अब तक कहां छिपे बैठे हैं चुनावी मुद्दे

अनुमान यह लगता है कि इस बार के चुनाव में किसानों और देश के युवावर्ग के दुख या संकट को कम करने के लिए व्यावहारिक योजना पेश करने की होड़ मचेगी.

अब तक कहां छिपे बैठे हैं चुनावी मुद्दे

अब तक पता नहीं कि इस बार चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या बनेगा. इसके पहले के 16 लोकसभा चुनावों का अनुभव हमारे पास है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि चुनाव का ऐलान होने के बाद भी पता न चल पा रहा हो कि चुनाव किन मुख्य मुद्दों पर होगा, वरना चुनाव के छह महीने पहले ही इसका पता चल जाता था. लेकिन इस बार कोई अटकल लगाते हैं तो दो-चार हफ्ते में चुनावी मुद्दा खिसक लेता है. छह महीने पहले लगता था कि इस बार किसानों की बदहाली और बेरोज़गारी सबसे बड़ा मुद्दा होगा, लेकिन ये दोनों ही बातें सत्तापक्ष के लिए माकूल नहीं थीं, इसलिए उसकी बजाय देश में स्थायी भाव वाले भावनात्मक मुद्दे बनाने की हरचंद कोशिश हुई. लेकिन पुराने पड़ने के कारण वे भावनात्मक मुद्दे भी ठहर नहीं पाए. हाल ही में आतंकवाद और हिन्दू-मुसलमान बनाने की कोशिश हुई. लेकिन घटनाक्रम ऐसा रहा कि चुनावी मुद्दा बनाने के लिए आतंकवाद पर फौरी चोट का काम सध नहीं पाया. हाल ही में मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने में कूटनीतिक नाकामी ने आतंकवाद के चुनावी मुद्दा बनने के आसार खत्म कर दिए. उसके भी पहले विकास की बात चलाने की भी कोशिश हुई. लेकिन भयावह बेरोज़गारी की खबरों के बीच विकास की बात चलाना भी जोखिम भरा काम था. हालांकि यह भी एक हकीकत है कि बेरोज़गारी का मुद्दा उतना दब नहीं पाया. इसलिए भी नहीं दब पाया, क्योंकि यह राजनीतिक दलों का नहीं, बल्कि जनता का मुद्दा है. उधर किसान आंदोलनों और विपक्ष ने किसान की बदहाली की बातों को भी नहीं मरने दिया. लेकिन किसी मुद्दे को मरने न देना और उसे मुख्य मुददा बना देने में धरती-आसमान का फर्क है.

बहरहाल, चुनाव में एक महीने से कम का समय बचा रहने के बावजूद हमें यह नहीं पता चल रहा है कि इस बार चुनाव प्रचार के दौरान मुख्य मुद्दा क्या होगा. अब तो अटकल लगाने का भी वक्त नहीं बचा. फिर भी यह हकीकत है कि कोई भी चुनाव मुद्दाविहीन नहीं हो सकता. दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में कभी भी ऐसा नहीं हुआ. भले ही फिज़ूल के मुददे पर चुनाव हो जाते हों, या ऐसे मुददों को खड़ा कर लिया जाता हो, जिन्हें मनोवैज्ञानिक आधार पर सार्वकालिक और सार्वभौमिक माना जाता है. मसलन धर्म और नस्ल की अस्मिता एक शाश्वत मुद्दा होता ही है. आजकल इसी आधार पर राष्ट्र और देश का अहम् भी पूरी दुनिया में चुनावी मुद्दा बनने लगा है. युद्धों के लंबे इतिहास में मेरा धर्म, मेरा गांव, मेरा देश एक शाश्वत भाव बनाया जा चुका है. लेकिन दुनियाभर में इसका राजनीतिक इस्तेमाल पिछले कई दशकों में इतना ज्यादा कर लिया गया कि इस मुद्दे का उतना असर हो नहीं पाता. युद्ध और आतंकवाद उसी प्रजाति का एक मुददा है. सनसनीखेज भी है. लेकिन राजनीतिक तौर पर आतंकवाद का कोई निरापद समाधान अब तक ढूंढा नहीं जा सका. लिहाज़ा चुनावी मुद्दा बनने की पात्रता इसमें नहीं दिखती. हो सकता है, इसीलिए रोटी कपड़ा और मकान जैसा कालजयी मुददा आजकल बड़े से बड़े विकसित देशों में भी बेदखल हो नहीं पाता.

'रोटी, कपड़ा और मकान' का नया रूप...

हालात देखें तो हमें गरीबी से आज भी पूरी तौर पर छुटकारा मिल नहीं पाया. सत्तर साल में भले ही हालात सुधरे हों,लेकिन सबके लिए खाद्य सुरक्षा और सबके लिए मकान अभी बहुत दूर की बात है. वैसे भी हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई बन गई है. बिल्कुल नई प्रवृत्ति देखें तो दुनिया के अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में समावेशी विकास सबसे बड़ी चुनौती है. खासतौर पर तब, जब हम आज भी कृषिप्रधान देश बने हुए हों और देश की आधी से ज्यादा आबादी, यानी किसान ऐतिहासिक रूप से सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा हो. ऐसे में कोई भी यह अटकल लगा सकता है कि इस चुनाव में मुद्दे के तौर पर किसान को बेदखल कोई भी नहीं कर सकता.

