13 साल में 3-3 जांच एजेंसियों और अदालती मुकदमे के बाद भी नहीं उठ पाया सोहराबुद्दीन की मौत से पर्दा!

21 दिसंबर 2018 को सीबीआई की विशेष अदालत ने अजीबोगरीब फैसला सुनाया. सीबीआई की विशेष अदालत के जज एस जे शर्मा ने कहा कि मामले में सबूत पर्याप्त नही है इसलिए सभी 22 आरोपियों को बरी किया जाता है.

13 साल में 3-3 जांच एजेंसियों और अदालती मुकदमे के बाद भी नहीं उठ पाया सोहराबुद्दीन की मौत से पर्दा!

21 दिसंबर 2018 को सीबीआई की विशेष अदालत ने अजीबोगरीब फैसला सुनाया. सीबीआई की विशेष अदालत के जज एस जे शर्मा ने कहा कि मामले में सबूत पर्याप्त नहीं है इसलिए सभी 22 आरोपियों को बरी किया जाता है. इतना ही नहीं तो जज ने तुलसी प्रजापति की पुलिस मुठभेड़ में मौत को सही पाया लेकिन सोहराबुद्दीन शेख के कथित एनकाउंटर को अनसुलझा ही छोड़ दिया. दोनों मुठभेड़ों में कोई लिंक नहीं साबित होने का हवाला दे कथित साजिश की पूरी कहानी को ही दरकिनार कर दिया. पर ये नहीं बताया कि सोहरबुद्दीन को किसने मारा और कौसर बी की मौत कैसे हुई? अलबत्ता तीनों की मौत का दुख जरूर जताया. सवाल है जब मौत हुई है तो किसी ने तो मारा है पर 13 साल में सीआईडी, सीबीआई की जांच और अदालती मुकदमे के बाद भी इसका खुलासा नहीं हो पाया. आखिर क्यों?

सोहराबुद्दीन शेख के भाई रूबाबुद्दीन शेख का कहना है कि कानून अंधा है सुना था लेकिन सीबीआई और जज भी अंधे हैं ये भी देख लिया. रूबाबुद्दीन पीड़ित परिवार से है इसलिए फ़ैसले के खिलाफ उसकी नाराजगी स्वाभाविक है. लेकिन कानून और कचहरी की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला शख्स भी अदालत के इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है. ऐसा क्यों?

विशेष सीबीआई जज ने 21 दिसंबर को अपना फैसला सुनाते हुए ये माना कि सोहरबुद्दीन की मौत गोली लगने से हुई लेकिन गोली किसने मारी ये साबित नहीं हो पाया. जबकि 26 नवम्बर 2005 की सुबह सोहराबुद्दीन को मारने का दावा खुद गुजरात की एटीएस और राजस्थान की पुलिस ने किया था. 

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पेंच नंबर - 1 
26/11/2005 को अहमदाबाद एटीएस पुलिस थाने में FIR दर्ज कराई गई थी. राजस्थान में उदयपुर जिले के प्रतापनगर पुलिस थाने के पुलिस इंस्पेक्टर अब्दुल रहमान की शिकायत पर दर्ज एफ़आईआर में कथित एनकाउंटर की पूरी कहानी है. जिसमें ये साफ साफ लिखा है कि सोहराबुद्दीन शेख पर कुल 8 गोलियां चलाई गईं थी. जिनमें से 3 राउंड पुलिस इंस्पेक्टर एन एच डाबी, 2 राउंड पुलिस इंस्पेक्टर अब्दुल रहमान, सब इंस्पेक्टर हिमांशु सिंह ने 2 और श्याम सिंह ने एक राउंड गोली चलाई थी.

ये सिर्फ दावा नहीं था तत्कालीन डीएसपी एम एल परमार ने पंचों के सामने सभी 8 गोलियों के खाली खोल बरामद कर फोरेंसिक लैब में भी भेजा था और फोरेंसिक लैब में साबित भी हुआ था कि 3 गोलियां एक बंदूक से, दूसरी 2 दूसरी एक बंदूक से, बाकी के 2 और 1 अलग-अलग बंदूक से चली थीं.

