जनता भुलाए नहीं भूल पा रही है लुभावने चुनावी वादों को...

जनता भुलाए नहीं भूल पा रही है लुभावने चुनावी वादों को...

लोकसभा चुनाव 2014 से पहले घोषणापत्र जारी करते बीजेपी नेता (फाइल फोटो)

लोकतंत्र में सरकार का काम मैनेजरी के अलावा और क्या हो सकता है। मैनेजरी के दावेदार हर पांच साल में चुनावी उत्सव में भाग लेते हैं। जनता उनके वादे सुनकर उन्हें हर बार पांच साल के लिए नियुक्त करती है। यह काम 68 साल से चल रहा है। पहले पुराने मैनेजर को फिर से नियुक्त करने की प्रवृत्ति दिखती थी, लेकिन अब, भले ही कारण नहीं पता, यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि पिछले 25 साल से जनता मैनेजरों को बदल-बदलकर नियुक्तियां करने लगी है। वैसे, बीच-बीच में पुराने मैनेजर को भी बुला लेती है, लेकिन इस बारे में सबसे खास बात यह दिख रही है कि सरकार की नियुक्ति के लिए मैनेजरों की योग्यता और विश्वसनीयता का पैमाना अभी तक बन नहीं पाया है, और यह काम आज भी 'भूलसुधार पद्धति' से ही चल रहा है, यानी सब कुछ चुनावी प्रचारतंत्र और 'ट्रायल एंड एरर' मैथड से ही मैनेजरों को बदल-बदलकर आजमाने के सहारे ही चल रहा है।

दूसरी ओर, इसे लेकर अब जनता की दुविधा भी बढ़ती दिख रही है, इसीलिए इस बारे में विद्वानों से सोच-विचार की दरकार है। वे बताएं कि किसी के वादों की विश्वसनीयता को हम जांचें कैसे...? हालांकि इस मुद्दे में ज्वलंत होने के लक्षण नहीं हैं, लेकिन फिर भी लोकतंत्र के लालन-पालन के लिए इस पर विचार-विमर्श ज़रूरी बात लगता है। इस बहाने हम यहां इस बात पर भी गौर कर पाएंगे कि चुनावी वादों की विश्वसनीयता जांचने का कोई पैमाना होना कितना ज़रूरी है, और यह भी दिख जाएगा कि इस मामले के और पहलू क्या हो सकते हैं।

चुनावी नारों की विश्वसनीयता का इतिहास
लोकतांत्रिक देश के तौर पर हमारा इतिहास छोटा-सा है। शुरू के 28 साल जनप्रतिनिधियों पर अटूट विश्वास में गुज़र गए। उसके बाद ही अल्पकालिक नारों का दौर शुरू हुआ। शुरुआत जेपी आंदोलन की संपूर्ण क्रांति के नारे से हुई। उसके बाद सबसे कारगर नारा राजीव गांधी की 21वीं सदी में प्रवेश की तैयारी का था, और वह वाकई सुविचारित योजना साबित हुआ। 1985 से 2000 तक हमने इस योजना को पूरा होते देखा। उसके बाद नई सदी की शुरुआत में हमने योग्य प्रशासक, 'शाइनिंग इंडिया' के नए नारे सुने, लेकिन वे चले नहीं। ऐसा क्यों हुआ, इसकी जांच-पड़ताल आज तक नहीं हुई। इस पर अगर आज सोचें तो यही कहा जा सकता है कि 'शाइनिंग इंडिया' का नारा 'फीलगुड' के सहारे था। यह बात अलग है कि 'फीलगुड' के सहारे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की नैया पार नहीं हो पाने के कारणों की समीक्षा आज तक नहीं हुई। चलिए, तब नहीं हुई तो न सही, लेकिन आज की विकट परिस्थितियों में उस हवाले से हमें काफी कुछ जानने-समझने की ज़रूरत पड़ने वाली है।

