ढूंढने निकले मॉब लिंचिंग का कानूनी उपाय...

अपने अच्छे-भले कानून-विधान की जितनी हैसियत है, उसके हिसाब से भीड़ की हिंसा को काबू करने के कई उपाय सरकारों के पास होते हैं, लेकिन लिंचिंग के मामले में इनमें से कुछ ही उपाय सरकार ने अपनाए हैं...

ढूंढने निकले मॉब लिंचिंग का कानूनी उपाय...

राजस्थान के अलवर में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या किए जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है...

सरकार को यही करने लायक लगा है. लिंचिंग, यानी 'स्वयंभू पुलिस' या 'स्वयंभू न्यायालयों' द्वारा मौत की सज़ा देने के बढ़ते मामले सरकार के गले पड़त जा रहे हैं. सरकार ही क्या, खुद सुप्रीम कोर्ट को हफ्ताभर पहले लिंचिंग, यानी भीड़ द्वारा लोगों को मौत के घाट उतारने की बढ़ती वारदात पर चिंता जतानी पड़ी थी, और अदालत ने इससे निपटने के लिए बाकायदा दिशा-निर्देश जारी किए थे. अदालत ने सरकार से कहा था कि फौरन ही नया कानून लाने या पुराने कानून में संशोधन करने के बारे में सोचें. सुप्रीम कोर्ट के उसी सुझाव के बाद सरकार ने अब अपनी तरफ से सचिव-स्तरीय कमेटी बनाने का ऐलान किया है. सरकार चाह रही है कि यह कमेटी भीड़ की हिंसा को दंडनीय अपराध के तौर पर परिभाषित करने के लिए कानून में संशोधन सुझाएगी. सवाल स्वाभाविक है कि क्या अभी हमारे कानून में भीड़ के हाथों मारे जाने या प्रताड़ित होने वाले अपराधों की परिभाषा नहीं है. क्या इस बारे में स्पष्ट कानून नहीं है या कारगर कानून नहीं है, या कानून कारगर नहीं है...? और इसके बाद यह सवाल भी उतना ही स्वाभाविक है कि क्या गंभीर अपराध वाकई कानून से रुकते हैं...?

भीड़ की हिंसा रोकने के लिए कानून...
दुनिया में विधिवत आपराधिक न्याय प्रणाली का इतिहास 250 साल का होने जा रहा है. शायद ही कोई ऐसा अपराधी व्यवहार बचा हो, जिसे रोकने के लिए कानून न बन चुके हों. और खासतौर पर वैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो सब कुछ है ही विधान. भले ही हमारा वैधानिक लोकतंत्र सिर्फ सात दशक पुराना है, लेकिन अपना संविधान और कानूनी संहिताएं आखिर दुनियाभर की तमाम संहिताओं और संविधानों को अच्छी तरह जान-समझ लेने के बाद बनी थीं. सो, यह मानकर चलना सही नहीं है कि भीड़ के हाथों मार डालने वाले अपराधों के बारे में हमें पता ही नहीं था, सो, हमें इस बारे में कानून बनाकर रखने की ज़रूरत नहीं पड़ी. गौरतलब है कि लिंचिंग जैसे अपराधों की पहचान दुनिया में 150 साल पहले हो चुकी थी.

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इस मौके पर दर्ज़ कराने के लिए यह ज़रूरी-सी बात है कि लिंचिंग शब्द ही 'लिंच के कानून' (Lynch Law) से बना है. लिंच, यानी वह स्वयंभू व्यक्ति, जिसने स्वीकृत न्याय व्यवस्था से इतर अपना कानून बना दिया और आपराधिक न्याय प्रणाली के सामने मुसीबत खड़ी कर दी. कोई 240 साल पहले लिंच के उसी स्वयंभू कानून के नाम से आज हम उसे लिंचिंग अपराध के नाम से जानते हैं. इस समय इसे दर्ज कराना इस काम आएगा कि लिंचिंग को अपराध के तौर पर परिभाषित करते समय उसे कानून एवं व्यवस्था के खिलाफ सबसे बड़ा अपराध घोषित किया जा सकता है. अब चाहे उस अपराध को तीन लोगों की भीड़ करे या हज़ारों की भीड़ करे. यह दीगर बात है कि समाज मनोविज्ञान के लिहाज़ से भीड़ आमतौर पर खुद ही लिंचिंग नहीं करती है, बल्कि उस भीड़ का एक छोटा-सा हिस्सा ही वैसा करने के लिए पीछे से प्रेरित करता है.