अब चुंकि ये सभी गोलियां पुलिस वालों ने खुद अपनी - अपनी सर्विस पिस्तौल और रिवॉल्वर से चलाई थी इसलिए उनके रिकॉर्ड से आसानी से ये साबित किया जा सकता था कि वो उनके पास उस दिन थी या नहीं? ये किया गया लेकिन 2 साल बाद साल 2007 में. तब पुराना रिकॉर्ड लिया ही नहीं गया. नतीजा पुलिस वालों को मुकरने का मौका मिल गया. जबकि एफ़एसएल की जांच में सभी बंदूकों से गोली चलने की पुष्टि हुई और सबसे बड़ी बात है कि सोहरबुद्दीन शेख की जांघ से निकाली गई बंदूक की गोली आर्टिकल 27 के तौर पर बरामद इंस्पेक्टर एन एच डाबी की बंदूक से चली थी इस बात की भी पुष्टि हुई थी. और तो और आरोपी क्रमांक -7 अब्दुल रहमान, आरोपी क्रमांक -8 हिमांशु सिंह रावत और आरोपी क्रमांक-9 श्याम सिंह चरण की रोजनामा में दर्ज था कि सोहराबुद्दीन को गोली उन्होंने मारी. ये बात चार्जशीट में भी आई थी.

पेंच नंबर - 2
अब बात करते हैं सोहराबुद्दीन के शव की. मेडिकल अफसर गवाह पी डब्ल्यू 74 ने अदालत में बताया है कि 26/11/2005 की सुबह 6.25 पर अहमदाबाद एटीएस के पुलिस इंस्पेक्टर एन एच डाबी सोहराबुद्दीन शेख का शव अस्प्ताल लेकर आए थे. गवाह के मुताबिक उसने मरीज की जांच की तब उसे मृत पाया. उसके बाद शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया गया. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में दर्ज जानकारी के मुताबिक तत्कालीन डीवाई एसपी एम एल परमार ने उस शव की पहचान शेख सोहरबुद्दीन अनवरुदीन के रूप में बताई थी. पोस्टमार्टम डॉक्टर गवाह पी डब्ल्यू- 34 ने इस बात की पुष्टि की है. मतलब साफ है कि कथित मुठभेड़ के बाद आरोपी पुलिस वाले ही सोहराबुद्दीन को अस्पताल ले गए फिर शव का पोस्टमॉर्टम करवाया.

पेंच नंबर - 3 
एनकाउंटर के बाद दावा किया गया था कि सोहराबुद्दीन के पास से कुल 9 आर्टिकल बरामद हुए थे. उसमें 46000 रुपये, एक माला, सूरत से अहमदाबाद का एक रेल टिकट, कर्णावती ट्रैवेल्स का एक विजिटिंग कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, किसी सजाउदीन शेख का विजिटिंग कार्ड इत्यादि. हैरानी की बात है कि इन सभी पर सिर्फ माला को छोड़ दें तो किसी औऱ पर खून का एक धब्बा भी नही लगा था जबकि एनकाउंटर के बाद इनकेस्ट पंचनामा में सोहराबुद्दीन का शव ऊपर से नीचे तक खून से सना बताया गया था.

दूसरी बात, ऊपर बरामद सभी आर्टिकल ना तो अस्पताल में बरामद किए गए थे और ना ही शव के पास से. जानकारी के मुताबिक सभी आर्टिकल एम एल परमार ने एटीएस के दफ्तर में पंचों के सामने बरामद दिखाए ये कहकर कि मेडिकल अफसर गवाह पी डब्ल्यू -74 ने पुलिस इंस्पेक्टर एन एच डाबी को अस्पताल में दिये थे. इससे मामले में लीपापोती की बात साफ जाहिर होती है.

