नोट बंद हुआ है धान नहीं न ?

नोट बंद हुआ है धान नहीं न ?

धान की कटाई हो चुकी है और तैयारी का शोर जारी है. मक्का और आलू के लिए तेज़ी से खेत तैयार हो रहे हैं. हर जगह से ट्रैक्टर की फटफट की आवाज़ें आ रही है. इसी बीच गाँव के बिसेसर मंडल से मुलाक़ात होती है. उन्हें पाँच सौ और हज़ार रुपए के नोट बंद होने की कहानी सुनानी है. हालाँकि बिसेसर काका नोट बंदी को लेकर परेशान नहीं दिखे. बड़े नोट के बंद किए जाने के फ़ैसले के बहाने वे अपनी पोटली से पुराने दिनों की कहानी सुनाने के मूड में थे.

बातचीत की शुरुआत में ही उन्होंने मुझसे एक सवाल पूछा - "नोट बंद हुआ है, धान नहीं न जी ! " उनके इस सवाल से आप किसानी समाज के मन का जायज़ा ले सकते हैं. इन दिनों जब हर तरफ़ नोट के लिए अफ़रातफ़री मची है, उस परिस्थिति में नोट के बदले धान की बात करने वाले को आप बेवक़ूफ़ भी मान सकते हैं लेकिन यह भी सच है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था अभी भी समाज के हर तबके को साथ लेकर चलती है. पैसा आज भी गाँव में फ़सल के बाद ही चलकर आता है. प्लास्टिक मनी का मुहावरा अभी भी इस दुनिया से दूर है. आज भी हम पहले धान जैसी फ़सलों को जमा करते हैं. तत्काल पैसे की चाह की लत अभी तक किसानी समाज को नहीं लगी है.

बिहार के सुदूर देहाती इलाक़ा चनका के इस किसान की बातों में डूबकर मैं नोट बंदी की इस आँधी में राहत की साँस ले रहा हूं. बिसेसर काका ने कहा - "नोट नया आएगा न एक दिन. और पैसे के लिए इतना मारा-मारी काहे है बाबू. धान है तो चावल हो जाएगा. मूँग है तो दाल हो जाएगा. खेत में हरी सब्ज़ियाँ है तो खाने की थाली में सब्ज़ी भी परोस दी जाएगी. पैसा तो अब आया है पहले तो फ़सल की अदला-बदली से ही ज़िंदगी हम काट लेते थे. मन पर नियंत्रण करना भी सीखना होगा. हम तो पैसा बहाने लगे हैं. वैसे एक बात कहूं, हम सब पैसा देखते कहाँ हैं! उतना ही देखते हैं जितनी की ज़रूरत होती है."

बिसेसर काका की बातें सुनते हुए लगा कि हम शहरी दिमाग़ वाले लोग कितनी जल्दी परेशान हो जाते हैं. जबकि परेशान तो हम अपनी जीवनशैली की वजह से हो रहे हैं, जिस पर विचार करने के लिए अब हमारे पास वक़्त ही नहीं हैं क्योंकि हम सब अब बिजी हो चुके हैं. बैंकों के आगे लंबी क़तार में खड़े लोगों के चेहरों को देखने के बाद जब गाँव के बिसेसर काका का चेहरा देखता हूं तो सुकून मिलता है. लगता है कि ज़रूरतें जिनकी कम है उनकी मुसीबतें कितनी कम है.

बिसेसर काका की बातें सुनने के बाद लगा कि अब उनसे भी सवाल पूछा जाए. मैंने पूछा कि सब बात आपकी ठीक है लेकिन ट्रैक्टर से जो खेत की जुताई करवा रहे हैं, उसे नगद कैसे दिया जाएगा? मक्का के बीज का इंतज़ाम बिना नोट के कैसे होगा? इन दो सवालों पर भी गाँव वाला परेशान नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि किसान यदि दस दिन का उधार न ले सकता है तो इसका अर्थ हुआ कि वह सामाजिक है ही नहीं. बिसेसर काका ने कहा कि गांव- घर का समाज केवल पैसे से ही नहीं चलता है. उन्होंने बताया कि जब पैसा आएगा तब चुकता करेंगे. ट्रैक्टर वाला, खाद-बीज वाला और इस तरह के अन्य दुकानदारों को किसानों पर भरोसा होता है.

इन सब बातों के बीच गाँव का बाज़ार मतलब हटिया की तरफ़ जाना हुआ. हटिया में सब्ज़ी थी, मछलियाँ थीं और भी ज़रूरत के सामान बिक रहे थे. धान देकर कुछ लोग राशन के सामान उठा रहे थे. कार्ड सिस्टम से ख़रीदारी करने वाले लोगों को कभी इस तरह के हाट-बाज़ारों को देखना चाहिए. पैसा से अधिक आज भी यहाँ अन्न महत्वपूर्ण है. जीवन की आपाधापी के बीच इस तरह के अनुभव भी लेना ज़रूरी है. चाय की गुमटी पर कोई काले धन की बात कर रहा था.  बुज़ुर्गों की भीड़ थी. किसी ने कहा कि धन कहाँ काला होता है, काला तो लोगों का मन होता है. मैं चुपचाप उन लोगों की बातें सुनता रहा. एक ने कहा- "अभी धान का सीज़न है, चलिये उसकी बात करते हैं. पैसा तो आता-जाता रहेगा लेकिन मौसम गुज़र गया तो फिर अगले साल का इंतज़ार करना होगा."

इन लोगों की बातचीत जारी थी. नोट की अदला-बदली की बातें पीछे छूट चुकी थी. कबीराहा मठ से आवाज़ आ रही थी - "चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह जिसको कुछ नहीं चाहिए वो ही शहंशाह"

गिरीन्द्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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