शेयर बाज़ार को भी मार डाला 'फील गुड' ने

यह ठीक है कि मीडिया जैसा चाहे, वैसा माहौल बना दे. लेकिन देश की माली हालत के मामले में प्रचारतंत्र ज़्यादा देर तक काम कर नहीं पाता.

शेयर बाज़ार को भी मार डाला 'फील गुड' ने

BSE सेंसेक्स गुरुवार को एक ही दिन में 587 अंक नीचे चला गया...

यह ठीक है कि मीडिया जैसा चाहे, वैसा माहौल बना दे. लेकिन देश की माली हालत के मामले में प्रचारतंत्र ज़्यादा देर तक काम कर नहीं पाता. इसका पता चल रहा है शेयर बाज़ार से. गुरुवार को शेयर बाज़ार में भारी तबाही हुई. बाज़ार एक ही दिन में 587 अंक डूब गया. देश की माली हालत को लेकर खुशफहमी पैदा करने वाले कह सकते हैं कि ऐसा तो कई बार हुआ है और आगे सब संभल जाएगा. लेकिन हालात पहले जैसे नहीं हैं. गिरावट का दौर लंबा खिंच गया है. वैसे मामला सिर्फ शेयर बाज़ार का नहीं है, अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में गिरावट को एक साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत है.

क्यों गौरतलब है शेयर बाज़ार की घबराहट...?
इस पर गौर इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इस वक्त देश में सबसे ज़्यादा किल्लत निवेश की है, और शेयर बाज़ार ही बताता है कि निवेशकों का क्या रुख है. इतना ही नहीं, शेयर बाज़ार की कुल पूंजी एक ही दिन में कितने लाख करोड़ कम हो गई, यह हिसाब भी बाद में लगेगा. यह बात भी कम गौरतलब नहीं है कि शेयर बाज़ार में हादसे से कुछ ही पहले विदेशी निवेशकों को छूट का ऐलान किया गया था. खबरें चलाई गई थीं कि गुरुवार को शेयर बाज़ार में रंगत बढ़ जाएगी. हुआ बिल्कुल उल्टा. जहां सूचकांक में तीन-चार सौ अंकों की बढ़त की चर्चाएं की जा रही थीं, वहीं सूचकांक एक दिन में 587 अंक नीचे चला गया. वैसे सूचकांक का इतना डूबना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब वह कई महीनों से लगातार नीचे आ रहा हो और सरकारी कोशिश के बावजूद गुरुवार को और गहरे डूबा हो, तो हालात को एमरजेंसी मानना चाहिए.

हकीकत को अभी भी छिपाना कितना ठीक...?
शेयर बाज़ार देश की माली हालत का एक विश्वसनीय पैमाना है. जिनके पास निवेश के लायक पैसा होता है, वे इधर-उधर की बातों में नहीं उलझते. उनकी नज़र देश की माली हालत और देश के विभिन्न उद्योग-व्यापार के क्षेत्रों पर रहती है. उसी क्षेत्र के शेयरों में पैसा लगाकर वे बैंक के ब्याज़ की तुलना में ज़्यादा मुनाफा चाहते हैं. लेकिन एक छोटा-सा विश्लेषण है कि पिछले साल 28 अगस्त को सूचकांक 38,896 अंक पर था. 10 फीसदी प्रतिवर्ष के सामान्य से मुनाफे के लिहाज़ से आज सूचकांक कम से कम 3,889 अंक बढ़कर 42,785 अंक हो जाना था. लेकिन पिछले एक साल का आलम यह रहा कि बढ़ना तो दूर, बल्कि एक साल पहले के स्तर से भी घटकर आज सूचकांक 36,472 अंक पर आ गया. खासतौर पर साल भर पहले जिन निवेशकों ने माली हालत को लेकर मीडिया की गुलाबी ख़बरों पर भरोसा कर शेयरों में पैसा लगाया था, उन पर क्या गुज़री होगी. और जो दो-चार दिन का निवेश कर मुनाफा चाह रहे थे, उनकी बर्बादी का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है.

वैसे शेयर बाज़ार सिर्फ मीडिया का खेल नहीं है...
कहते ज़रूर हैं कि शेयर बाज़ार धारणाओं या ख़बरों के बनाए माहौल से चलता है. लेकिन यह बात पूरे तौर पर ठीक नहीं. निवेशक खुद भी देश की आर्थिक गतिविधियों पर नज़र रखने लगे हैं. निवेशक देश के कृषि, विनिर्माण और सेवा, यानी अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रों पर नज़र रखते हैं. वे GDP के आंकड़े पर भी नज़र बनाए रखते है. हर क्षेत्र की कंपनियों के तिमाही कामकाज को भी देखते रहते हैं.

क्या सभी क्षेत्रों पर नज़र रखी निवेशकों ने...?
बिल्कुल रखी होगी. पिछले कुछ महीनों से ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, रीयल एस्टेट, रोज़मर्रा का उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों, यानी FMCG क्षेत्र में भारी तबाही पर निवेशकों की नज़र क्यों नहीं होगी. ऐसा भी नहीं है कि निवेशकों के हितैषी दिखने वाले विश्लेषकों की भी नज़र नहीं होगी. लेकिन लगता है कि शेयर बाज़ार के विश्लेषक इस तथ्य को छिपाए बैठे रहे. आज 22 अगस्त, गुरुवार को बाज़ार खुलने तक किसी ने रस्म के तौर पर भी नहीं बताया था कि ऐसे माहौल में बाज़ार के उठने की ज़्यादा उम्मीद रखना सुरक्षित नहीं है. बल्कि आलम यह रहा कि आज दो घंटे के भीतर जब बाज़ार 200 अंक डूबा, तो यही कहा जा रहा था कि इस मंदी में भी कुछ शेयर तेज हैं. डूबते बाज़ार में कुछ शेयर चौथे गियर में बताए जा रहे थे. यानी तेजड़ियों ने हरचंद कोशिश की कि किसी तरह बाज़ार को ढहने से बचा लें. लेकिन पिछले कुछ दिनों से लुट-पिट रहे निवेशकों ने बिल्कुल भी जोखिम नहीं उठाया. गुरुवार को अचानक हुई इस घटना को मीडिया की साख के नज़रिये से भी देखा जाना चाहिए.

बहरहाल अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों के बाद अब निवेश बाज़ार भी बोल गया है. गुरुवार को बाज़ार इतनी जोर से बोला है कि मीडिया तक इसकी आवाज ज़रूर पहुंचनी चाहिए. आवास निर्माण, ऑटो, सूत, चाय जैसे उद्योगों के संगठन भारी बैचेनी में हैं. उनकी सुध लेने के लिए ज़्यादातर अख़बार और टीवी चैनल बिल्कुल तैयार नहीं. ख़बरों के गायब होने से वे बेचारे अपनी बात विज्ञापनों के ज़रिये कहने को मजबूर हो गए हैं, लेकिन देश की माली हालत का मसला सिर्फ उन्हीं का नहीं है. माली हालत से ही बेरोज़गारी की समस्या जुड़ी है. देश के सभी नागरिकों का सुख-दुःख देश की अर्थव्यवस्था से ही जुड़ा है. सरकार, मीडिया और देश के योजनाकार अभी ही चेत जाएं तो ठीक रहेगा.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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