पेंच नंबर - 4
एटीएस दफ्तर के पंचनामा में ही सोहराबुद्दीन के पास से ही नोकिया मॉडल नम्बर 1100 का एक मोबाइल फोन भी बरामद होने का दावा किया गया था. लेकिन हैरानी की बात है जब एफ़एसएल में उस फोन के सिम कार्ड की पड़ताल की गई तो वो मध्यप्रदेश का निकला. उसमें आंध्रा और मध्यप्रदेश के फोन नंबर तो मिले लेकिन गुजरात के एक भी नम्बर नहीं मिले. अगर संदिग्ध गुजरात में किसी बड़ी कार्रवाई के लिये आ रहा है तो कोई तो स्थानीय मदद लेने के लिए फोन करता जैसा कि पुलिस इंस्पेक्टर अब्दुल रहमान ने अपने पहले बयान में दावा किया था कि सोहराबुद्दीन लतीफ गैंग की मदद से आतंकी साजिश को अंजाम देने आया था. इतना ही नहीं तो सोहराबुद्दीन की लोकेशन गुजरात सर्किल में भी सिर्फ 25 नवंबर की रात 21 बजकर 44 मिनट के आसपास मिली है. उसके पहले 18 नवंबर को महाराष्ट्र गोवा था, 19 और 22 नवम्बर को आंध्रप्रदेश सर्किल थी और 23 नवम्बर की सुबह फिर से  महाराष्ट्र गोवा सर्किल थी. इस लिहाज से देखें तो सीबीआई का जो आरोप है कि सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी जब हैदराबाद से संगली जा रहे थे तभी 23 नवम्बर को दोनों को बस से उतारकर महाराष्ट्र होते हुए गुजरात ले गए. वहां पहले उन्हें दिशा फार्म में रखा गया उसके बाद अरहम फार्म हाउस में. फिर 26 नवंबर की सुबह नरोल सर्कल के पास मुठभेड़ में मारा दिखा दिया गया.

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पेंच नंबर - 5
26/11/2005 को दर्ज एफ़आईआर में बताया गया था कि सोहराबुद्दीन शेख हीरो होंडा मोटरसाइकिल से आ रहा था तभी उसे पहचान कर समर्पण करने के लिये कहा गया लेकिन उसने गोली चला दी बदले में पुलिस ने भी गोली चलाई. लेकिन एफएसएल की रिपोर्ट की मानें तो उन्हें जब मोटरसाइकिल की जांच की तो उसका हैंडल लॉक था और उसकी चाबी भी नहीं थी. सवाल है अगर मोटरसाइकिल का हैंडल लॉक था तो सोहराबुद्दीन उसे कैसे चला सकता था और अगर हैंडल लॉक बाद में किया गया तो चाभी क्यों नही जप्त दिखाई गई? बाद में पता चला था कि उक्त मोटरसाइकिल किसी शौक सिंह की थी और उसने 25 नवम्बर को ही मोटरसाइकिल चोरी होने की शिकायत दर्ज कराई थी. अगर मोटरसाइकिल चोरी हुई थी तो उसकी असली चाबी उसके मालिक के पास होनी चाहिए थी. लेकिन चाभी बरामद ना कर उसे अधूरा ही छोड़ दिया गया क्यों? क्या इसलिये कि उससे पता चल जाता कि मोटरसाइकिल प्लांट की गई थी? 

पेंच नंबर- 6 
गुजरात के डीआईजी डीजी वंजारा ने सोहराबुद्दीन शेख के एनकाउंटर के कुछ दिन बाद राजस्थान के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल को पत्र लिखकर उदयपुर पुलिस टीम के पुलिस इंस्पेक्टर अब्दुल रहमान, सब इंस्पेक्टर हिमांशु सिंह, सब इन्स्पेक्टर श्याम सिंह को पुरस्कार और प्रमोशन देने की अनुशंसा की थी. डी जी वंजारा ने अपने सिफारिशी पत्र में लिखा था कि उदयपुर के एसपी दिनेश एम एन और गुजरात एटीएस की टीम साल भर से इसके लिए काम कर रही थी. वंजारा ने आगे ये भी लिखा था कि इस गौरवपूर्ण काम के लिय एसपी दिनेश एम एन को भी पुरस्कृत किया जाना चाहिए. वंजारा के ये पत्र भी चार्जशीट का हिस्सा हैं. सोहराबुद्दीन शेख की मौत और उसे मारने का दावा भरा पत्र एक अहम दस्तावेजी सबूत है.

अब बात तुलसी प्रजापति केस की
सीबीआई की विशेष अदालत के जज एस जे शर्मा ने 21 दिसंबर को अपने फैसला सुनाते हुए कहा था कि तुलसी प्रजापति मुठभेड़ मामले में कुछ ऐसे गवाह हैं जिन्होंने उसे रेल गाड़ी में देखा था. जिससे ये साबित होता है कि वो रेल गाड़ी से भागा था और बाद में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया. पर जज ने आगे ये भी जोड़ा कि सीबीआई ऐसा कोई सबूत नहीं पेश कर पायी जिससे ये साबित हो कि दोनों ही वारदातों में कोई लिंक हो.

