आर्यभट्ट और आर्कमिडीज़ की कथा से बना है साइंस कीर्तन

नई दिल्ली : जनवरी का वो आख़िरी दिन था। पुणे के प्रभात रोड पर वैज्ञानिक कीर्तन का बोर्ड देखते ही उत्साह से उछल गया। जानने की ऐसी बेचैनी हुई कि सीधा सड़क पार कर वामन कोल्हटकर के घर में घुस गया। दिन के ग्यारह बज रहे थे, मगर दोपहर की सी शांति पसरी हुई थी। तभी वामन कोल्हटकर साहब आशंका भरी निगाहों से दरवाज़े पर आए। मेरा परिचय पत्र देखने और युवा मराठी साथियों के कहने के बाद अंदर आने का इशारा कर दिया। जो देखा वो पुणे के लिए सामान्य हो सकता था, मगर मेरे लिए नया था। कहीं संगीत के वाद्य यंत्र रखे हुए थे तो एक कमरे में विज्ञान के यंत्र। जिन्हें हम स्कूल के दिनों में लैब कक्षा के दौरान देखा करते थे।

वासुदेव कोल्हटकर ने बताया कि वे साइंस के टीचर रहे हैं और बच्चों के लिए यहां लैब बनाया है, ताकि वे स्कूल के बाद यहां आकर अभ्यास कर सकें। लेकिन मेरा दिमाग बाहर टंगे उस बोर्ड पर था, जिस पर लिखा था कीर्तन शाला। इस बोर्ड पर कई प्रकार के कीर्तनों का ज़िक्र था। वैज्ञानिक कीर्तन, राष्ट्रीय कीर्तन, ब्रह्म निरूपक कीर्तन, भागवत सप्ताह कथन, प्रवचन पुराण कथन और विज्ञान कथा। घर के बाहर दो और बोर्ड लगे थे। एक पर लिखा था गणित मंदिर और दूसरे पर विज्ञान मंदिर। कीर्तन और विज्ञान का एक ही घर देखकर चौंकना तो बनता था, वर्ना पत्रकार किस लिए बने हैं। कोल्हटकर साहब अपनी कथा सुनाने लगते हैं और मैं आपके लिए लिखने लगता हूं।

'मेरे पिताजी वासुदेव कोल्हटकर कीर्तनकार थे। उन्हीं की परंपरा को मैं आगे बढ़ा रहा हूं। महाराष्ट्र में कीर्तन की परंपरा बहुत पुरानी है और उत्तर भारत या शेष भारत से बिल्कुल अलग। शेष भारत के कीर्तन में सिर्फ कविता शैली में होती है, लेकिन मराठी में कविता और गद्य दोनों ही शैलियों में कीर्तन होता है। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम ने कीर्तन की एक विराट परंपरा की बुनियाद रखी, जिसमें भक्ति भाव होता था। इन्हें वरकारी कीर्तन कहा जाता है। एक दूसरा कीर्तन और है। नारदीय कीर्तन। नारद ने कीर्तन की एक अलग ही परंपरा की बुनियाद रखी। जिसमें ज्ञान बुद्धि और चारों सूत्रों की जानकारी होती थी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। नारदीय कीर्तन में विज्ञान भी होता था।' कोल्हटकर साहब ने बाद में यह सब जानकारी मुझे ईमेल के ज़रिये भी दी ताकि मैं और विस्तार से समझ सकूं। कीर्तन के दो हिस्से होते हैं। पूर्व रंग और उत्तर रंग।

कोल्हटकर साहब कहते हैं कि यह हमारा दायित्व है कि हम पुरानी परंपरा को आज की ज़रूरतों से जोड़ दें। इसलिए मैं कीर्तन के पूर्व रंग में पहले एटम, टाइम, गुरुत्वाकर्षण के बारे में भी बताता हूं। उसके बाद दूसरे हिस्से में ऋषि गौतम, ऋषि कनड, मैत्रेयी, के साथ आइंसटाइन, गैलिलियो, केपलर, माइकल फैराडे और न्यूटन के बारे में भी गाता हूं। कोल्हटकर साहब ने हमें मराठी गद्य शैली में न्यूटन की कथा गाककर सुनाई। भाषा तो कम समझा मगर भाव से समझा कि वे धर्म और विज्ञान को जोड़ते हुए बता रहे हैं कि न्यूटन बहुत धार्मिक था। इतना ही नहीं वे न्यूटन की जीवन लीला और खोज की तस्वीर भी खींचने लगते हैं। बताते हैं कि उसके जीवन में जो घटना घटी उसका संबंध धर्म से कैसे था। इन पात्रों का ज़िक्र इसलिए करते हैं ताकि पूर्व रंग में समय, गुरुत्वाकर्षण के समर्थन में कथाओं के ज़रिए लोगों को जागरुक किया जा सके।

