन अटकलों पर सवाल पूछा, जिनमें कहा जा रहा था कि वो आंदोलन में बीजेपी के प्रॉक्सी के तौर पर काम कर रहे थे. ऐसा भी कहा जा रहा था कि उन्होंने मोदी सरकार के एक मंत्री से वादा किया था कि वो 26 जनवरी को आंदोलन खत्म कर देंगे. टिकैत ने कहा कि उन्होंने ऐसा कोई वादा नहीं किया था. उन्होंने कहा कि किसानों के खिलाफ 'गुंडों' का इस्तेमाल किया गया, जबकि पुलिस खड़ी देखती रही. इससे वो और प्रदर्शनकारी गुस्से में हैं. टिकैत उस घटना की बात कर रहे थे, जब अभी पिछले हफ्ते कुछ लोग, जो खुद को स्थानीय बता रहे थे, सिंघु बॉर्डर पर किसानों के धरनास्थल पर घुस आए थे. इन लोगों का कहना था कि वो किसानों को वहां से हटाना चाहते थे, ताकि सामान्य जनजीवन शुरू हो सके. टिकैत ने कहा कि 'हमारी ड्यूटी साफ है- सरकार से इन कानूनों को वापस कराना. हम उसके पहले यहां से नहीं जाएंगे. लाल किले की सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी थी, क्यों नहीं की उन्होंने?'

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टिकैत के लिए ऐसा आंदोलन होने में काफी देरी हो चुकी है. वर्ष 2013 में वह जाटों का गढ़ माने जाने वाले मुज़फ़्फ़रनगर में महापंचायत को बढ़ाने वाला प्रमुख नाम थे, जहां बाद में जाटों और मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिक दंगे भी हुए, और आखिरकार 2014 के आम चुनाव में BJP को उत्तर प्रदेश की 80 में से 70 से ज़्यादा सीटों पर जीत भी मिली. मुज़फ्फरनगर महा-पंचायत को मोबिलाइज़ करने में टिकैत की भूमिका को देखते उन्हें ऐसे शख्स के रूप में देखा जाता रहा, जिसके बीजेपी के साथ करीबी लिंक हैं. हालांकि, वो दो संसदीय चुनावों में एक क्षेत्रीय पार्टी की ओर से चुनाव लड़कर हार चुके हैं.

जाटों का गुस्सा, यूपी और हरियाणा में अपने खराब प्रतिनिधित्व पर भी है. योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में दो जाट मंत्री हैं. वहीं हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, जोकि पंजाबी खत्री हैं, दो बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं. जाट नेता और उनके उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के साथ उनका गठबंधन कमजोर पड़ रहा है. पंजाब में बीजेपी को ये कृषि कानून लाने की कीमत अपने सबसे पुराने साथी शिरोमणि अकाली दल को खोकर चुकानी पड़ी है.

ऐसे में इस बात पर कोई हैरानी नहीं है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले बीजेपी के सांसद और विधायक पार्टी आलाकमान के सामने यह चिंता जाहिर कर रहे हैं और तुरंत समाधान न सही, लेकिन किसी तरह का रास्ता निकलते हुए देखना चाह रहे हैं. यह राजनीतिक रूप से संवेदशनशील और अत्यधिक आवश्यक मुद्दा है. RSS, लगातार गृहमंत्री अमित शाह को यह संदेश देता रहा है कि कृषि कानूनों पर जनमानस का विचार 'भ्रामक' है और इसे सुधारने की जरूरत है. 

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किसानों के प्रदर्शनस्थल पर लगी कंटीली तारें, बैरिकेड्स और पुलिसकर्मियों के हाथों में तलवार जैसी दिखने वाली स्टील की लाठियों ने मोदी सरकार के लिए बहुत ही भद्दी तस्वीर खींच दी है. यहां तक कि सुस्त विपक्ष भी इसके खिलाफ कूद पड़ा है. किसानों का कहना है कि सरकार की कानूनों को 18 महीनों तक होल्ड करके बातचीत जारी रखने की पेशकश को वो ठुकराते हैं. सरकार का कहना है कि वो कानूनों को वापस नहीं लेगी, हां वो इनमें बदलाव करने पर चर्चा को तैयार है. लेकिन किसानों के कैंपों से आ रही नई तस्वीरें जोर-जोर से बयां कर रही हैं कि आखिर ये दोनों पक्ष एक दूसरे से कितने दूर-दूर हैं.

स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...

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