तुलसी प्रजापति को भीलवाड़ा में एक किराये के मकान से गिरफ्तार किया गया था. आरोप है कि तुलसी प्रजापति को भी उसी दिन भीलवाड़ा से पकड़ा गया जिस दिन अहमदाबाद में सोहरबुद्दीन का एनकाउंटर हुआ था. क्या ये महज संयोग हो सकता है या फिर साजिश का हिस्सा जैसा कि चार्जशीट में आरोप लगाया गया है? 

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ये सवाल इसलिए उठा है क्योंकि तुलसी की गिरफ्तारी की तारीख जान बूझकर 29/11/2005 को दिखाई गई ताकि दोनों ही मामलों को जोड़ कर साजिश साबित ना हो सके. तुलसी को 26/11/2005 को उठाया तो भीलवाड़ा से गया लेकिन गिरफ़्तारी हाथीपोल पुलिस थाने में दिखाई गई वो भी 29/11/2005  की रात में. जबकि उदयपुर के एसपी दिनेश एम एन की मंथली रिपोर्ट में लिखा गया है कि 29/11/2005 को शाम 5 बजे वो अंबामाता पुलिस थाने गए और वहां हामिद लाला की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार आरोपियों से पूछताछ की थी. जबकि हाथीपोल पुलिस थाने में दर्ज डायरी में आरोपी को लाने का समय तकरीबन 10 रात लिखा गया है. मतलब तुलसीराम को पहले से ही पकड़ कर डिटेन कर रखा गया था. अंबामाता पुलिस थाने के एसएचओ रणविजय गवाह पी डब्ल्यु- 67 ने 164 के तहत बयान दिया था कि एसपी दिनेश एम एन ने उसे कहा था कि गिरफ्तारी बाद में दिखाएंगे. हालांकि अदालत में गवाही के दौरान वो अपने पुराने बयान से मुकर गया.

इतना ही नहीं तुलसी प्रजापति अहमदाबाद में पटेल बंधुओं पर गोली चलाने का भी आरोपी था. इसलिये अहमदाबाद एटीएस पुलिस अफसर चार्जशीट गवाह पी डब्ल्यू -227 ने भी तुलसी प्रजापति से पूछताछ की थी. पूछताछ की उस रिपोर्ट में तुलसी ने खुद बताया था कि उसे भीलवाड़ा से 26 नवंबर 2005 को ही पकड़ा गया था. सोहराबुद्दीन शेख और तुलसी प्रजापति मामले में लिंक को साबित करने के लिये ये एक अहम सबूत हो सकता था लेकिन हैरानी इस बात की है कि मुकदमे में चार्जशीट गवाह पी डब्ल्यू -227 को की अदालत में गवाही नहीं हो पाई.

इसी तरह राजस्थान पुलिस के अफसर सुधीर जोशी गवाह पी डब्ल्यु 159 ने जिसका 164 के तहत बयान भी हुआ था कि आरोपी नम्बर -7 मतलब पुलिस इन्स्पेक्टर अब्दुल रहमान और एसपी दिनेश एम एन ने फोन पर 26 नवंबर को ही बताया था कि तुलसी प्रजापति समीर नाम से भीलवाड़ा के एक मकान में छुपा है. उसके बाद ही तुलसी को उसी दिन भीलवाड़ा से पकड़ा गया. लेकिन अदालत में गवाही के दौरान वो मुकर गया. उसने तारीख ना बताकर नवंबर महीने का आखिरी सप्ताह बताया. उस समय सीबीआई के सीनियर पीपीबीपी राजु का फर्ज बनता था कि वो उसके 164 के तहत दिए पुराने बयान उसके सामने रखते. लेकिन उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया या गलती से रह गया ये पता नहीं. 

पत्रकार की गवाही नहीं हो पाई 
26 नवम्बर को तुलसी की गिरफ़्तारी वाली बात वहां के एक स्थानीय अखबार प्रातःकाल में भी छपी थी. सीबीआई ने उसे अपना गवाह भी बनाया था, उसने एक्सीडेंट होने का हवाला दे बाद में आने का वक्त भी मांगा था. लेकिन बाद में जब उसे बुलाने के लिए सीबीआई ने जज एस जे शर्मा के सामने प्रस्ताव रखा तो बताते हैं कि जज सीनियर पी पी बी पी राजू पर नाराज हो गए थे. यहां तक कह दिया था कि पत्रकार इधर उधर की सुनी बातों पर खबर बनाता है उसके बात पर कितना भरोसा करना? साथ में ये कहा कि अगर मैं बुलाता हूं और वो समाधान कारक जवाब नहीं दे पाता है तो मैं उसे सजा भी दे सकता हूं. उसके बाद सीबीआई शांत हो गई. सवाल मुठभेड़ में तुलसीराम के मार गिराने के दावे पर भी कई हैं.

