प्रधानमंत्री जी, खेलों-खिलाड़ि‍यों के लिए माहौल तैयार करने की जरूरत है

प्रधानमंत्री जी, खेलों-खिलाड़ि‍यों के लिए माहौल तैयार करने की जरूरत है

प्रतीकात्मक फोटो

19 मई की तारीख थी। विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे। नजरें थीं कि किस पार्टी की कितनी सीटें आती हैं। खेल से जुड़े लोगों की नजरें भी थीं। खासतौर पर असम के नतीजों में दिलचस्पी थी। पता था कि अगर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार बनती है, तो कोई नया खेल मंत्री आएगा। सर्बानंद सोनोवाल को असम का मुख्यमंत्री पहले ही प्रोजेक्ट किया जा चुका था। इसके तीन दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेडियो पर मन की बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि ओलिंपिक उनके लिए कितनी अहमियत रखते हैं। उन्होंने कुल मिलाकर कहा कि हमें एथलीटों को प्रोत्साहित करने के लिए सही माहौल देने की जरूरत है।

सही माहौल पर चर्चा करने से पहले हमें अस्ताना की ओर देख लेना चाहिए। जहां 19 मई को महिलाओं की विश्व चैंपियनशिप बॉक्सिंग शुरू हो रही थी। वो खेल, जिसमें हमें सबसे ज्यादा उम्मीदें रही हैं। क्या मैरी कॉम क्वालिफाई कर पाएंगी? सरिता देवी और पूजा का क्या होगा? हमें चंद दिनों के भीतर जवाब मिल गया। कोई महिला मुक्केबाज इस बार रियो में भारतीय उम्मीदों को लिए नहीं जाएगी। कोई क्वालिफाई नहीं कर पाई। पुरुषों में भी अभी तक, जब ओलिंपिक शुरू होने में ढाई महीने से भी कम का वक्त रह गया है, सिर्फ एक बॉक्सर ने क्वालिफाई किया है। वो हैं शिव थापा। संभव है कि विकास कृष्ण और मनदीप जांगड़ा जैसे बॉक्सर क्वालिफाई कर लें, लेकिन क्या इनसे पदक की उम्मीद है? कॉमनवेल्थ खेलों के चैंपियन अखिल कुमार के हिसाब से नहीं। वे कहते हैं- मुझे रियो में पदक की उम्मीद बहुत कम है।

दमदार से बेदम होती बॉक्सिंग
अब वापस उस माहौल की चर्चा करते हैं, जिसके बारे में प्रधानमंत्री कह रहे थे। बॉक्सिंग आज से 10-12 साल पहले भारत का सबसे तेजी से उभरता खेल था। भिवानी को मिनी क्यूबा कहा जाने लगा था। अखिल को घर-घर में लोग जानने लगे थे। 2008 में विजेंदर ओलिंपिक पदक ले आए। उम्मीदें और बढ़ीं। 2012 में महिला बॉक्सिंग को शामिल किया गया। मैरी कॉम पदक ले आईं। उम्मीदें और बढ़ीं। अब, चार साल बाद खेल जगत के सबसे पॉजिटिव कहे जाने वाले लोगों में से एक अखिल कह रहे हैं कि उम्मीद नहीं है! ऐसा क्या हो गया? क्या इसी को सही माहौल न दिया जाना नहीं कहते हैं?

फेडरेशन को लेकर गड़बड़ ही गड़बड़
बॉक्सिंग के मामले में सीधा-सीधा जवाब यही आता है कि फेडरेशन को लेकर गड़बड़ ही गड़बड़ हैं। इसकी वजह से आइबा यानी वर्ल्ड फेडरेशन ने उसे लगातार सस्पेंड रखा है। इसका नतीजा यह होता है कि खिलाड़ियों को उस तरह की प्रैक्टिस नहीं मिल पाती, जो मिलनी चाहिए। वाकई बहुत बड़ी वजह है। लेकिन क्या वजह सिर्फ यही है? अगर यही है तो क्या केंद्र सरकार इसमें कुछ कर सकती थी?

नीचे जा रहा है महिलाओं का प्रदर्शन
टॉप्स स्कीम के तहत मुक्केबाजों को सरकार से मदद मिल रही है। यही वजह है कि उनका ट्रेनिंग प्रोग्राम ठीक चल रहा है। लेकिन खेल का स्तर गिर रहा है। मैरी कॉम सहित कोई महिला क्वालिफाई नहीं कर पाई है। पांच बार की वर्ल्ड चैंपियन हमारे पास है। उसके बावजूद उसके बाद की कतार में कोई नहीं है, तो फिक्र होती है। जैसे ही महिला बॉक्सिंग ओलिंपिक में आई है, उसके बाद से महिलाओं का प्रदर्शन नीचे ही गया है। पुरुषों में भी, फेडरेशन के न होने से इतना तो समझ आता है कि विश्व स्तर पर क्या हो रहा है। यही वजह रही कि विजेंदर ने प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरफ रुख किया, क्योंकि वे जानते थे कि रियो में उनका कुछ नहीं होने वाला। लेकिन विजेंदर का मामला तो ओलिंपिक यानी टॉप स्तर का है। उससे नीचे की पायदान पर क्या है? क्या निचले स्तर से वैसे ही बॉक्सर आ रहे हैं, जैसे कुछ साल पहले आते थे। अखिल को लगता है कि अब वैसा नहीं है। बॉक्सिंग में निराशा है।

