देश में रोज़गार के दावों पर गंभीर सवाल

भविष्य निधि संगठन में खाते खुलने के आधार पर क्या मुकम्मल रूप से दावा किया जा सकता है कि कितनी नौकरियां पैदा हुईं.

देश में रोज़गार के दावों पर गंभीर सवाल

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

नौकरी की बात करने जा रहा हूं लेकिन अगर अमरीका या आस्ट्रेलिया में किसी ने मेरा शो देख लिया और भारत की बदनामी हो गई तो फिर इसमें मेरा कोई कसूर नहीं होगा. गलती इंटरनेट की है, मेरी नहीं. अब इस डर से बेरोज़गार नौजवानों की बात न करें यह तो हमसे होगा नहीं. बेरोज़गारी दुनिया भर में है और इस पर बात करना किसी देश की बदनामी नहीं है बल्कि समझदारी है.

आप जानते हैं कि सितंबर 2017 से ईपीएफओ एक आंकड़ा जारी करता है जिससे पता चलता है कि फलां महीने कितने लोगों का भविष्य निधि संगठन का खाता खुला. इसके आधार पर सरकार कहती है कि उस महीने इतने नए लोगों को रोज़गार मिला जो उसकी कामयाबी है. समय समय पर (EPFO) अपने आंकड़ों की समीक्षा भी करता है जिसमें कई बार संख्या घट भी जाती है तब फिर कोई इसके बारे में नहीं बताता है. जैसे आपको नई समीक्षा के बारे में किसी मंत्री ने ट्वीट कर नहीं बताया होगा. किसी संस्थान में 20 या उससे अधिक कर्मचारी होते हैं तो वहां के कर्मचारियों का भविष्य निधि संगठन में खाता खुलता है.

सरकार ईपीएफओ यानी कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के आंकड़ों को इस तरह पेश करती है कि रोज़गार बढ़ा है. 20 जुलाई को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने रोज़गार के कई आंकड़े दिए जिसमें ईपीएफओ का भी आंकड़ा था. अब प्रधानमंत्री ने लोकसभा में तो बोल दिया कि संगठित क्षेत्र में 45 लाख नौकरियां बनी हैं, लेकिन जब ईपीएफओ ने समीक्षा की तो इसमें 6 लाख नौकरियां कम हो गईं. क्या आपको किसी मंत्री ने ट्वीट कर बताया कि प्रधानमंत्री ने 45 लाख बता दिया था यानी ज़्यादा बता दिया था मगर अब वह कम होकर 36 लाख हो गई है. क्या आपको सही संख्या बताई जा रही है. ईपीएफओ ने नौ महीनों के आंकड़ों की समीक्षा की है.

सितंबर 2017 से मई 2018 के बीच खोले गए भविष्य निधि संगठन के खातों की समीक्षा की गई है. हर महीने की अलग अलग समीक्षा की गई है. किसी महीने 5 प्रतिशत की कमी हुई है तो किसी महीने 27 फीसदी की. कुलमिलाकर नौ महीने की संख्या में 12.4 प्रतिशत की कमी आ गई है. प्रधानमंत्री ने 45 लाख बताया था, जो अब 39 लाख हो गई है.

भविष्य निधि संगठन में खाते खुलने के आधार पर क्या मुकम्मल रूप से दावा किया जा सकता है कि कितनी नौकरियां पैदा हुईं.

अब एक सवाल है. हर राज्य में कर्मचारी और लोकसेवा चयन आयोग है. सरकार इन आयोगों से ये डेटा पब्लिक में क्यों नहीं देती है कि कितनी वेकैंसी आई है, कितनों के फार्म भरे गए मगर परीक्षा नहीं हुई, कितनों को रोज़गार दिया गया है. प्रधानमंत्री ने ही लोकसभा में क्यों नहीं बताया कि उनकी सरकार के अलग अलग विभागों में कितनी वैकेंसियां हैं. 5 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने लोकसभा और राज्यसभा में दिए गए बयानों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की थी.

सिर्फ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में दस लाख नौकरियां हैं. लाखों नौजवान बीटेट और बीएड करके घर बैठे हैं. पुलिस महकमे में 5 लाख 40 हज़ार वैकेंसी है. अर्धसैनिक बलों में 61,509 वैकेंसी है. सेना में 62,084 वैकेंसी है. पोस्टल विभाग में 54,263 वैकेंसी है. एम्स में 21,407 वैकेंसी है. स्वास्थ्य केंद्रों में 1.50 लाख वैकेंसी है. अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में 12,020 वैकेंसी है.

इस तरह से टाइम्स ऑफ इंडिया ने मंत्रियों के बयान को ही जोड़कर देखा कि 24 लाख से अधिक नौकरियां हैं. क्या प्रधानमंत्री या उनके विभागों के मंत्रियों को नहीं बताना चाहिए कि 24 लाख नौकरियां कब दी जाएंगी. अब आप इंटरनेट में एक बयान सर्च कीजिए. 21 मार्च 2017 को मानव संसाधन मंत्री प्रकाश झावड़ेकर का लोकसभा में बयान है कि एक साल के भीतर दिल्ली विश्वविद्यालय में 9000 अडहाक शिक्षकों को परमानेंट किया जाएगा. हमारी सरकार की नीति पार्ट टाइम पर रखने की नीति नहीं है. क्या प्रकाश झावड़ेकर बता सकते हैं कि एक साल में 9000 शिक्षकों को परमानेंट कर पाए हैं या नहीं. क्या प्रकाश झावड़ेकर ने आपको ट्विट किया है कि देश भर में कितने प्रोफेसर, सहायक प्रोफेसर के पद खाली हैं ताकि आप नौकरी का सपना देख सकें. 28 जुलाई के हिन्दू अखबार में विकास पाठक की रिपोर्ट छपी थी.