क्षणभंगुर 'फीलगुड' का सच
'फीलगुड' के बारे में विद्वानों की राय है कि यह बहुत छोटे-से वक्त के लिए कारगर होता है। खासतौर पर आर्थिक मंदी का दौर गुज़ार देने के लिए, लेकिन राजनीतिक उद्यम में देखें तो 'फीलगुड' में बेकार साबित होने के सारे लक्षण मौजूद रहते हैं। सिर्फ चुनावी रणनीति में देखें तो बात अलग है। कुछ तात्कालिक लाभों के लिए इसका इस्तेमाल आज भी कारगर माना जाता है। मसलन, उद्योग-व्यापार जगत में सिर्फ मार्केटिंग के लिए। लेकिन इसका इस्तेमाल लोकतंत्र में चुनावी यंत्र के तौर पर शुरू होना इस सदी का नया चलन है। चुनावी राजनीति में आजकल पांच साल की सत्ता ही सामने ज़रूर रहती है, लेकिन यह भी तो देखा जाना चाहिए कि सत्ता की दावेदार पार्टियों की उम्र लंबी होने लगी है। उनके करोड़ों सदस्य और कार्यकर्ता बनाए जाने लगे हैं। देशभर में उनके हज़ारों परमानेंट दफ्तर बन गए हैं। उनके पास बीसियों हज़ार करोड़ की जायदाद और हज़ारों करोड़ की नगदी रहने लगी है, इसीलिए उनके  चलाए नारों और जनता से किए वादों के दूरगामी नफे-नुकसान को देखना-समझना राजनीतिक दलों के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि यह काम बड़े विशेषज्ञों और विद्वानों का है, फिर भी हमें लगता है कि विद्वानों से यह अनुरोध करने का समय आ गया है कि वे इस बारे में सोचना-समझना शुरू करें। फिलहाल हम यहां बिल्कुल नए नारों या वादों की याद भर दिलाना चाहते हैं, ताकि विद्वान सोचने-समझने के लिए तैयार हो सकें।

पिछले आम चुनाव में हुए चमत्कार की समीक्षा बाकी
मौजूदा सरकार के दो साल पहले सत्ता में आने के कारणों की समीक्षा अब तक हो नहीं पाई है। फिर भी मोटे तौर पर हिसाब लगाकर बताया जा सकता है कि पिछले आम चुनाव में काला धन, बेरोजगारी, विकास की सुस्त रफ्तार, महंगाई, सरकारी नीतियों को लकवा मारना, जैसे वादे ज्यादा प्रचारित किए गए थे। काला धन और 'अच्छे दिन' के चुनावी वादों ने तो जनता पर जादू-सा कर दिया था। उसके बाद आज दो साल होने को आ गए हैं। इतना समय उन चुनावी वादों की समीक्षा के लिए काफी माना जा सकता है।

वादे पूरे करने की समय सीमा और तरीके किसी ने नहीं पूछे
वादे पूरे करने के लिए मौजूदा सरकार ने चुनाव के दौरान अपना तरीका यह बताया था कि विदेशों में जमा काला धन लाकर और जनता में बांटकर खुशहाली लाएंगे, अपने योग्य प्रबंधन के हुनर से बेरोजगारी को खत्म करेंगे, भ्रष्टाचार मिटाकर, बिचौलिये हटाकर महंगाई खत्म करेंगे और देश की आधी से ज्याादा आबादी, यानी किसानों को उसके उत्पाद की लागत का 50 फीसदी लाभ दिलाएंगे, जिससे उनका संकट दूर हो जाएगा। जब ये वादे किए जा रहे थे, तब यह किसी ने नहीं पूछा कि ये बातें व्यावहारिक हैं भी या नहीं, और ये वादे पांच साल में पूरे हो भी सकते हैं या नहीं...? अगर ये सवाल नहीं पूछे गए तो इसलिए नहीं पूछे गए होंगे, क्योंकि पूछने वाले को इन मुद्दों के ही खिलाफ प्रचारित कर दिया जाता। जिन गंभीर प्रकृति के विशेषज्ञों ने यह बात उठाने की कोशिश की, उन्हें बदलाव के यज्ञ में विघ्न-संतोषी कहकर मीडिया का मंच नहीं दिया गया। पीछे पलटकर देखें तो मतदाता को राजनीतिक तौर पर शिक्षित करने की ज़रूरत तो कभी समझी ही नहीं गई। मीडिया के पाठक और दर्शक को शिक्षित करने की कोई मुहिम लोकतांत्रिक भारत में अब तक चली नहीं दिखती। हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वादों और नारों का विश्लेषण करते समय जिन जानकारों ने इस बारे में लिखा, उन्हें 'अच्छे दिन' के विरोधी साबित कर दिया गया। खैर, आगे से वक्त-वेवक्त काम आए, इसलिए वादों, यानी लक्ष्यों के प्रबंधन पर कुछ शैक्षणिक जानकारियां उपयोगी हो सकती हैं, सो, अगर आप यह पुराना आलेख पढ़ लें, तो लिखने में दोहराव बच जाएगा।

