कहीं पत्रकारिता की शक्ल अचानक बदलने तो नहीं लगी...?

कहीं पत्रकारिता की शक्ल अचानक बदलने तो नहीं लगी...?

पत्रकारिता पर क्या वाकई विश्वसनीयता का संकट आ गया है...? यह सवाल विद्वान लोग उठाते थे, अब जनसाधारण में ये बातें होने लगी हैं। पहले और अब में एक फर्क यह भी है कि पहले अपनी विश्वसनीयता के कारण पत्रकारिता जनता पर जितना असर डालती थी, अब उतना नहीं डाल पाती। अब तो मीडिया का पाठक या दर्शक हाल के हाल उसकी ख़बरों और खयालों पर टीका-टिप्पणी करने लगा है। आम लोगों में यह बदलाव अच्छी बात है या चिंता की बात, यह विद्वान लोग ही तय कर पाएंगे।

पत्रकारिता के मकसद
पत्रकारिता अब अकादमिक विषय बन गया है। यूनिवर्सिटी और संस्थानों में इसके बाकायदा डिग्री कोर्स होते हैं। इन्हीं कोर्सों में पढ़ाया जा रहा है कि पत्रकारिता के तीन काम हैं सूचना देना, शिक्षा और मनोरंजन। देखने में पत्रकारिता के ये उद्देश्य निर्विवाद हैं, इसीलिए पत्रकारिता के संस्थानों में इस बारे में अब तक कोई दुविधा या विवाद दिखाई नहीं दिया, लेकिन अब दौर बदला हुआ है। पत्रकारिता में मेधावी छात्र ज्यादा तादाद में आने लगे हैं। वे पूछते हैं कि सूचना देने का मकसद तो ठीक है, लेकिन यह भी तो देखना पड़ेगा कि सूचना क्या होती है...? सूचना और विज्ञापन में क्या अंतर होता है...? यानी पत्रकारिता के प्रशिक्षणार्थियों को सूचना की निश्चित परिभाषा बताई जानी चाहिए। वे यह भी पूछते हैं कि अपने पाठकों या दर्शकों को शिक्षित करने से पहले हमें यह भी तो देखना पड़ेगा कि हम किस रूप की शिक्षा देना चाहते हैं, और उसी तरह मनोरंजन के बारे में कि मनोरंजन कैसा हो। मनोरंजन के बारे में कुछ विद्वानों का एक बड़ा दिलचस्प आब्ज़र्वेशन है कि ग्राहक जैसा मनोरंजन चाहता है, उसी के हिसाब से मनोरंजन होने लगा है।

ग्राहकों की रुचि की पूर्ति बनाम रुचि का विकास
सवाल यह बना है कि क्या आज की पत्रकारिता अपने ग्राहकों की रुचि की पूर्ति तक सीमित हो गई है। जवाब दिया जा सकता है कि जब पत्रकारिता सिर्फ वाणिज्य होती जा रही हो, तो इसके अलावा और हो भी क्या सकता है। बगैर मुनाफे वाला काम, यानी पाठकों और दर्शकों की रुचि के विकास में कोई क्यों लगेगा। चलिए, कोई यह तर्क दे सकता है कि पत्रकारिता ने पाठकों की रुचि विकसित करने का जिम्मा अपने ऊपर नहीं ले रखा है। यह काम तो साहित्य का है। क्या यह हकीकत नहीं है कि पाठकों में सुरुचि का विकास करने में अचानक अब साहित्य की भी रुचि घट चली है। बदले माहौल में उनके यहां बड़ी उदासी है।

नजरिया बनाने का मकसद
घूम-फिरकर पत्रकारिता का एक बड़ा मकसद अपने ग्राहकों का नज़रिया बनाने का हो जाता है। पत्रकारिता के जरिये लोगों का नज़रिया बनाने और नज़रिया बदलने के बारे में विश्वसनीय शोध हमारे पास नहीं है। अलबत्ता मनोविज्ञानी, खासकर औद्योगिक मनोविज्ञानी ज़रूर इस काम पर लगे दिखते हैं। उनके हिसाब से देखें तो नज़रिया बनाने या नज़रिया बदलने की प्रौद्योगिकी विकास के पथ पर है। यह काम करते समय समस्या या सवाल यही खड़ा होता है कि हम ग्राहकों का नज़रिया कैसा बनाना चाहते हैं। मसलन उद्योग जगत चाहेगा ही कि उसके ग्राहक का नज़रिया उसका उत्पाद खरीदने वाला बन जाए। सामाजिक उद्यमी चाहेगा कि वह लोगों का नज़रिया सामाजिक हित वाला बना दे। राजनीतिक उद्यमी, यानी पॉलिटिकल ऑन्त्रेप्रेनॉर यही चाहेगा कि उसकी राजनीतिक विचारधारा में विश्वास बढ़ाने का काम होता रहे। सत्ता के लिए वह जनाधार बढ़ाने के काम पर लगेगा ही। अपने-अपने हित के काम में लगे रहने को आजकल अच्छा ही माना जाता है, लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में इसी बात को लागू करने में समस्या यह आ रही है कि वह कैसे तय करे कि उसके ग्राहकों का नज़रिया कैसा हो। यहीं पर नैतिकता का जटिल सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है।