अब आते हैं सीबीआई की विशेष अदालत के जज एस जे शर्मा के फैसले पर  
जज एस जे शर्मा का पूरा फैसला तकरीबन 350 पन्नों का है. जिसमें सिलसिलेवार तरीके से उन्होंने ने हर उठने वाले सवालों के जवाब देने की कोशिश की है. क्योंकि उन्हें भी इस बात का अंदाजा है कि उनका फैसला आसानी से सभी के गले उतरना मुश्किल है. शायद इसीलिए उन्होंने ने अपनी टिप्पणी में लिखा है, "हो सकता है इस फैसले से समाज और पीड़ित परिवार में गुस्सा और झुंझलाहट पैदा हो. लेकिन बिना पुख्ता सबूत के सिर्फ भावनाओ में बह कर फैसला नहीं दिया जाता. अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी होती है कि केस को साबित करे वो भी पुख्ता सबूतों के आधार पर."

जज के मुताबिक, आरोपी क्रमांक - 7 अब्दुल रहमान अपने डिस्चार्ज एप्लिकेशन में ही उस दिन अहमदाबाद में होने से मना कर चुका है. राजस्थान पुलिस के डी वाय एस पी सुधीर जोशी का दावा है कि पुलिस इंस्पेक्टर अब्दुल रहमान के फोन से उन्हें कॉल आया था कि तुलसीराम भीलवाड़ा में किराये के मकान में छुपा है. लेकिन ना तो जोशी और ना ही अब्दुल रहमान के मोबाइल फोन की जांच की गई. रहमान के फ़ोन के सीडीआर और डेटा उसकी लोकेशन पता चल सकती थी लेकिन वो भी नहीं किया गया. उदयपुर के एस पी दिनेश एम एन का ड्राइवर पूरनमल मीणा जो मामले में अहम गवाह था वो मुकर गया. लोग बुक में भी सिर्फ एस पी दिनेश एम एन के विजिट का उल्लेख है. सब इंस्पेक्टर हिमांशू और श्याम सिंह के बारे में भी ये साबित नही हो पाया कि दोनों वारदात के पहले या बाद में मौके पर थे. जांच एजेंसी ने उनका मोबाइल फोन जब्त नहीं किया गया नाही सीडी मिला जिससे उनकी लोकेशन मिल सकती थी. यहां तक के गुजरात ए टी एस के पुलिस अफसरों का मोबाइल लोकेशन भी नहीं लिया गया. 

एटीएस के इंस्पेक्टर एनएच डाबी जिनपर सोहराबुद्दीन को 2 गोली मारने का आरोप है उसका भी मौके पर होना साबित नहीं हो पाया. क्योंकि पुलिस के ड्राइवर भी अदालत में मुकर गए. उनका कहना है कि हम वहां ऑफिस की गाड़ी नही ले गए थे . हम वहां गये ही नहीं थे. रही बात सोहराबुद्दीन की जांघ से मिली गोली का डाबी के रिवॉल्वर की होने की पुष्टि की तो उस रिवॉल्वर से गोली चली थी ये तो एफ़ए एल में साबित हुआ, लेकिन वो रिवॉल्वर उस  दिन डाबी के पास थी ये रिकॉर्ड से साबित ही नहीं हो पाया. कथित बंदूकों के ईशु करने का भी सबूत भी नहीं मिला. उनके रिकॉर्ड भी नहीं जमा किये गए. खाली कारतूसों से बंदूकों के मिलान से जुड़े सवाल के जवाब भी नहीं मिल पाए. 

