संजय किशोर की कश्मीर डायरी-2 : हीर रांझा, झेलम और लाल चौक

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-2 : हीर रांझा, झेलम और लाल चौक

नई दिल्ली:

जल्द ही हम उसकी टवेरा गाड़ी में थे। झेलम नदी के दोनों किनारों पर बसा हुआ है श्रीनगर। वही नदी जिसके बारे में कवियों ने काफ़ी कुछ लिखा है। झेलम नदी की मंझधार में ही हीर और रांझा डूब कर अदृश्य हो गए थे। ये ऐतिहासिक नदी पाकिस्तान में खत्म होती है। मौसम बेहद सुहाना था। धूप जरूर थी, लेकिन हवा में ठंढक थी। आबिद हमें उसी दिन गुलमर्ग ले जाना चाहता था, मगर हम पहले हाउस बोट जाना चाहते थे। रास्ते में कोई चौक आया।

'क्या ये ही लाल चौक है?'
'नहीं, लाल चौक आपको कल ले जाऊंगा, गुलमर्ग जाते समय।'

लाल चौक के बारे में सुना सबने होगा, लेकिन इसका इतिहास को कम ही लोग जानते होंगे। रूसी क्रांति से प्रभावित होकर वामपंथियों ने यहां महाराज हरी सिंह के ख़िलाफ़ आंदोलन किया था।

यहां भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्लाह जैसी राजनैतिक शख़्सियतों की सभाएं हुआ करती थीं। लेकिन नब्बे के दशक से लाल चौक खूनी संघर्ष का प्रतीक बनता गया।

शहर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना की बख्तरबंद गाड़ियां तैनात थीं। जो गाड़ियां बख्तरबंद नहीं थीं, उनके शीशे पर भी पत्थरबाज़ी से बचने के लिए लोहे की जालियां लगी थी। कश्मीरी अलगाववादियों ने पत्थरबाज़ी को खतरनाक हथियार बना रखा है।

बहरहाल, हम जल्दी ही मशहूर डल झील पहुंच गए। डल को कश्मीर के मुकुट का गहना कहा जाता है। करीब साढ़े 18 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फ़ैली है ये झील।

मुगल गार्डन, शालीमार गार्डेन और निशांत बाग से भी ये झील नज़र आती है। ये सारे बाग मुगल सम्राट जहांगीर के काल में बने थे। जाड़ों में तापमान -11 डिग्री तक गिर जाता है और झील का पानी जम जाता है। डल के अलावा नगीन लेक भी है, जो थोड़ी शांत और साफ़ मानी जाती है। लेकिन हमने चहल-पहल के बीच ही रहना मुनासिब समझा। शायद सुरक्षा की वजह से भी।

डल झील में अनगिनत हाउस बोट थे। हाउस बोट तक पहुंचने के लिए छोटी नाव का सहारा लेना पड़ता है। आबिद ने आवाज़ लगाई, तो एक हाउस बोट वाला अपनी नाव लेकर हमें ले जाने के लिए आया।

हाउसबोट वेबसाइट पर देखी तस्वीर से ही मिलती-जुलती थी। उसके अंदर दो कमरे थे, एक किचन, ड्राइंग रूम और झील की तरफ़ एक बरामदा। थके होने के कारण दूसरा हाउसबोट देखने का मन नहीं हुआ।

इंटरनेट से आधी कीमत पर उसने हमें एक रूम दे दिया। हम वापस गाड़ी के पास लौटे और सामान मकबूल के हवाले कर दिया। आबिद हमें उसी दिन श्रीनगर घुमा देना चाहता था। चूंकि हमारे पास भी समय कम था, इसलिए हमने भी ऐतराज नहीं किया।

उसने हमें पहले खाना खा लेने की सलाह दी। दिन के दो बज चुके थे। सभी को भूख तो लगी ही हुई थी। सब लोग नॉनवेज खाना चाहते थे, लेकिन आबिद ने कहा कि नॉनवेज के लिए देर हो गई और अब तो यह शाम को ही मिलेगा। थोड़ी हैरानी हुई, लेकिन भूख के कारण सवाल की गुंजाइश नहीं थी। वो हमें मशहूर कृष्णा भोजनालय ले गया जो पास में ही था। इंटरनेट पर इसके बारे में पढ़ रखा था।

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शुद्ध वैष्णव भोजनालय में भीड़ बहुत ज़्यादा थी। वेटर ने हमें एक टेबल के पास ले जाकर खड़ा कर दिया। तीन युवा लड़के खाना खत्म करने वाले थे। हाव-भाव से तीनों स्थानीय लगे, वह मुस्लिम थे। हमें देखकर बड़ी विनम्रता से और भी जल्दी उठ गए। अच्छा लगा। कृष्णा भोजनालय का नियम अजीब है। ऑर्डर के लिए आपको काउंडर पर जाकर पहले पर्ची कटानी पड़ती है। अगर खाते वक्त आपको और कुछ चाहिए तब वेटर खुद पर्ची कटाते हैं। बहरहाल, खाना बेहद स्वादिष्ट था।