पत्रकारिता की नैतिकता का सवाल
स्कूल और विश्वविद्यालय की पढ़ाई शिक्षा का एक रूप है और पत्रकारिता वाली शिक्षा दूसरा रूप। मोटे तौर पर पत्रकारिता वाली शिक्षा को हम जागरूकता बढ़ाने वाली शिक्षा कह सकते हैं। अपनी पहुंच और रोचकता के कारण पत्रकारिता का असर चामत्कारिक है, इसीलिए पत्रकारिता की तरफ सभी लोग हसरत भरी नजरों से देखते हैं। लोकतंत्र में तो बहुत ही ज्यादा। नैतिकता, यानी सही बात समझाने में पत्रकारिता पर ज्यादा ही जिम्मेदारी आती है, लेकिन मौजूदा माहौल में दिख यह रहा है कि पत्रकार जगत ही नैतिकता के मायने को लेकर आपसी झगड़े की हालत में आ गया। पूरे के पूरे मीडिया प्रतिष्ठान ही एक दूसरे के सामने खड़े नजर आते हैं।

नैतिकता, यानी सही और गलत बताने को लेकर झगड़ा
वैसे नैतिकता के मायने को लेकर कोई झगड़ा होना नहीं चाहिए, क्योंकि सभी जगह निर्विवाद रूप से माना जा रहा है और पढ़ाया जा रहा है कि जो सही है और अच्छा है, वह नैतिक है। गलत और बुरी बात को हम अनैतिकता कहते हैं। स्कूली शिक्षा में तो नैतिक शिक्षा पहले से ही शामिल थी। कुछ साल पहले हमने ट्रेनिंग देने लायक लगभग सभी व्यावसायिक कोर्सों में नैतिक शिक्षा, यानी एथिक्स को शामिल कर लिया था। बस, पत्रकारिता के कोर्स में यह विषय शामिल नहीं दिखता। लेकिन नए दौर में फच्चर यह है कि सही क्या है, यह बात सही-सही कौन बताए। मौजूदा हालात ऐसे हैं कि नैतिकता के मामले में अलग-अलग पत्रकार समूह अपनी-अपनी तरह से नैतिकता समझने और समझाने में लगे हैं। विचारधाराओं के झगड़े जैसी हालत पत्रकारिता में भी बन गई दिखती है। ऐसा क्यों है, इसकी जांच-पड़ताल अभी हो नहीं पा रही है।

लक्ष्यविहीनता का संकट तो खड़ा नहीं हो गया
अपने देश में पत्रकारिता आज़ादी के आंदोलन के दौरान ज़रूरत के लिहाज से विकसित हुई थी। पत्रकारिता के आज के विद्यार्थियों को हम यही पढ़ा रहे हैं। आज़ादी मिलने के बाद वह क्या करती, सो, आज़ादी मिलने के बाद पत्रकारिता अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अच्छी तरह चलाने में मदद के काम पर लग गई। इसीलिए पत्रकारिता हरदम न्याय के पक्ष में खड़े रहने की बात करती है। इस तरह आज़ादी के बाद हमारी पत्रकारिता का एक निर्विवाद काम लोकतंत्र को मजबूत करते रहना हो गया। यानी, भारतीय पत्रकारिता को समानता की वकालत के काम पर लगना पड़ा। उसे हरदम अन्याय के खिलाफ खड़े दिखना पड़ा। लेकिन आज लफड़ा यह खड़ा हो गया है कि क्या न्याय है और क्या अन्याय, इसे लेकर ही झगड़ा होने लगा है, और अगर गौर से देखें तो यह काम शुरू से ही राजनीतिक दल कर रहे हैं। अन्याय के विरोध के नाम पर राजनीतिक दल एक दूसरे से झगड़ते-उलझते चले आ रहे हैं। अब तक पत्रकारिता उनके झगड़ों को बताती-समझाती थी, लेकिन नई बात यह है कि अब वह खुद ही आपस में ऐसे झगड़ों में उलझती दिखने लगी है, इसीलिए अब तक डाकिये और जज जैसी भूमिका में दिखती आई पत्रकारिता खुल्लमखुल्ला खुद ही वकील और राजनीतिक दलों के सहायकों के वर्गों में बंटती नजर आ रही है। ऐसे में उस पर पक्षधर होने का आरोप लगना स्वाभाविक है। बहुत संभव है कि उसकी विश्वसनीयता घटने का संकट इसी कारण उपजा हो।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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