क्या खेल मंत्री बेचारा होता है?
यहीं पर सही माहौल की बात आती है। मुझे याद है, खेल मंत्री के साथ एक अनौपचारिक मीटिंग थी। उसमें मंत्री महोदय ने अपनी बेचारगी जताई। कहा, हालत यह है कि मैं किसी ब्लॉक स्तर के अधिकारी से भी काम नहीं करा सकता। मेरे पास इतने अधिकार भी नहीं हैं। फिर आखिर खेल मंत्री की जरूरत क्या है। केंद्र में सरकार को दो साल हो गए हैं। हर जगह रिपोर्ट कार्ड दिए गए। इसमें खेल मंत्री के नंबर काफी कम थे। पिछले सालों में मणिशंकर अय्यर से लेकर कई लोग ऐसे रहे हैं, जिनके लिए खेल मंत्रालय को ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ जैसा माना गया।

संघों को कैसे काबू करेंगे
दरअसल, फेडरेशन स्वायत्त हैं। वे सीधे भारतीय ओलंपिक संघ के लिए जवाबदेह हैं। खेल मंत्रालय के लिए नहीं। सारी मदद का काम खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई के हिस्से है। ऐसे में पेच इतने सारे हैं कि अगर कोई खेल मंत्री वाकई चाहे, तो भी पांच में पांच अंक लाने जैसा काम नहीं कर सकता। सुशील कुमार और नरसिंह यादव का ही मामला लीजिए। अगर नरसिंह यादव का जाना फेडरेशन ने पहले से तय किया था, तो खेल मंत्रालय को अंधेरे में क्यों रखा। इसकी वजह से मंत्रालय ने सुशील की ट्रेनिंग पर करोड़ों रुपये खर्च किए। जब मामला फंसा तो फेडरेशन ने ये कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश की कि फैसला खेल मंत्रालय करेगा। ऐसे में इन दो पक्षों के बीच माहौल सही करने की जरूरत है।

महिला वेटलिफ्टिंग का भी मामला ऐसा ही था
खेल के लिहाज से एक उदाहरण याद आता है। करीब दो दशक पहले भारतीय महिला वेटलिफ्टिंग दुनिया में शीर्ष पर थी। कुंजरानी देवी और मल्लेश्वरी की धाक थी। फिर ओलिंपिक में खेल आया। ..और उसके बाद हम फिसलते गए। डोप की कालिख से लेकर प्रदर्शन में गिरावट तक.. सब कुछ जैसे गलत ही हुआ। यहां भी फेडरेशन और मंत्रालय के तालमेल से सही माहौल की जरूरत थी, जिसके बगैर अब हम विश्व स्तर पर कहीं नहीं हैं। सवाल यही है कि क्या बॉक्सिंग का भी यही हाल होगा? अगर चाहते हैं कि न हो, तो वही होना चाहिए, जो प्रधानमंत्री कह रहे हैं। यानी माहौल सही हो।

क्या माहौल सही करने की तरफ काम हुआ है?
सवाल यही है कि क्या इन दो सालों में वाकई माहौल ठीक करने के लिए कोई काम किया गया है? क्या खेल मंत्री को माहौल ठीक करने जैसे अधिकार देना मोदी ही नहीं, किसी भी सरकार की प्राथमिकता रही है? जवाब आंख बंद करके दे सकते हैं कि ऐसा नहीं रहा। दो साल पहले जब सरकार बनी थी, तब जुलाई में एशियाड के लिए एक बड़ी रकम बजट में रखी गई थी। एशियाड उससे महज दो महीने बाद थे।

बड़ा सवाल यह कि माहौल सही होगा कैसे
अब ओलिंपिक वर्ष में खेल मंत्री को असम की जिम्मेदारी दी गई। पिछले छह माह से सर्बानंद सोनोवाल असम में व्यस्त थे। क्या वाकई इस बीच उन्हें खेल मंत्रालय की सुध थी? उसके बाद तीन महीने से भी कम वक्त बचा तो हमारे पास फिलहाल कोई खेल मंत्री नहीं है। जितेंद्र सिंह को अतिरिक्त प्रभार दिया गया है। क्या उनके पास इतना वक्त, इतने अधिकार और इतनी रुचि है कि वे वाकई खेलों पर ध्यान दे पाएंगे? प्रधानमंत्री जी, वाकई खेलों और खिलाड़ियों के लिए एक माहौल तैयार करने की जरूरत है। वेटलिफ्टिंग का इतिहास और बॉक्सिंग का वर्तमान बताता है कि माहौल सही न हो, तो क्या से क्या हो सकता है। लेकिन माहौल सही होगा कैसे, ये भी तो बताइए? खेल का भी, खेल मंत्रालय का भी...।

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

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