लिंचिंग का अपराधशास्त्र...
लिंचिग के बारे में ज्यूरिस प्रूडेंस, यानी न्यायशास्त्र में पहले से ही काफी कुछ लिखा-पढ़ा रखा हुआ है. न्यायशास्त्र को आजकल हम विधि या कानून का ही विषय मानते हैं, लेकिन इस समय दुनिया में ज्ञान की एक विशिष्ट शाखा अपराधशास्त्र भी है. अपराधशास्त्र वह स्वतंत्र और परिपूर्ण विषय है, जो अपराध के कारणों से लेकर अपराधी को पकड़ने के तरीकों और उन अपराधियों के उपचार करने तक का अध्ययन करता है. अपराध निरोध भी उसका विषय है. जब अपराध की समस्या के वैज्ञानिक समाधान तलाशे जाते हैं, तो उसके कारणों को जानना ही पड़ता है. वह अपराधशास्त्र ही है, जो अपराध के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक और वैधानिक पहलुओं को एक साथ देखता है. अगर सरकार वाकई लिंचिंग जैसे अपराध की समस्या का समाधान ढूंढने का इरादा रखती है, तो उसे लगे हाथ भारतीय परिप्रेक्ष्य में लिंचिंग का अपराधशास्त्रीय अध्ययन करवाने की बात सोचनी चाहिए. मौजूदा भारतीय परिस्थितियों में लिंचिंग का अपराधशास्त्रीय अध्ययन इस बारे में कानून बनाने या संशोधन करने की कवायद में भी ज़रूर काम आएगा.

कानून के ज़रिये कितनी है उम्मीद...?
अपराध की रोकथाम में कानून की भूमिका निर्विवाद है, लेकिन किसी कारगर कानून बनाने से लेकर उसका पालन कराने में जटिलताएं भी हैं. खासतौर पर 'वाइट कॉलर क्राइम' के मामले में. खैर, अपराधशास्त्रीय नज़रिये से देखें, तो अपराधी को दंड देने के मकसद तय हैं. न्याय प्रकिया द्वारा किसी आरोपी के अपराधी सिद्ध होने के बाद उसे सज़ा देने का पहला मकसद उससे बदला लेना, यानी प्रतिशोध है. दूसरा मकसद सज़ा देकर उसे आगे अपराध करने से रोकना, यानी प्रतिरोध है. साथ ही अपराधी को सज़ा देकर दूसरे नागरिकों में सज़ा का भय पैदा करना है. वैसे तीन और मकसद भी होते हैं. इस बारे में एक विशेषज्ञ आलेख इसी स्तंभ में लिखा जा चुका है - निर्भया कांड के सज़ायाफ्ता नाबालिग की रिहाई से समाज में बेचैनी

लिंच के चेहरे का पहलू...
लिंचिंग की मौजूदा समस्या में नई प्रवृत्ति यह है कि लिंचिंग करने वाली भीड़ या समूह के पक्ष में एक विशिष्ट वर्ग उपस्थित है. यानी इस मामले में भीड़ का एक चेहरा भी सामने है. उसे लगता है कि वह जिसे आरोपी मानकर चल रहा है, उसे सज़ा देने का न्यायिक प्रणाली से इतर हक उसे हासिल है. यानी जहां यह भीड़ पहले से बने कानून या नया कानून बनने के पहले ही उसे न मानने का ऐलान कर रही है, तो वैसे किसी भी कानून के बन पाने या उसके कारगर होने की अड़चनों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, इसीलिए अपराधशास्त्र कानून की अपनी एक सीमा को अच्छी तरह समझता है - भ्रष्टाचार में भारत की स्थिति जस की तस : क्यों नहीं हुआ सुधार...? खासतौर पर अपराधशास्त्री अब्राहम सेन ने अपराधी व्यवहार की जो गणितीय व्याख्या की है, उसे लिंचिंग कानून के लिए बनाई जा रही कमेटी को अपनी नज़रों से गुज़ार लेना चाहिए.

