क्या हमारे देश में अमीरी घटाए बगैर घट सकती है गरीबी...?

क्या हमारे देश में अमीरी घटाए बगैर घट सकती है गरीबी...?

प्रतीकात्मक चित्र

मंगलवार को संसद के बजट सत्र का उद्घाटन हो गया। परंपरा के मुताबिक सरकार का लिखाया भाषण राष्ट्रपति ने पढ़ा, जिसमें गांव, किसान और गरीब पर सरकार की कथनी हो गई है, और आगे क्या किया जाएगा, यानी सरकार की करनी 29 फरवरी को दिखेगी। उसी रोज अगले साल का बजट पेश होना है। तभी पता चलेगा कि देश के 75 फीसदी गरीबों या देश के 75 फीसदी किसानों या देश के 75 फीसदी हिस्से, यानी गांवों के लिए क्या और कितनी मात्रा में करने का ऐलान हुआ। वैसे तरह-तरह के भयावह मुद्दों में फंसे देश में इस हफ्ते संसद में बहसें होंगी। देश के जैसे हालात बन गए हैं या बना दिए गए हैं, उनमें वे बहसें होंगी बड़े काम की। बुधवार को दोनों सदनों में काम शुरू भी हो गया। राज्यसभा में रोहित वेमुला के मुद्दे को लेकर हंगामा हुआ और काम रुकने की स्थिति बनी है।

लोकसभा में सवाल-जवाब का समय चल रहा है और बातचीत का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है। बहरहाल, बजट पेश होने के पहले इन चार दिनों में गांव, गरीबी और किसानों की बातें करने का मौका है। हालांकि बजट दस्तावेज बनकर तैयार हो चुका है, बस, सार्वजनिक तौर पर गोपनीय है। उसमें रद्दोबदल की गुंजाइश भी नहीं है, इसीलिए विपक्ष बजट पेश होने से पहले काल्पनिक विचार-विमर्श में उलझना नहीं चाहेगा, लेकिन बाद की समीक्षा के लिए उसे तैयारी तो करनी ही पड़ेगी।

गांव और गरीबी के बीच भेद या अभेद
वैसे तो गांव और किसान की बात ही काफी थी, क्योंकि गांव और किसान गरीबी के पर्याय बन गए हैं। गरीब को सुनते ही गांव के आदमी का चेहरा सामने आता है। शहर का गरीब भी हाल ही में गांव से आया कोई मजदूर दिखता है। इतिहास में झांकें तो इसके पहले 'गरीबी हटाओ' की सबसे बड़ी करनी '70 के दशक में इंदिरा गांधी ने की थी। कहते हैं, उसके बाद से अमीरी इस कदर बेचैन हो गई थी कि 1971 से लेकर 1975 तक उन्हें उद्योग और व्यापार जगत से जंग जैसी लड़नी पड़ी। उन्होंने क्या-क्या किया, कितना किया, उनकी क्या हालत हुई, इसकी वस्तुनिष्ठ समीक्षा अभी तक नहीं हो पाई है। राजनीतिक इतिहास के विश्लेषक बताते है कि कई-कई मुद्दों में वह बुरी तरह उलझा दी गईं, और आखिर में 1984 में शहीद हो गईं।

कहते हैं, उसी दौर में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति का ही कमाल था कि गांव, किसान और गरीब कम से कम खाने-पीने की तरफ से निश्चिंत हो चले थे, लेकिन गरीबी से पिंड पूरी तरह तब भी नहीं छूटा।

क्या हो सकता है मौजूदा हालात में...?
पिछले दो साल में सरकार ने जितने ऐलान किए हैं, उनसे तो नहीं लगता कि नए शहरों और उद्योग-व्यापार की बजाए खेती और गांव पर खर्चा करने की योजना बन गई होगी। अब तक के ऐलानों को देखें तो गांव के बेरोजगारों को खेती की बजाए किसी नौकरी-धंधे पर लगवाने की बातें ज्यादा की गई हैं। सिंचाई के इंतज़ाम से ज्यादा हाईवे पर खर्चे बढ़ाए गए हैं। देश को जगमग दिखाने के लिए स्मार्ट सिटी पर पूरा ज़ोर लगा दिया गया, हालांकि बाद में उसे भी 100 से घटाकर 20 शहरों तक सीमित रखने की बात की गई। सिर्फ इसीलिए कि शहरों को जगमग और उन्नत करने के लिए भी पैसे के इंतज़ाम का पचड़ा पड़ गया। इसके लिए 'मेक इन इंडिया' की उम्मीद बंधाई गई है। उधर बैंकों की बुरी हालत इस बात की इजाज़त नहीं दे रही है कि करोड़ों बेरोजगार युवकों के लिए स्टार्टअप योजना शुरू करवाई जा सके। सबसे के लिए मकान, पीने लायक साफ पानी, नगर-कस्बों में साफ-सफाई के लिए पैसे के इंतज़ाम का जिक्र तक नहीं हुआ।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम एक चौथाई रह जाने से जो पैसे बचे, वे हाइवे और दूसरे कामों में खर्च हो गएं। ऐसी हालत में देश के 75 फीसदी इलाके, यानी गांवों की बदहाली सुधारने के लिए पैसा कहां से आ पाएगा। हां, खेत की मिट्टी की जांच के नाम पर गांव को उन्नति की दिशा में ले जाने का प्रचार भर किया जा सकता है। जल प्रबंध की पुरानी योजनाओं को चालू करने की कोई बात नहीं हुई। बस बेतवा केन को जोड़ने का आधा-अधूरा इरादा भर जताया गया है। और यह अकेला काम भी इतना बड़ा है कि पैसे का अच्छा-खासा इंतज़ाम करना पड़ेगा।

