राफेल खरीद कांड, अपराधशास्त्र के नज़रिये से...

हमारी न्याय प्रणाली है ही इतनी ज़बर्दस्त कि देर भले ही हो जाए, लेकिन किसी का भी उससे बच पाना आसान नहीं है. इसीलिए राफेल सौदा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच ही गया.

राफेल खरीद कांड, अपराधशास्त्र के नज़रिये से...

राफेल डील पर विशेष टिप्पणी

राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला सरकार के लिए बहुत कर्रा पड़ता जा रहा है. इस खरीद के बारे में हद दर्जे की गोपनीयता का इंतज़ाम करने के बाद भी सरकार को रोज़-रोज़ जवाब देने पड़ रहे हैं. दरअसल हमारी न्याय प्रणाली है ही इतनी ज़बर्दस्त कि देर भले ही हो जाए, लेकिन किसी का भी उससे बच पाना आसान नहीं है. इसीलिए राफेल सौदा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच ही गया. सिर्फ पहुंच ही नहीं गया, बल्कि अदालत ने भारी-भरकम कीमत वाले इन लड़ाकू विमानों के दाम की जानकारी बंद लिफाफे में मंगाकर रख ली है. हालांकि अदालत ने विमान के दाम के बारे में किसी तरह की सुनवाई से फिलहाल इंकार कर दिया. अदालत ने कहा कि जब तक विमान के दाम के बारे में जानकारी सार्वजनिक नहीं होती, तब तक इस मामले में कोई बात नहीं होगी. हालांकि अदालत ने यह ज़रूर कहा कि यह फैसला करना पड़ेगा कि सरकार से इसे सार्वजनिक करने के लिए कहा जा सकता है या नहीं. बहरहाल, बुधवार को राफेल खरीद में कथित घोटाले में खरीद प्रकिया पर अदालत ने आरोपियों और शिकायतकर्ताओं को तफसील से सुना. हैरत की बात यह कि चार घंटे सुना. सुनवाई के बाद अदालत ने यह ऐलान भी कर दिया कि उसने इस बारे में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.

 वैसे काफी कुछ सामने आ चुका था...

चाहे संसद हो या विपक्ष की आम सभाएं, या खुद सरकार की तरफ से सफाइयां हों, इस खरीद के बारे में बहुत-सी बातें अनौपचारिक रूप से उजागर हो ही चुकी हैं. जो कुछ पता चलने लायक बाकी बचा था, वह अदालत में सुनवाई के दौरान पता चल गया, और चार घंटे लंबी सुनवाई के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. इसका मतलब है कि फिलहाल राफेल मामले में जांच के बारे में अदालती सुनवाई का काम पूरा हो गया है. यानी राफेल की जांच के लिए अदालत की निगरानी में विशेष जांच दल बनाया जाए या नहीं, इस बारे में अदालत में अब और बहस नहीं होगी. कम से कम तब तक तो नहीं ही होगी, जब तक खरीद के दाम सार्वजनिक करने के बारे में कोई फैसला न हो जाए.

 
क्या दाम की गोपनीयता हमेशा के लिए है...?

सरकार कहती है कि यह खरीद राष्ट्रहित से जुड़ी है. विमानों के दाम बताने से राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ेगी, क्योंकि दाम का पता चलते ही विमान में लगे हथियारों और दूसरी रक्षा प्रणाली उजागर हो जाएगी. राष्ट्रहित वाला यह एक ऐसा अंदेशा है कि चाहे कोई भी हो, उसे चुप कराया जा सकता है. कम से कम तब तक तो इस लड़ाकू विमान के दाम पूछने वाले को चुप कराया ही जा सकता है, जब तक राफेल से ऊंची सुरक्षा वाला विमान दुनिया के बाज़ार में नहीं आ जाता. तब उस ज़्यादा आधुनिक और ज़्यादा घातक लड़ाकू बेचने के लिए इस राफेल विमान की कमियां बतानी ही पड़ेंगी. तब राफेल से ज़्यादा भयानक मार करने वाले उन विमानों का विज्ञापन करने की ज़रूरत पड़ेगी, तब तो पता चल ही जाएगा कि इस विमान को किस दाम पर खरीदा गया था और क्यों खरीदा गया था, और उस समय तक लड़ाकू विमानों के दाम न बताने की गोपनीयता वाला नियम भी अपने आप ही हट जाएगा. हो सकता है कि अदालत ने इस बात पर भी गौर किया हो कि विमान के दाम को गोपनीय बनाए रखना कितना सही या गलत है, या कितना ज़रूरी या गैरज़रूरी है. अभी अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि अदालत अपने सुरक्षित किए फैसले में विमान के दाम को सार्वजनिक करने के बारे में भी कोई फैसला या फाइंडिंग या व्यवस्था देगी या नहीं...?

 
फिर भी अदालत कैसे पहुंचा मामला...?


