भारत की ज़रूरत और संस्कृति से मेल नहीं खाता स्टार्ट अप...

भारत की ज़रूरत और संस्कृति से मेल नहीं खाता स्टार्ट अप...

'स्टार्ट अप इंडिया' के इस ब्लॉग को स्टार्ट करते हैं दो मुख्य बातों से। पहला, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 'स्टार्ट अप अमेरिका' की शुरुआत अपने यहां आर्थिक मंदी के दौर में की थी। उनके सामने उनकी अर्थव्यवस्था की यह रिपोर्ट मौजूद थी कि अमेरिका में छोटी कंपनियां ज़्यादा रोज़गार दे रही हैं, बड़ी कंपनियां नहीं।

प्रोफेसर डैनियल आइज़नबर्ग ने सन 2010 में प्रकाशित अपने एक अत्यंत चर्चित लेख में 'इंटरप्रेनियल इकोसिस्टम' के लिए नौ प्रमुख तत्व बताए थे, जिनमें से 'संस्कृति' वाले तत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने दुनिया को सतर्क किया था कि वे अपने यहां सिलिकॉन वैली की कार्बन कॉपी बनाने की गलती न करें।

ऊपर की ये दोनों बातें हमारे यहां शुरू किए गये स्टार्ट अप अभियान के बारे में विचार करने के लिए कई नए कोण उपलब्ध कराती हैं। पिछले पांच सालों में स्टार्ट अप की संख्या पांच सौ से बढ़कर लगभग साढ़े चार हजार हो गई है। इनमें से 90 प्रतिशत से भी अधिक स्टार्ट अप केवल टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हैं, और वे भी केवल सॉफ्टवेयर तैयार करने तक सीमित हैं. ऑपरेटिंग सिस्टम बनाने की क्षमता दिखाई नहीं दी है। अधिकांशतः स्थापित कारोबारों को ही स्टार्ट अप के नाम पर इंटरनेट के माध्यम से सुगम बनाया गया है। ये भी एक प्रकार से ई-व्यापार की नई दुकानों की तरह काम कर रही हैं, जो परम्परागत छोटे व्यापारियों के रोज़गारों को कमज़ोर कर रही हैं। यदि स्टार्ट अप की दिशा यही रही, तो यह रोज़गार उपलब्ध कराने से कई गुना अधिक रोज़गार छीनने वाला अभियान बन सकता है। 'फ्लिपकार्ट' का उदाहरण हमारे सामने है।

अधिकांश स्टार्ट अप को लगभग 90 प्रतिशत पूंजी विदेशों से मिल रही है, सो ज़ाहिर है, इसकी आय का एक बड़ा भाग विदेशियों की जेब में ही जाएगा। ऐसी स्थिति में यह भी संदेहास्पद मालूम पड़ता है कि यह क्षेत्र राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने में कितना सहायक होगा। 'सूचना क्रांति' के बाद टेक्नोलॉजी पर आधारित उभरती हुई विश्व अर्थव्यवस्था ने धन के वितरण में कितनी जबर्दस्त असमानता पैदा की है, इसे जानने के लिए हमारे पास अभी-अभी इंग्लैण्ड की संस्था ऑक्सफैम द्वारा जारी रिपोर्ट मौजूद है। यह सचमुच में भय पैदा कर रोंगटे खड़े कर देने वाला सच है कि दुनिया की आधी दौलत दुनिया के मात्र 62 लोगों के पास है। इनमें अधिकांशतः वे नवधनाढ्य हैं, जिनका व्यापार टेक्नोलॉजी पर आधारित है। टैक्नोलॉजी पर आधारित यह स्टार्ट अप आगे चलकर भारत में क्या गुल खिलाएगा, संदेह से परे जान नहीं पड़ता।

हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सम्मेलन मैसूर में हुआ, जहां अपने उद्घाटन संबोधन में हमारे प्रधानमंत्री ने पूरी दृढ़ता से कहा कि विज्ञान की मदद स्थायी विकास को आगे ले जाने में ली जानी चाहिए, क्योंकि वही देश को गरीबी के दुष्चक्र से निकाल सकता है। यही बात पंडित जवाहर लाल नेहरू भी कहते थे। तब से अब तक विज्ञान बढ़ता गया है, और गरीबी भी। प्रतिशत में न सही, कुल संख्या की दृष्टि से तो बढ़ी ही है।

इसी सम्मेलन में सीएनआर राव ने जो बात कही, वह भी गौर करने लायक है। उन्होंने बेंगलुरू के सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के प्रति दुख व्यक्त करते हुए उचित ही कहा था कि उसका ध्यान बौद्धिक अनुसंधान की बजाए पैसे पर है। विज्ञान से देश के लोगों का हित सध सके, इसके लिए ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में नवाचार हो। आज अमेरिका ने दुनिया में जो बढ़त प्राप्त की है, वह नवाचार के दम पर है, जो उसके विशिष्ट सांस्कृतिक मूल्यों की देन है।

स्टार्ट अप सीएनआर राव की चिंता को बढ़ाने वाला ही नज़र आता है। अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल स्वयं को ढालने में इसकी कोई रुचि दिखाई नहीं देती। क्या यह अभियान खुद को भारत के गांवों के विकास और किसानों की समृद्धि के क्षेत्र में ले जा सकेगा...? क्या यह गांव की शिक्षा तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान में कोई सकारात्मक भूमिका निभाएगा...? वैसे भी, जैसा इसके नाम से ही आभास मिलता है, यह स्टार्ट अप तीन के इर्द-गिर्द ही घूमता रहेगा - भारत के बड़े शहर, पढ़ा-लिखा तकनीकी एवं प्रबंधकीय वर्ग तथा सालाना आय... ये तीनों भारत की उस ज़रूरत और संस्कृति से मेल नहीं खाते, जिसकी चर्चा डैनियल आइज़नबर्ग ने की थी।

डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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