जज के मुताबिक, अस्पताल में सोहराबुद्दीन के शव की पहचान करने वाले डीवायएसपीएमएल परमार मामले में अहम गवाह बन सकते थे लेकिन उन्हें आरोपी बना दिया गया. जज का दावा है कि सीआईडी और सीबीआई दोनों भी अपनी कहानी साबित करने में फेल रहे.  सबूतों को सही तरीके से जुटाए नहीं गये. प्राथमिक सबूत भी नहीं मिल पाया. मैं असहाय हूं  सीबीआई की कहानी के मुताबिक, सोहराबुद्दीन शेख अपनी पत्नी के साथ इंदौर से हैदराबाद गया था. वहां गुजरात एटीएस की टीम गई. सोहराबुद्दीन शेख अपनी पत्नी कौसर बी के साथ हैदराबाद से सांगली की बस में जा रहा था. उस बस में तुलसीराम प्रजापति भी था. तभी 23 नवंबर को हैदराबाद से पीछा कर रही पुलिस टीम ने बस रुकवाकर तीनों को उतारकर अपनी हिरासत में ले लिया. तुलसीराम को बाद में छोड़ दिया गया लेकिन सोहराबुद्दीन और कौसर बी की हत्या कर दी गई. लेकिन जज एस जे शर्मा की मानें तो पूरे मामले की तीन-तीन एजेंसियों ने जांच की. पर एक भी एजेंसी सोहराबुद्दीन शेख और कौसर बी के इंदौर से हैदराबाद जाने की बात साबित नहीं कर पाई. 

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वहां वो मारुति कार से गया ये बताया गया लेकिन कार जब्त नहीं हुई. उसका दोस्त कलीमुद्दीन जिसने सोहराबुद्दीन को हैदराबाद में देखने का दावा किया था उसका बयान नहीं लिया गया. तुलसीराम के वहां होने का दावा किया गया था लेकिन उससे भी नहीं पूछा गया. कलीमुद्दीन उर्फ नईमुद्दीन की बहन जिसे आपा नाम से पुकारते थे और जिसने सीबीआई को बताया था कि सोहराबुद्दिन और कौसर बी हैदराबाद आये थे उसने भी सीबीआई की कहानी को सपोर्ट नहीं किया. उनके हैदराबाद में रहने का कोई सबूत नहीं मिलने से पूरी यात्रा की कहानी ही संदिग्ध है. यहां तक कि जिस बस में गए थे.  उस बस का टिकट भी सोहराबुद्दीन और कौसर बी के नाम ना होकर किसी सलमान और  शेख अहमद के नाम बुक था. पर वो कौन थे ये पता नहीं चला. हैरानी की बात है कि ना तो ट्रैवेल एजेंट और ना कोई और उन दोनों के फ़ोटो पहचान पाया. यात्रियों में एक आप्टे दंपत्ति ने उनकी फोटो देख जरूर बस में होने का दावा किया था. उनका 164 के तहत बयान भी हुआ था लेकिन मुकदमे के दौरान अदालत के दोनों मुकर गए. 

सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुदिन ने एकबार कहा था कि सोहराबुद्दीन ने बताया था कि वो सांगली बस से जा रहा था. लेकिन जब जांच हुई तो रूबाबुद्दीन का वो फोन जमा ही नहीं किया गया. वरना उससे कुछ पता चल सकता था. 
बताया गया कि कौसर बी उस समय पेट से थी. लेकिन उसके लिए कोई मेडिकल पेपर नहीं जमा किये गए और अगर वो गर्भवती थी तो हैदराबाद में बस में बैठाकर सांगली ले जाने का क्या तुक था ?  इंदौर से हैदराबाद अगर वो कार से गए तो हैदराबाद से सांगली के लिए बस क्यों ? बताया गया कि अहमदाबाद एटीएस की एक टीम हैदराबाद गई थी. लेकिन कौन सी गाड़ी,  वहां कहां रुके इसके भी कोई पुख्ता सबूत नहीं पेश किये गए. 

यहां तक कि वहां सीआरपीएफ गेस्ट हाउस के रिकॉर्ड में  जिस कालिस कार का नंबर नोट था उसे चलाने वाले गुजरात एटीएस के ड्राइवर नाथुबा जडेजा चार्जशीट गवाह पी डब्ल्यु 105और दूसरे ड्राइवर गुरुदयाल सिंह चार्जशीट गवाह पी डब्ल्यु -106 जो स्टार गवाह थे. उन्होंने बताया कि वो नम्बर प्लेट उन्होंने  22 नवंबर को  बदली थी, जबकि रजिस्टर्ड में 21 नवंबर को ही वो नंबर नोट किया गया था. 

पुणे के सिद्धु ढाबा में उन दोनों के अपहरण के बाद खाना खाने की बात बताई जा रही है वो भी साबित नहीं हो पाई. गवाह मुकर गए. बताया गया कि वहां से सभी को बलसाड़ लाया गया. बलसाड़ से  तुलसी को जाने दिया गया. अगर दोनों को मारना था तो तुलसी को क्यों छोड़ दिया गया और सालभर बाद मारा गया ? अगर उसे भी मारना था तो तभी उसे भी मुठभेड़ में मारा दिखा सकते थे. 