वादों को भुलाने के अलावा अब चारा क्या है...?
मौजूदा सरकार को आए दो साल होने जा रहे हैं। इस बार जनता को इतने जबर्दस्त तरीके से उम्मीदें दिखाई गई थीं कि उनसे किए वादे भुलाना उतना आसान नहीं दिख रहा है। एक तरीका दिखता है कि उम्मीदों की मियाद बढ़ाकर फिलहाल अप्रबंधनीय वादों से पिंड छुड़ा लिया जाए। दूसरा उपाय यह है कि नए-नए काम शुरू करने की बात करके पिछले वादों से ध्यान हटाया जाए। हालांकि इस चक्कर में होता यह है कि कोई काम शुरू करने की जो थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती भी है, वह भी जाती रहती है।

मसलन, काला धन और बेरोजगारी मिटाने के वादे को पीछे करके देश में स्वच्छता, मेक इन इंडिया और स्टार्टअप को आगे किया गया था, लेकिन ये काम भी इतने अप्रबंधनीय निकले कि देश अपनी 'भक्ति' साबित करने काम में ज्यादा अटक गया। हालांकि इस बात में भी कोई शक नहीं कि सरकार के घोषित कामों की लिस्ट को हम काफी कुछ भूलते जा रहे हैं, लेकिन क्या यह भुलावट कारगर हो पाएगी। अभी पांच विधानसभा चुनाव लड़ने के काम पर लगेंगे तो पुराने वादे याद दिलाए जाएंगे। फिर उत्तर प्रदेश के बड़े चुनाव आ जाएंगे, और उस समय तक सरकार के कामकाज की बातें और ज्यादा बड़ी हो जाएंगी। होते-होते मौजूदा केंद्र सरकार के पांच साल पूरे हो जाएंगे। यह समीक्षा अगर अभी नहीं तो पता नहीं, कब शुरू होगी कि चुनावी घोषणाओं और वादों के साथ आखिर होने क्या लगा है।

वादे भुला देने में कई अड़चनें
अड़चन एक हो, तो कोई किसी तरह निपट भी ले, लेकिन दिन-ब-दिन ऐसे बानक बनते जा रहे हैं कि सरकार के वादे वेताल बनकर सवाल पूछने के लिए मौजूदा सरकार के कंधे पर बैठ जाते हैं। मसलन, खेती के बुरे दिन रोज-ब-रोज बदतर होते जा रहे हैं। इधर गर्मियों के दिन आ गए हैं, और इस साल जल प्रबंधन की हालत इतनी दयनीय है कि देश में पीने के पानी को लेकर हाहाकार मचने का अंदेशा है। यह मसला आसमानी कहा जा सकता था, लेकिन उसे सुल्तानी की बजाए आसमानी साबित करने के लिए लंबी-चौड़ी कोशिश की दरकार थी। मीडिया में हर साल इसकी पेशबंदी होती थी, लेकिन इस साल खर्चा बचाने के चक्कर में सरकार ने कम बारिश की बड़ी समस्या को भी कम करके दिखाया है। पहले से इंतजाम न करना पड़े, इस चक्कर में इतनी बड़ी आफत गले पड़ने वाली है कि मौजूदा सरकार के तमाम वादों की पोल खुलती ही चली जाएगी। इतना ही नहीं, मंदी की हकीकत छिपाने के चक्कर में बेरोज़गारी की समस्या किसी भी क्षण सरकार के वादों पर हथौड़ेबाजी शुरू कर सकती है।

भले ही कुछ करने का समय निकल गया हो, लेकिन मुश्किल हालात में लोगों का हौसला बनाए रखने के लिए दलीलें जमा करके रखने का काम तो फौरन शुरू हो ही जाना चाहिए, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि सरकार के प्रवक्ताओं को ऐन मौके पर कुछ भी न सूझे।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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