दशक में कुछ नहीं बदला, शाहीन बाग और अन्ना आंदोलन एक ही जैसे

सरकार बदली, मुद्दे बदले लेकिन लोकतंत्र और उसके तौर तरीके 2011 में भी वैसे थे, और 2020 में भी बिल्कुल वैसे ही हैं.

दशक में कुछ नहीं बदला, शाहीन बाग और अन्ना आंदोलन एक ही जैसे

शाहीन बाग़ का महज़ नाम ले लेने से लगभग युद्ध छिड़ उठता है. प्रशासन की आंखों की किरकिरी बनी हुई हैं शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी महिलाएं. और अब शाहीन बाग़ महज़ एक जगह का नाम नहीं रह गया, शाहीन बाग नागरिकता कानून के विरोध का एक प्रतीक बन चुका है. ऐसे ही आंदोलन अब देश भर के कई शहरों में शुरू हो गए हैं. यह किसी भी सरकार को तनाव में लाने के लिए काफी है. और इसको लेकर मोदी सरकार का नाखुश होना लाज़मी है.

लेकिन जितनी चीज़ें बदलती हैं, उतनी ही एक जैसी रहती हैं. मसलन, 2011 में UPA-2 के खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी गई थी. अब 2019-20 में मोदी सरकार भी अपने दूसरे चरण में है. तब जंतर मंतर पर अन्ना हज़ारे की अगुवाई में नारा था लोकपाल लाओ, भ्रष्टाचार मिटाओ. पृष्ठभूमि यह थी कि 2G घोटाला, कोयला घोटाला, एयरसेल मैक्सिस घोटाला देश को चूस रहा था. लोग भ्रष्टाचार से परेशान हो चुके थे.

अगर UPA के खिलाफ करप्शन का आरोप था तो इस सरकार के खिलाफ कम्युनल होने का है. शाहीन बाग से नारा लग रहा है कि नागरिकता कानून वापस लिया जाए और NRC कभी न आए. देश-विदेश में भी सरकार के कानून लाने की मंशा पर संदेह उठाया गया है.

उस समय UPA की सरकार को लगता था कि करप्शन से जुड़ी बातचीत टीवी के चीखते-चिल्लाते स्टूडियो तक ही सीमित थी. आम जनमानस का इसमें कोई रोल नहीं था. चीखती-चिल्लाती टीवी डिबेट अभी भी चल रही है जिसमें सरकार अपने आप को आराम देना चाहती है. इस सरकार का भी यही दावा है कि ये कुछ चुनिंदा लोग एजेंडा के तहत कर रहे हैं और आम जनमानस को CAA और NRC से कोई आपत्ति नहीं है.

उस समय की UPA सरकार ने अन्ना हज़ारे पर खुद भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था. तब कहा यह जाने लगा कि सरकार मूवमेंट को बदनाम करने की कोशिश कर रही थी. शाहीन बाग़ के सन्दर्भ में मोदी सरकार पर भी ठीक ऐसा ही आरोप लगता है कि वे आंदोलनकारियों को एजेंडा से ग्रसित बोलकर बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.

अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय भी पुलिस के दुरुपयोग के भयंकर आरोप सरकार पर लगे थे. बाबा रामदेव के समर्थकों पर तो सोते में आंसू गैस के गोले भी छोड़े गए. इसके बाद अदालतों ने देर रात कोई कार्रवाई न करने के निर्देश दिए.इस बार भी पुलिस की बर्बरता पर कई सवाल खड़े किए गए हैं. कई बार ये अफवाह फैली है कि शाहीन बाग धरने को पुलिस बल और तंत्र लाकर ख़त्म कर देगी.

और तो और, ट्रैफिक और आम जनमानस को होने वाली तकलीफ की बातें भी हर अन्ना जुलूस में होती थीं. शाहीन बाग़ के सन्दर्भ में आज भी बिलकुल वैसी ही बात हो रही है. अन्ना आंदोलन पूरे देश भर में होने लगा. शाहीन बाग़ भी अब एक जगह नहीं, एक आंदोलन का नारा बन गया है और कई शहरों में महिलाएं धरने पर बैठ गई हैं.

उस समय UPA सरकार भी बेतुकी धारा लगाकर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर चोट देती रही. कार्टून बनाने वाले जेल भेजे जाने लगे. आज भी आलम और आरोप कुछ ऐसे ही हैं. शांति से धरना करने वाले जेल भेजे जा रहे हैं. सदफ जफ़र और एसआर दारापुरी इसका एक उदाहरण है.

सरकार बदली, मुद्दे बदले लेकिन लोकतंत्र और उसके तौर तरीके 2011 में भी वैसे थे, और 2020 में भी बिल्कुल वैसे ही हैं.

(संकेत उपाध्याय एनडीटीवी में सीनियर एडिटर पॉलिटिक्स हैं.)

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