अचानक ऐसा क्या हुआ कि देश के एक-दो नहीं, 10 से भी ज़्यादा प्रदेशों में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या बढ़ती जा रही है और उन पर लदे कर्ज़ को खत्म करने की मांग ज़ोर पकड़ती जा रही है. आजकल की सरकारों का तो अपना स्वभाव है कि वे किसी मुद्दे के अपने आप मर जाने का इंतज़ार करती हैं, लेकिन किसानों का यह मुद्दा ज़्यादा खिंच रहा है. लिहाज़ा इस मसले पर कुछ नए सवाल बनते हैं. मसलन, किसानों की समस्या क्या वाकई इतनी बड़ी हो गई है...? किसानों की उपेक्षा क्या वाकई बर्दाश्त के बाहर हो गई...? या फिर देश की पतली होती जा रही माली हालत का असर अब किसान या गांव तक पहुंच गया है...? और एक सवाल यह कि किसान आंदोलन के सामने चुनौतियां क्या हैं...?
कितनी बड़ी है किसानों की समस्या...?
इतने बड़े देश में समस्याओं का आना-जाना स्वाभाविक है. महंगाई हो भ्रष्टाचार, या आर्थिक मंदी हो, ऐसी लगभग हर समस्या के दायरे में किसी देश के अधिसंख्य लोग नहीं आते. अधिसंख्य का मतलब गांव में रहने वाली देश की आधी से ज़्यादा आबादी. अभी हाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के दौरान देश के 130 करोड़ लोगों के उठ-बैठने का दावा किया गया था, लेकिन बाद में पता चला कि उस आंदोलन में सिर्फ आंदोलनकारी नेता ही उठ-बैठे हैं. सो, उनका अपना काम निकलने के बाद आंदोलन भी बैठ गया. लेकिन किसानों का यह आंदोलन वाकई देश की आधी से ज़्यादा आबादी की पतली होती जा रही माली हालत से जुड़ा है. किसानों की आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि समस्या की तीव्रता इतनी ज़्यादा है कि किसानों को अब ज़िन्दा रहते नहीं बन रहा है.
आत्महत्याओं के अलावा और क्या कर रहे हैं वे...?
घटनाओं-दुर्घटनाओं का आगा-पीछा बताने का कार्य करने वालों का एक काम यह भी है कि वे अगल-बगल की बातें भी बताते चलें. किसान आंदोलन के नवीनतम और नवोन्मेषी उपाय में एक यह है कि योग दिवस पर किसान अपनी मरणासन्न अवस्था को सामूहिक शवासन का आयोजन करके प्रदर्शित करें. यहां सवाल यह है कि किसानों को अपनी व्यथा बताने के लिए क्या अभी भी जागरूकता अभियान चलाने की ज़रूरत पड़ रही है. या यह हर मौके पर अपनी बात कहने का यह एक मौका भर है. कुछ भी हो, योग दिवस पर लखनऊ में सामूहिक शवासन का आयोजन यह तो साबित कर ही रहा है, किसान आंदोलन को अपनी निरंतरता बनाए रखने के लिए कुछ ज़्यादा ही मशक्कत करनी पड़ रही है.
सबसे ज़्यादा सहनशील तबके पर यह आफत...
यह स्वयंसिद्ध है कि किसान की राजनीतिक भागीदारी कभी नहीं बढ़ पाई. देश के मुख्य आर्थिक केंद्रों, यानी उद्योग और व्यापार केंद्रों से दूर, यानी गांवों में बसने के कारण किसान के पास राजनीतिक भागीदारी का मौका ही नहीं था. अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण किसान बाध्य है कि वह राजनीतिक दलों के नारों-वायदो पर यकीन करने को ही अपनी भागीदारी मानकर चले. कुल मिलाकर अपने गुज़ारे लायक किसानी करके ही वह संतुष्ट बना रहा. लेकिन अब गुज़ारे लायक किसानी करने में भी अड़चन आने के बाद उसके पास चारा ही क्या है...?
उसके यकीन करने पर कोई शक...