पिछले तीन साल में कॉलेजों में अस्थायी से लेकर प्रोफेसरों की कुल संख्या में भारी कमी आई है. आपको जानकर हैरानी होगी की तीन साल में 2 लाख 34 हज़ार लेक्चरर और प्रोफेसर कम हो गए. 2015-16 में 10.09 लाख शिक्षक थे जो 2017-18 में 8 लाख 88 हज़ार हो गए. ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के आधार पर हिन्दू ने यह रिपोर्ट छापी थी.

हमने अपनी नौकरी सीरीज़ के दौरान एक ट्रेंड देखा है. नीतियां इस तरह से बनती हैं कि विवादित हो जाती हैं और कोई न कोई कोर्ट चला जाता है. यह भी एक कारण है मगर यही एक कारण नहीं है. नौजवानों की ज़िंदगी का सवाल है क्यों नहीं सरकारें नौकरियों के मामलों की सुनवाई के लिए अलग से कोर्ट बनाती हैं. यह भी कई मामलों में हमने देखा है कि कोर्ट ने आदेश दे दिया है कि इनकी बहाली की जाए मगर उसके बाद भी बहाली नहीं होती है.

भारतीय रेल के पास दो लाख 34 हज़ार से अधिक की वैकेंसी है. जो बहाली हो रही है वो डेढ़ लाख के आस-पास की है. बिजनेस स्टैंडर्ड में महेश व्यास रोज़गार पर नियमित कालम लिखते हैं. महेश व्यास सेंटर फार मानिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनोमी के निदेशक हैं. इनके एक कॉलम की जानकारी से चौंक गया. वैसे बेरोज़गार नौजवानों को यह सब मालूम है.

2014-15 और 2015-16 के बीच तीन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में रोज़गार कितना कम हुआ है. स्टील बनाने वाली कंपनी सेल ने 30,413 लोगों को कम काम दिया है. BSNL ने 12,765 और इंडियन ऑयल कारपोरेशन ने 11,924 लोगों को अपने खाते से घटाया है. सिर्फ इन तीन सरकारी कंपनियों में 55, 102 हज़ार नौकरियां कम हुई हैं.

आपने महेश व्यास को सुना. क्या आपको पता चला कि 55 हज़ार से अधिक की नौकरियां सिर्फ तीन सरकारी कंपनी में कम हुई है. क्या आपको यह सब जानकारी हिन्दी अखबारों में मिलती है, हिन्दी के चैनलों में मिलती है. महेश व्यास ने कंपनियों की सालाना रिपोर्ट से ये आंकड़ा बताया है तो क्या सरकार में किसी को नहीं दिखता कि नौकरियां कहां कहां कम हो रही हैं. अभी हमने आपको बैंकिंग सेक्टर में कम होती जा रही नौकरियों को जोड़ कर नहीं बताया है.

अब आप इस ट्वीट को देखिए. सिंथिया निक्सन की है. ये न्यूयार्क से डेमोक्रेट पाटी की तरफ से गवर्नर पद के लिए चुनाव लड़ रही हैं. इन्होंने ट्वीट किया है कि उनकी मुलाकात जोस नाम के इस अडहाक प्रोफेसर से हुई जो अपना घर चलाने के लिए टैक्स भी चलाते हैं. अगर वे जीतीं तो सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क और स्टेट यूनिवर्सिटी आफ न्यूयार्क में निवेश बढ़ाएंगी और देखेंगी कि किसी प्रोफेसर को कम वेतन न मिले. हमने प्राइम टाइम में ही कई बार बताया है कि वहां के सरकारी कालेजों के प्रोफेसर गरीबी रेखा से नीचे का जीवन जीते हैं. अमरीका से आज तक किसी ने फोन कर नहीं कहा कि आपने सहरसा, सीकर, सिवनी और सिरसा में अमरीका की बदनामी कर दी है कि यहां के सरकारी कालेजों के लेक्टरर गरीबी रेखा से नीचे का जीवन जीते हैं.

हमने आपको अपनी यूनिवर्सिटी सीरीज़ में दिखाया था कि कैसे भारत के सरकारी कॉलेजों में लेक्चर ठेके पर 15-20 हज़ार की सैलरी पर कई साल से पढ़ा रहे हैं. रोज़गार पर बात साफ साफ होनी चाहिए. दाएं बाएं नहीं. जर्मनी में राहुल गांधी के एक बयान को लेकर हंगामा हो रहा है. राहुल गांधी ने कह दिया कि नौकरियां न होने के कारण युवाओं में गुस्सा बढ़ रहा है. अब यह कहा जा रहा है कि इससे देश की बदनामी हो रही है.

बेरोज़गारों का कोई देश नहीं होता, न धर्म होता है. सिर्फ पेट होता है और ख़ाली जेब होती है. यूपी के एक लाख से अधिक टीईटी डिग्रीधारी परेशान हैं. वे चाहते हैं कि हम उनकी समस्या को दिखाएं. ज़रूर दिखाएंगे. हमारे पास संसाधन बहुत नहीं है इसलिए समय लग जाता है.


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