कोल्हटकर साहब, भक्ति, ज्ञान विज्ञान, हास्य-व्यंग्य के भाव से विज्ञान कीर्तन को काफी रोचक बना देते हैं। मुझे बताया कि ज्यादातर कीर्तन वे मंदिर में करते हैं। मंदिर में ही आने वाले भक्तों को विज्ञान कथा सुनाते हैं। 1980 के दशक से वे इस प्रकार के कीर्तन का प्रदर्शन कर रहे हैं। बेहद शांत स्वभाव और कम चीज़ों का उपभोग करने वाले कोल्हटकर साहब की जीवनशैली भी किसी संत के जैसी ही लगी। कोल्हटकर साहब ने कहा कि कीर्तन के साथ अनगिनत विषयों को जोड़ा जा सकता है। मगर ज्यादातर सिर्फ भक्ति तक ही सिमट कर रह गए हैं। मैंने वैज्ञानिक कीर्तन की राह चुनी है। मैं भाष्कराचार्य और आर्यभट्ट की कथा भी सुनाता हूं और आर्कमिडीज़ की भी। अभी विज्ञान कीर्तन की जानकारी से मन भर ही रहा था कि उनकी मेज़ पर एक पुरानी किताब दिखी। जिसके पहले पन्ने पर लिखा था अबराहम कथा। अब मेरी जिज्ञासा दसवीं मंज़िल पर जा चुकी थी।

कोल्हटकर साहब ने बताया कि यह यहूदी कीर्तन है और इस पर स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की एना शुल्त्ज़ (Anna Schultz) रिसर्च कर रही हैं। एना की एक किताब भी आई है, जिसका नाम है Singing A Hindu Nation (2004) एना भी अपने शोध के दौरान अबराहम कथा से ऐसे ही अचानक टकरा गईं। मैंने उनका वीडियो लेक्चर सुना है, जिसे उन्होंने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में दिया है। इस लेक्चर को सुनना चाहिए। मराठी परंपरा में संगीत के ज़रिए यहूदी पहचान की संघर्ष यात्रा अद्भुत है। मैंने उसी लेक्चर से अबराहम कथा का सार लिया है जो आपके लिए संक्षेप में लिख रहा हूं।

महाराष्ट्र में हिन्दू कीर्तन की परंपरा बहुत पुरानी है। बंबई के मराठी यहूदी जिन्हें बेन इज़रायली कहा जाता है यहां के हिन्दू समाज के बीच अपनी पहचान का रास्ता खोज रहे थे। उसे जताने का ज़रिया ढूंढ रहे थे। एक दिन मंझगांवकर और उनके तीन साथी हिन्दू कीर्तनकार राव साहब शंकर पांडुरंग पंडित की कीर्तन सभा से लौट रहे थे। राव साहब का असर इतना ज़्यादा था कि इन तीनों ने यहूदी कीर्तन की परंपरा शुरू करने की ठान ली और 1880 में कीर्तन उत्तेजक मंडल की स्थापना की। वहां से यह परंपरा मराठी यहूदी लोगों के साथ इज़रायल तक की यात्रा कर चुकी है।

एना शुल्तज़ ने बताया कि हिन्दू मंदिरों में गाये जाने वाले कीर्तन से यहूदी कीर्तन की धारा निकलने की गाथा पहचान की यात्राओं के कई संकटों से निकलती है। तब भारतीय यहूदी ब्रिटिश ईसाइयों से और राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे थे। शुरू में दूसरे धर्म की शैली को अपनाने को लेकर काफी सतर्कता बरती गई, मगर हिन्दू कीर्तन का भाव पूरी तरह आ ही गया। इस बात के बावजूद कि मिशनरियों ने जब मराठी में लिखे अबराहम कथा के गीतों का अनुवाद किया तो भारतीय वाद्य यंत्रों के नाम की जगह पाश्चात्य वाद्य यंत्रों के नाम लिख दिए। यहूदी औरतों ने इन कीर्तनों के ज़रिये हिन्दू पड़ोसियों और औरतों के सामने यह जताने का प्रयास किया कि हम भी कम भारतीय नहीं हैं। ईसाई मिशनरियों ने मराठी यहूदी को अपनी तरफ प्रभावित करने के लिए बाईबल का मराठी में अनुवाद भी किया मगर बात तब भी नहीं बनी। यहूदी कीर्तन उनकी स्थानीय जीवन और पहचान का हिस्सा बनता ही चला गया।

1880 में जब पहली बार यहूदी कीर्तन गाया गया तो इसका यहूदी समुदाय ने काफी स्वागत किया। उनकी चिन्ता बस इतनी थी कि हमारी अपनी संस्कृति न खत्म हो जाए। इसके लिए मंझगांवकर ने सात नियम बनाए। जैसे हिन्दू कीर्तनकारों की तरह भगवान विट्ठल की वंदना नहीं करनी है, चरण स्पर्श नहीं करना है और दान वगैरह नहीं देना। इन नियमों के बाद भी यहूदी कीर्तन गायकी शैली में कीर्तन शैली के खांचे के भीतर ही बंधा रहा। एक तरह से इंडो-इज़रायली संगीत की धारा का जन्म होने लगा। 1880 से लेकर 1990 के बीच 35 बेने बेन इज़रायली कीर्तन गीतों का प्रकाशन हुआ। अबराहम चरित्र का गायन बिल्कुल भारतीय संगीत शैली में होता है। आज भी होता है। यह सब जानकारी मैंने एना शुल्त्ज के वीडियो लेक्चर से लिखी है। इन जानकारियों को कई लोग कई तरीके से इस्तमाल कर सकते हैं पर सत्य यही है कि अतीत में धाराएं धर्म और पहचान की सीमा से टकराते हुए भी आर-पार होती रहीं और एक विराट संस्कृति का जन्म होता रहा। अच्छा यही होगा कि वर्तमान अतीत के इन किस्सों को संस्कृति के अनगिनत रचनाकारों के रूप में पहचानें।


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