सरकार ने राष्ट्रहित का तर्क लगाकर दाम बताने को गोपनीय बनाया, लेकिन विपक्ष ने इसे घोटाले की जांच से बचने के लिए सरकार की पेशबंदी बताया. भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए मशहूर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सीधे-सीधे भ्रष्टाचार का अंदेशा जताते हुए इसकी CBI जांच की मांग उठाई थी. जब उनकी मांग नहीं मानी गई, तो वे सुप्रीम कोर्ट चले गए. सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले में सुनवाई से इंकार नहीं करता. अलबत्ता वह यह ज़रूर देखता है कि मामला आगे की सुनवाई के लायक है या नहीं. अब जब इस मामले की अदालत में बाकायदा सुनवाई चल रही थी, तो कौन नकार सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे सुनवाई लायक माना. इतना ही नहीं, सरकारी वकील की लाख कोशिशों के बाद भी अदालत ने विमान के दाम भी सीलबंद लिफाफे में मंगाकर रख लिए. मामले की आखिरी सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने लगे हाथ वायुसेना के अफसरों को बुलाकर भी जानकारी ले ली.

 
अनोखा नहीं है खरीद में घोटाले का आरोप...

सेना के लिए साजो-सामान खरीदने में भ्रष्टाचार के आरोप पहले भी लगते रहे हैं. लेकिन भ्रष्टाचार के ऐसे मामलों में जांच-पड़ताल और मुकदमे में सज़ा वगैरह की नज़ीरें कम हैं. जबकि अपना देश ही नहीं, दुनिया के बड़े-बड़े देशों की सेनाओं के लिए रक्षा बजट ही सबसे ज़्यादा रकम का होता है. देश की सुरक्षा या राष्ट्र की सुरक्षा ऐसा संवेदनशील मसला बताया जाता है कि इस मामले में ज़्यादा खर्च या भ्रष्टाचार की बातें ही नहीं उठ पातीं. सरकारी खर्च के लिहाज़ से रक्षा मंत्रालय बड़ा अहम होता है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगता है कि जब अपने पूर्व रक्षामंत्री बीमार हुए थे, तो उनका कार्यभार बाकायदा वित्तमंत्री को सौंपा गया था. वैसे तो आजकल वैश्विक व्यापार में इतनी तंगी है कि छोटे-छोटे सौदों के करार के लिए बड़े-बड़े देशों के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति खुद करार करने जाने लगे हैं. राफेल का ही मामला लें, तो क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि राफेल खरीद कांड में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति तक महत्वपूर्ण हो उठे.

 
अपराधशास्त्रीय नज़रिये से किस किस्म के अपराध का मामला...?

जहां किसी मंत्री या अफसर तो क्या, बल्कि सरकार के मुखिया पर ही आरोप लगाए जा रहे हों, और भ्रष्टाचार के आरोप भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि विपक्ष के नेता की तरफ से लगाए गए हों, जिस कांड में बीसियों हज़ार करोड़ की सरकारी रकम शामिल हो, जिस मामले से किसी देश के बड़े उद्योगपति और दुनिया में लड़ाकू विमान बनाने वाली कंपनी का संबंध हो, तो उसके बारे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह उच्च आर्थिक और उच्च राजनीतिक वर्ग से संबधित मामला है. भ्रष्टाचार के आरोप के ऐसे अपराधों के लिए अपराधशास्त्र के अध्ययन में पारिभाषिक शब्द उपलब्ध है 'सफेदपोश अपराध'.

 
सफेदपोश अपराधों की खासियत...

कोई 40 साल पहले जब सफेदपोश अपराध के बारे में अपराधशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता था, तो इस किस्म के अपराध की परिभाषा में यह भी जोड़ा जाता था कि वह अपराध, जो पकड़ा न जा सके. अपराधशास्त्र के विज्ञानियों की यह धारणा थी कि कानून का पालन कराने की कोई परमावस्था नहीं होती. कानून पालन कराने वाली एंजेंसियों की अपनी सीमाएं होती हैं. '70 के दशक में ही एक सिद्धांत अपराधशास्त्रियों को समझ में आया था, जिसका नाम था 'लेबलिंग थ्योरी'. इस सिद्धांत के तहत अपराधी की एक परिभाषा यह बनाई गई थी कि अपराधी वह व्यक्ति है, जिसकी पीठ पर अपराधी होने की चिपकी चिपकाई जा सके. तभी अपराधशास्त्रीय विमर्श में माना गया कि उच्च आर्थिक और उच्च राजनीतिक, उच्च सामाजिक, उच्च धार्मिक हैसियत वाले लोगों पर अपराधी होने की चिपकी लगाना बहुत कठिन होता है.

 अब यह अलग बात है कि पिछले 40 सालों में व्यावहारिक राजनीतिशास्त्र और आपराधिक न्याय प्रणाली खासतौर पर अपराधशास्त्रीय अध्ययनों में इतनी बारीकियां आ गई हैं कि सफेदपोश अपराध की पुरानी संकल्पना ही बदल गई. लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि दुनिया में बड़ी से बड़ी हैसियत रखने वाला भी नहीं सोच सकता कि उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है. इसीलिए आज किसी भी देश की न्याय प्रणाली या वहां की लोकतांत्रिक प्रणाली को कमज़ोर समझने या कहने की हिम्मत कोई भी नहीं कर पा रहा है. इसीलिए राफेल जैसे भारी-भरकम मामले भी आपराधिक न्याय प्रणाली से गुज़रते दिख रहे हैं. इसे दुनिया में आपराधिक न्याय प्रणालियों के विकास का ही एक रूप माना जाना चाहिए.

 
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

 
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