कुछ करते दिखने की हालत भी नहीं दिखती...
इन दो सालों में मनरेगा नाम की योजना का इतना मजाक और विरोध किया गया कि अगर सरकार इस मद में दोगुनी या तिगुनी रकम डालना भी चाहे तो प्रचार के लिहाज से उसे ऐसा करना अपनी छवि निर्माण के लिए मुनाफे का काम नहीं लगेगा। और फिर मनरेगा से अमीर तबके को जितनी बेचैनी हो चुकी है, उसकी नाराजगी भी यह सरकार मोल नहीं लेना चाहेगी।

मनरेगा ही वह योजना थी, जिसने देश में रोजनदारी के मजदूर की कीमत बढ़ा दी थी। 60 रुपये रोज पर जो मजदूर काम करने के लिए मजबूर होता था, उसकी दिहाड़ी 250 रुपये रोज हो गई थी। गरीबी के मारे सस्ते मजदूर न मिलने से शहरों और कारखानों में बेचैनी बढ़ गई थी। करोड़ों लोगों की गरीबी घटाने का यह एक जोखिम तो है ही कि उद्योग व्यापार जगत मजदूरी की लागत बढ़ने से अपना मुनाफा कम होते देख नहीं पाएगा। हां, उन्हें नाराज करने का हौसला इस सरकार में हो तो बात अलग है और बेशक यह सुखद आश्चर्य होगा।

लोकतंत्र में गरीबी की बारीक बात...
जरा गौर कीजिएगा। लोकतंत्र का दर्शन हम सबसे समानता का ही वायदा करता है। यह सीमित वायदा इसलिए है, क्योंकि मानव इतिहास का अब तक का ज्ञान निर्विवाद रूप से बता चुका है कि पृथ्वी पर संसाधन सीमित हैं। सबकी जरूरतें तो पूरी होने की स्थिति है, लेकिन सबकी इच्छाएं या तमन्नाएं पूरी करने में यह पृथ्वी बेबस है। अब अगर सबको इच्छाधारी अमीर बनाया ही नहीं जा सकता तो लोकतंत्र के वायदे के मुताबिक सबको बराबरी पर लाने के लिए अमीरी में कटौती क्यों नहीं की जा सकती।

मसलन, गांव में ही जब गरीबी और अमीरी का रोग समझ में आया था तो किसान पर सीमित मात्रा से ज्यादा जमीन रखने पर लोकतांत्रिक पाबंदी लगा दी गई थी। खेती की जमीन सीमित मात्रा में ही रखने की यह पाबंदी यानी सीलिंग का कानून आज भी लागू है। यानी यह कोई ऐसी बात नहीं है कि कोई आसानी से मजाक उड़ाकर खारिज कर दे। अमीरी बढ़ाओ के तरफदारों को बहस करनी पड़ेगी। इस बार तो समय निकल गया। मौजूदा सरकार ने अब तक शहर पर पाबंदी या कटौती की कोई बात नहीं की, लेकिन आगे के लिए सोच सकती है। सकती क्या है, सोचनी पड़ेगी। अंदेशा यह भी सामने खड़ा है कि कहीं गांव या गरीब हरियाणा का जाट न बन जाए।

सनद रहे और वक्त पर काम आवे कि कल, यानी मंगलवार को दोपहर में जाट आंदोलन से तबाही के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री जब कह रहे थे कि सारे गरीबों को नौकरियां दे देंगे तो इस बात पर किसी ने ताली नहीं बजाई, बल्कि हूट कर दिया। जनता अगर अब अविश्वसनीय वायदों के चक्कर में आने से इंकार कर रही है तो समझ जाना चाहिए कि वाजिब वायदे भी संकोच के साथ करने का समय आ गया है।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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