बेरोज़गारी की अनदेखी नहीं हो सकती...

चुनावी राजनीति में युवावर्ग को सबसे बड़ा हिस्सेदार माना जाता है. खासतौर पर चुनाव में उसकी ऊर्जा और समय सबसे बड़ी भूमिका निभाता है. हम तो दुनिया में इस समय युवाओं की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश हैं. हमारे यहां की आबादी में इस समय 65 फीसदी युवा हैं. सारे के सारे वोटर भी हैं. अचानक बढ़ी बेरोज़गारी के कारण इस वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा दहशत की हद तक परेशान है. ऐसे में कैसे संभव है कि बेरोज़गारी इस बार के चुनाव में मुद्दा न बने. भले ही सत्ताधारी के लिए चुनाव के दौरान यह मुद्दा घातक हो. इसे चुनावी मुद्दा बनने से कैसे रोका जा सकेगा, यह अभी पता नहीं है.

बचा सपने दिखाने का मामला...

बेशक सपनों में मुद्दे बनने की जबर्दस्त क्षमता होती है. खासतौर पर चुनावी नारों में. लेकिन हाल के दौर में इसका इस्तेमाल इतना खींचा गया कि इसकी जान सी निकल गई है. कम से कम इस बार के चुनाव में तो सपने नहीं चल सकते. हालांकि राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में सपने छापना सबसे आसान काम होता है. फिर भी पहले और आज में एक फर्क आया है. यह कि आज की दुनिया में जागरूकता बढ़ी है. पूरी दुनिया में बड़ी तेजी से साक्षरता बढ़ गई है, इसीलिए हाल ही में कुछ विकसित देशों में सपना दिखाऊ प्रौद्योगिकी बुरी तरह फेल होती दिखनी शुरू हो गई है. विश्व का नया नागरिक यह समझने लगा है कि उसे झूठे सपने दिखाए जा रहे हैं या कोई निष्ठा के साथ व्यावहारिक वादा कर रहा है. इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इस बार के चुनावी घोषणापत्रों में नयापन होगा. हर समझदार राजनीतिक दल बड़े सपने दिखाने से बचेगा. लिहाज़ा इस बार के चुनाव में बहुत संभव है कि राजनीतिक दल ठोस से ठोस योजनाओं और वादों को भी दबी जुबान में वोटरों के सामने रखें. सत्तापक्ष को तो यह सावधानी बहुत ही ज्यादा बरतनी पड़ेगी.

इस तरह से अनुमान यह लगता है कि इस बार के चुनाव में किसानों और देश के युवावर्ग के दुख या संकट को कम करने के लिए व्यावहारिक योजना पेश करने की होड़ मचेगी. खासतौर पर मौजूदा सरकार की बेदखली की कोशिश करने वाले विपक्ष के नेताओं में यही होड़ मचेगी कि कौन सबसे ज्यादा विश्वसनीय तरीके से अपनी योजनाएं पेश कर पाता है.

लक्ष्य प्रबंधन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना पड़ेगा...

उद्योग व्यापार जगत में लक्ष्य प्रबंधन प्रौद्योगिकी इस समय बड़े असरदार तरीके से इस्तेमाल हो रही है, जबकि लक्ष्य प्रबंधन प्रौद्योगिकी की ज़रूरत राजनीतिक क्षेत्र में ज्यादा है. अब जब हमारे पास यह प्रौद्योगिकी आ ही गई है तो इस चुनाव में उसका इस्तेमाल करने में हर्ज क्या है. मसलन किसानों और बेरोज़गारों की समस्या दूर करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रबंधन प्रौद्योगिकी के ये पांच नुक्ते चुनावी घोषणाओं में डाले जा सकते हैं. पहला नुक्ता कि योजनाओं और कार्यक्रमों का ढेर न लगाया जाए. यानी एक-दो योजनाओं पर ही जोर हो. दूसरा कि वह लक्ष्य नापतौल के लायक हो. यानी बाद में बताया जा सके कि जितना कहा गया था, वह पूरा हुआ. तीसरी बात कि वह लक्ष्य हासिल होने लायक हो. यानी बाकायदा बताया जा सके, उस काम को पूरा करने के लिए इतने पैसे की जरूरत पड़ेगी और ये पैसे देश के इन इन लोगों से टैक्स के ज़रिये उगाहे जाएंगे. चौथी बात विश्वसनीयता की. यानी वैसा काम अपने देश में या दुनिया में और कहीं पहले कभी हुआ जरूर हो. नए-नए प्रयोगों पर जनता का यकीन खत्म हो चला है. लक्ष्य प्रबंधन का पांचवां नुक्ता समयबद्धता का है. इस बार के घोषणापत्रों में वायदों को पूरा करने का यह हिसाब भी खोलकर दिखाना पड़ेगा कि अगले पांच साल की समयावधि में वायदा इन इन चरणों में पूरा होगा.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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