कड़े कानून को मुलायम बनाने के मायने...

एक प्रकार से मान लिया गया है कि कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है. क्या शराब कानून का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए अलग से एक और कड़ा कानून नहीं बन सकता...?

कड़े कानून को मुलायम बनाने के मायने...

फाइल फोटो

बिहार में शराब कानून को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, हालांकि बहुत संभलकर. यह कहते हुए कि कानून जरा ज़्यादा कड़ा बन गया था और अब इसे हल्का करेंगे. एक नुक्ता यह भी निकाला गया है कि इस कानून के दुरुपयोग की गुंजाइश कम की जाएगी. एक प्रकार से मान लिया गया है कि कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है. क्या शराब कानून का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए अलग से एक और कड़ा कानून नहीं बन सकता...? बहरहाल, बिहार सरकार ने बड़े शौक से इस कानून का डंका बजाया था. लेकिन दो साल बाद ही वह अब यह कह रही है कि जनता के फीडबैक के बाद इसमें कुछ बदलाव समझ में आ रहे हैं. सो, इस बार विधानसभा के मॉनसून सत्र में यह काम शुरू किया जाएगा. यानी, सवाल यह बना कि क्या कानून बनाते समय ये बातें नहीं सोची गई थीं...? क्या वह कोई नया काम था...? और यह भी कि क्या दूसरे प्रदेशों के अनुभव या फीडबैक उपलब्ध नहीं थे...?

क्यों पड़ रही है संशोधन की ज़रूरत...?
जितना अभी तक बताया गया, उससे यही लगता है कि इस कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है. सरकार को ऐसा इस आधार पर लगा है कि दो साल के भीतर ही पुलिस और आबकारी विभाग ने छह लाख से ज़्यादा छापेमारियां कीं और सवा लाख लोग पकड़े. कोई 28 लाख लिटर देश में बनी विदेशी और देसी शराब पकड़ी गई. वैसे तो सरकार यह भी दावा कर सकती है कि देखिए, कितनी सख्ती से कानून लागू कर रहे हैं. लेकिन इस दावे से ज़्यादा सनसनीखेज़ तथ्य यह सामने आया है कि यह कड़ा कानून डर पैदा नहीं कर पाया. बल्कि पुलिस और आबकारी कर्मचारियों की चौतरफा मुस्तैदी को देखते हुए उन कर्मचारियों पर निगरानी की समस्या और खड़ी हो रही है. यह भी पता चल रहा है कि शराब की लत इतनी ज़्यादा पड़ी हुई है कि वह कड़े कानून पर भारी पड़ रही है. इतनी ज़्यादा भारी कि गली-गली में कानून के उल्लंघन का अंदेशा खड़ा हो गया. बिहार ही क्या, यह तो किसी भी सरकार को बिल्कुल पसंद नहीं आ सकता कि प्रदेश की छवि अराजक बन जाए.

क्या बदला इस कानून से...?
मकसद था, शराब के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाना, लेकिन सूरत उतनी नहीं बदली. पहले सरकारी टैक्स चुकाकर शराब खरीदी जाती थी. बाद में यह बदला कि बिना टैक्स के, यानी चोरी से शराब बिकने लगी. हो सकता है, पहले भी टैक्स की चोरी होती हो और ज़्यादातर शराब टैक्स की चोरी करके ही बिकती हो, लेकिन फिर भी काफी कुछ टैक्स सरकारी खजाने में आ जाता था. लेकिन शराबबंदी के बाद यह राजस्व समाप्त हो गया. बेशक, मद्यपान की समस्या के मुकाबले राजस्व का घाटा कोई बड़ा घाटा नहीं था, लेकिन छापेमारियों और कानून तोड़ने वालों की भारी-भरकम संख्या बता रही है कि राजस्व का घाटा भी हो गया और शराब की बिक्री भी नहीं रुकी. कोई शोध सर्वेक्षण तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि खराब शराब के उत्पादन का खतरा कितना बढ़ता जा रहा होगा. यानी, इस कानून से जो नज़ारा बदला, वह पहले से ज़्यादा भयावह अंदेशा पैदा कर रहा है.

छापेमारियों की संख्या का पहलू...
अपराध के आंकड़ों में दिलचस्पी रखने वाले लोग जानते हैं कि दुनिया में वास्तव में जितने अपराध होते हैं, उनके दर्ज होने की संख्या बहुत ही कम रहती है. खासतौर पर चोरी, जेबकतरी, झपटमारी, टैक्स चोरी, अवैध व्यापार, जैसे अपराधों की रिपोर्ट लिखाने या लिखने का चलन बहुत कम है. एक मोटा अनुमान है कि 100 अपराधों में सिर्फ तीन अपराध ही आपराधिक न्याय प्रणाली से गुजरते हैं. इस लिहाज़ से देखें तो बिहार में छह लाख से ज़्यादा छापेमारियां और एक लाख से ज़्यादा लोगों की गिरफ्तारियों से कानून उल्लंघन की वास्तविक तीव्रता का पता चल रहा है. वैसे बिहार की आपराधिक न्याय प्रणाली अपनी पीठ ठोक सकती थी कि देखिए, हम कितने मुस्तैद हैं, लेकिन इस मुस्तैदी के और क्या-क्या मायने निकल रहे हैं, इसे सरकार भी समझ रही है. वरना इस समय बिहार सरकार कानून में संशोधन की बजाय छापेमारियों और गिरफ्तारियों के आंकड़ों के झंडे गाड़ रही होती.

मसला कानून का उतना है नहीं...
मामला समाज में शराब की बढ़ती लत का है. इस लत के उपचार के तरीके भी ईजाद हो गए हैं, लेकिन सब महंगे हैं. उधर, व्यसन का अपना भरा-पूरा अर्थशास्त्र भी है. शराब, मादक पदार्थ, जुए, सट्टे के व्यसन या लत पर अपराधशास्त्रीय अध्ययन न के बराबर हैं. इसका अर्थशास्त्र तो देशों या प्रदेशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में काम आ रहा है. लिहाज़ा, इस भयावह समस्या के मनो-आपराधिक या मनो-सामाजिक पहलू पर सोचने से पहले ही यह मुद्दा घाटे का और निर्रथक जान पड़ने लगता है. लेकिन यह भी तय मानना चाहिए कि व्यसन एक सामाजिक विघटन का भी रूप है. समाजशास्त्री बताते रहते हैं कि वैयक्तिक और पारिवारिक विघटन के रूप में व्यसन की समस्या तेजी से अपने चरम पर पहुंच रही है. कहीं ऐसा न हो कि अर्थव्यवस्था, यानी व्यसन के क्षेत्र में काम-धंधे, व्यापार-रोज़गार के चक्कर में हमारा सब कुछ ही दांव पर लग जाए. अभी ज़्यादा पता नहीं है कि बिहार विधानसभा में इस कानून में बदलाव के बाद क्या सूरत बनेगी...? अभी यह भी नहीं पता कि इसके राजनीतिक नफ़ा-नुकसान क्या बैठेगा, लेकिन इतना पता ज़रूर चल गया है कि ऐसे मामलों में कानूनी उपायों से ज़्यादा उम्मीद लगाना फिज़ूल ही है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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