मामले में जो शिकायकर्ता है रूबाबुद्दीन शेख उसे पता ही नहीं था कि तुलसीराम प्रजापति भी उन दोनों के साथ था. रूबाबुद्दीन ने बताया था कि तुलसीराम ने उज्जैन में एक पेपर सही कर दिया था और उसे पछतावा था कि उसकी वजह से सोहराबुद्दीन शेख की मौत हुई. ये बात भी साल 2006 में हुई थी लेकिन उसने साल 2011 में बताई. पहले क्यों नही बताया ? ये बात भी जेल के कैदियों से सुनी सुनाई थी. जेल में सुनी सुनाई बात को सच कैसे माना जा सकता है जब जेल के कैदी भी अपनी बात से मुकर गए हों.  

सीबीआई की कहानी है कि तुलसीराम हैदराबाद से बस में सोहराबुद्दीन के साथ बस में था, जबकि भीलवाड़ा में जिस मकान से तुलसीराम को गिरफ्तार किया गया था उस मकान मालिक चन्दनकुमार झा ने बताया है कि 15 दिनों से तुलसी उस मकान में था. अदालत के मुताबिक, जितनी भी कड़ी जोड़ने की कोशिश की गई वो  जुड़ी ही नहीं. इसलिए सोहराबुदीन को किसने मारा ये साबित नहीं हो पाया. कौसरबी का क्या हुआ ये पता नहीं चल पाया. खास बात है कि इतनी सारी खामियों के बाउजूद  जज एस जे शर्मा ने पैरवी अफसर विश्वास मीणा और सीबीआई के सीनियर पीपीबीपी राजू की ये कहकर प्रशंसा की है कि दोनों ने केस साबित कराने के लिए बहुत कोशिश की.  

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नहीं जुड़ पाए साजिश के तार ? 
सीबीआई का आरोप रहा है कि सोहरबूद्दीन शेख और तुलसी प्रजापति मुठभेड़ एक ही साजिश का हिस्सा थी. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर दोनों मामलों की साथ में जांच की गई  और आरोपियों की संख्या बढ़कर 38 हो गई. लेकिन कालान्तर में जांच में खामियों का फायदा उठाते हुए साजिश के सभी 16 आरोपी आरोप मुक्त हो गए. बच गए थे तो 22 वो पुलिसकर्मी जो मौका ये वारदात पर मौजूद थे. आरोप पत्र में मामले में कुल 700 के करीब गवाह थे. लेकिन बुलाया गया सिर्फ 210 को उसमें भी साजिश से जुड़े गवाहों को नही सिर्फ दोनों मुठभेड़ के पंच, डॉक्टर, संबंधित पुलिस वाले और जांच अधिकारी. उसमें भी 92 मुकर गये. साजिश से जुड़े गवाहों को ये कहकर नहीं बुलाया गया कि जो आरोपी आरोप मुक्त हो चुके हैं उनसे जुड़े गवाहों का क्या काम ? यहां तक गवाहों के क्रॉस एक्जामिनेशन में भी साजिश के आरोपियों से जुड़े सवालों को पूछने पर भी टोक दिया जाता था. ये सब खुली अदालत में सबने देखा है. साजिश से जुड़ी जांच को अंजाम देने वाले सीआईडी के तत्कलीन जांच अधिकारी रजनीश राय जो मामले में अहम गवाह साबित हो सकते थे उन्हें गवाही के लिए तलब ही नहीं किया गया. 

जज ने अपनी टिप्पणी में साफ कहा है कि मामले में सीबीआई ने सच जानने की बजाय पहले से लिखी लिखाई कहानी को साबित करने में लगी रही. पूरी कवायद राजनितिक उदेश्य से की गई. पर ये भी हकीकत है कि सोहराबुद्दीन शेख की मौत हुई और कौसर बी लापता है. सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर की एफआईआर दर्ज है. तो कोई तो उसके लिये जिम्मेदार है. लेकिन 13 साल में सीआईडी और सीबीआई  की जांच और विशेष अदालत में मुकदमे के बाद भी सत्य पर से पर्दा नहीं उठ पाना पूरी व्यवस्था पर से भरोसा उठने जैसा है. 


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