घाटे का सौदा जैसी किसानी करने वालों ने इस नारे पर यकीन किया था कि उस पर लदे कर्ज़ माफ किए जाएंगे. उसने इस बात पर यकीन किया था कि कृषि उत्पादन पर आने वाली लागत में उसका मेहनताना जोड़कर उसे न्यूनतम 50 फीसदी लाभ दिलाने का प्रबंध किया जाएगा. उसे सिंचाई की सुविधाएं, यानी पानी-बिजली बढ़ाने का यकीन दिलाया गया था. लेकिन ये तीनों उम्मीदें उसे छूटती दिख रही हैं. ऐसे में वह कुछ न कुछ तो करेगा ही़, चाहे अपनी जान देने को मज़बूर हो जाए, चाहे सड़क पर उतरकर चक्का जाम करने की कोशिश करने लगे. किसानों की मजबूरियों के ये दोनों रूप प्रत्यक्ष हैं.
किसान आंदोलन का आगा-पीछा...
ऐसे आंदोलन का पीछा महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में हुआ आंदोलन था, लेकिन अफसोस कि उस आंदोलन की कोई समीक्षा न तब हुई और सबक के तौर न आज इसकी कोई चर्चा होती है. कहते हैं कि '80 के दशक में हुए उस आंदोलन ने उस वक्त की सरकार के हाथ-पैर फुला दिए थे. अपने लोकतांत्रिक देश में पहली बार यह संदेश दिया गया था कि देश के दूरदराज इलाकों में बसे किसान हाशिये पर नहीं हैं. वह पुराने ज़माने की सरकारें थीं कि उनके हाथ-पैर तो फूलते थे. नए मिजाज़ की सरकारें इतनी ताकतवर होने लगी हैं कि उन्हें हिलाना-डुलाना ही मुश्किल हो चला है. विद्वानों का मानना है कि परेशान होना या दिखना हमेशा खराब नहीं होता. भले ही चिंतित न दिखें, लेकिन चिंताशील होना ज़रूरी माना जाता है.
आंदोलनों का आधुनिक रूप और पैसा...
आंदोलन को आज महंगे प्रबंधन की मांग है. पिछले तीन दशकों में हुए तमाम सफल और विफल आंदोलनों में प्रबंधन खर्च का आकार बताता है कि बगैर आर्थिक सहारे के कोई आंदोलन पनपाने की बात सोचना खामख्याली है. किसान वह तबका नहीं है कि अपने खर्चे से दिल्ली या प्रदेश की राजधानी में एक-दो रोज़ के लिए भी धरना-प्रदर्शन के लिए जमा हो सके. किसान और धनवान उद्योग जगत में तो रिश्ता घोड़े और घास के संबंधों जैसा दिखता है. सो, उद्योग-व्यापार वाला जगत किसान आंदोलन के प्रबंधन के लिए खर्चा क्यों करने लगा. जहां तक किसानों के अपने चंदे से आंदोलन चलाने की सलाह का सवाल है, तो जहां किसान मुफलिसी के मारे फांसी पर लटकने को मजबूर हों, वहां उनके अपने बूते आंदोलन खड़ा करने की बात सोचना ही फिज़ूल है.
राजनीतिक मदद के अलावा चारा क्या है...?
जिस देश में सबसे कम संगठन किसानों के ही हों और जो थोड़े-से हों भी, तो वे एक प्रदेश के किसी एक अंचल विशेष के एक जिला मुख्यालय तक सीमित दिखते हों, ऐसे में देश के स्तर पर किसी किसान आंदोलन की सफलता की कितनी उम्मीद लगाई जा सकती है. ज़ाहिर है, ऐसे आंदोलनों को आखिरकार राजनीतिक दलों के किसान प्रकोष्ठों की शरण में जाने से कौन रोक सकता है. मजबूरी की हालत में हर्ज इन राजनीतिक प्रकोष्ठों की शरण में जाने में भी नहीं होना चाहिए, लेकिन वहां समस्या यह है कि ऐसे वाजिब आंदोलनों को भी फुस्स करने वालों को यह कुप्रचार करने का मौका मिल जाता है कि यह सत्याग्रही आंदोलन नहीं, राजनीतिक कुचक्र है. ज़ाहिर है, देश के सबसे बड़े तबके, यानी किसानों के असंगठित रूप के कारण कम से कम सत्याग्रही आंदोलन के बहुत आगे तक जाने के रास्ते में कई अड़चने हैं. ले-देकर गुंजाइश राजनीतिक सहयोग या मदद लेने की ही बचती है.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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