वैसे विकट चुनौती राजनीति विज्ञान के सामने भी है...
लिंचिंग तो राजव्यवस्था की जड़-मूल को ही उखाड़े दे रही है. खासतौर पर लिंच का स्वयंभू कानून अगर वैधानिक लोकतंत्र को नकार रहा है, तो किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी चिंता और क्या होनी चाहिए...? अरस्तु जैसे विद्वान लिख गए हैं कि वैधानिकता के अभाव में पॉलिटी विकृत होकर घातक भीड़तंत्र बन जाएगी. इसीलिए वह वैधानिकता के अभाव वाली लोकतांत्रिक राजव्यवस्था को पॉलिटी का विकृत रूप समझते थे. इस बात को ढाई साल पहले इसी स्तंभ में एक विशेषज्ञ आलेख में लिखा गया था - अब देशभक्ति के नए रूप, और उसके प्रकारों को भी देखना-समझना पड़ेगा...

बहरहाल, भारत में लिंचिंग की बढ़ती समस्या पर हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जब गौर किया, तो सरकार को तत्काल कुछ दिशानिर्देश दिए और लगे हाथ नए कानूनी उपाय करने की हिदायत भी दी. इसके अलावा इस मसले पर हमारे विद्वानों की तरफ से सोचने-विचारने और सरकार से कहने की बात यह है कि पहले से बने कानूनों में एक और कानून जोड़ने या पुराने कानून में संशोधन या उसे कड़ा बनाने के अलावा लिंचिंग के कारणों या कारकों को समझने की कवायद भी शुरू करवा देनी चाहिए. लिंचिंग पर सोच-विचार की यह कवायद अपने वैधानिक लोकतंत्र के सामने खड़ी हो चली कई और समस्याओं की तरफ भी ध्यान ले जाएगी. इसी सोच-विचार के दौरान भारतीय विश्वविद्यालयों के राजनीति विज्ञान विभागों में विश्वस्तरीय ज्ञान का जो विकास होगा, वह अलग से एक उपलब्धि होगी.

कानून के लिए कमेटी का रूप...
किसी भी सरकार के लिए इससे ज़्यादा आसान और सुरक्षित तरीका और क्या हो सकता था, सो, नया कानून बनाने या पुराने में संशोधन का सुझाव देने के लिए सरकार ने सचिव-स्तरीय समिति बनाने का ऐलान करने का काम किया है. कई सरकारी विभागों के सचिवों वाली यह समिति जो सुझाव देगी, उस पर सरकार के मंत्रियों का एक निश्चित और निर्धारित समूह ही विचार करेगा. इस तरह का ऐलान कर सरकार ने अपने उपर आई ज़िम्मेदारी का निर्वाह बड़ी आसानी से कर लिया है, लेकिन इतने भर से जनमानस में लिंचिंग से पनपी गंभीर चिंताएं कम नहीं हो जाएंगी.

अपने अच्छे-भले कानून-विधान की जितनी हैसियत है, उसके हिसाब से भीड़ की हिंसा को काबू करने के कई उपाय सरकारों के पास होते हैं, लेकिन लिंचिंग के मामले में इनमें से कुछ ही उपाय सरकार ने अपनाए हैं, मसलन, राज्यों से रिपोर्ट मांग ली है. अब यह पता नहीं है कि भीड़ की हिंसा से संबंधित राज्य जो रिपोर्ट देंगे, उस पर केंद्र सरकार कार्रवाई क्या कर सकती है, या क्या कार्रवाई करना चाहेगी...? हालांकि इस बात में भी शक नहीं कि लिंचिंग ने देश और दुनिया में अपनी केंद्र सरकार और संबधित राज्य सरकारों की छवि मटियामेट कर दी है. लिहाज़ा, मौजूदा सरकार यह ज़रूर चाहेगी कि लिंचिंग की वारदात हाल-फिलहाल रुक जाएं, और फिर सरकार आखिर सरकार होती है, वह जो चाहेगी, वैसा होगा कैसे नहीं.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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