भ्रष्टाचार के अर्थ को लोकतंत्र की संपूर्णता में समझें...

भ्रष्टाचार के अर्थ को लोकतंत्र की संपूर्णता में समझें...

अन्ना हजारे के आंदोलन का अता-पता नहीं है. कुछ साल पहले देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो 125 करोड़ जनता अचानक उठ खड़ी हुई बताई जा रही थी, उसका भी पता नही है कि वह कहां जाकर बैठी. हो सकता है कि देश में भ्रष्टाचार खत्म हो गया हो. हो यह भी सकता है कि हालत अभी भी वही हो, लेकिन मीडिया में बात होना बंद हो गई हो. तीसरी बात यह हो सकती है कि भ्रष्टाचार ने कोई दूसरा रूप धारण कर लिया हो. सो आइए, इस मुद्दे पर कुछ बातचीत कर लें.

क्या बताते हैं सर्वेक्षण...?
दुनिया के हर देश में भ्रष्टाचार की स्थिति का आकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजंसी ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल हर साल अपनी रिेपोर्ट जारी करती है. इस साल के शुरू में उसने रिपोर्ट दी थी. शोध सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट में भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति को जस का तस बताया गया था, लेकिन आश्यर्यजनक रूप से उस सनसनीखेज रिपोर्ट का जिक्र मीडिया में ज्यादा नहीं हुआ. थोड़ा-बहुत बताने की कोशिश हुई भी तो उस पर चिंता जताने वालों का टोटा पड़ गया. बहरहाल, वह बात आई-गई कर दी गई. हालांकि वह वह समय था, जब ललित मोदी कांड और हद दर्जे का सनसनीखेज व्यापम घोटाला मीडिया में छाए हुए थे. सिर्फ ये दो मामले ही क्या, भ्रष्टाचार के जितने भी कांड सामने आए, वे सभी सनसनी के बाजार में ज्यादा देर चलाए नहीं गए और भ्रष्टाचार के सभी कांड मारे गए. इससे एक निष्कर्ष निकलता है कि मीडिया के बाजार में उत्पाद के रूप में भ्रष्टाचार की खबरों की सप्लाई नहीं हो रही है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनों का क्या हुआ...?
रोजमर्रा के सरकारी कामों में जितनी अड़चन जनता को दो-तीन साल पहले महसूस कराई जा रही थी, क्या वह कम हुई है...? दरअसल, अपना देश बहुत बड़ा है, सो, इसका जवाब पाने के लिए सर्वेक्षण करते रहने पड़ते हैं. लेकिन इधर दो साल से ऐसी सर्वेक्षण एजेंसियां बड़ी समस्याओं पर सर्वेक्षण को छोड़कर सिर्फ मतदाता का रुझान बताने के काम तक सीमित हो गई हैं. टीवी चैनलों पर तुरत-फुरत मुद्दा बनाकर उस पर जनता की राय बताने के जो सनसनीखेज कार्यक्रम बनाए जाते थे, वे भी दो-ढाई साल से बंद हो गए हैं. तीन साल पहले जिस तरह जनता के हर कष्ट का कारण भ्रष्टाचार को बताया जाता था, अब उसका जिक्र होना बंद है. कोई यह कुतर्क दे सकता है कि भ्रष्टाचार खत्म हो गया, सो, उसकी बात भी खत्म. लेकिन कोई तर्कशास्त्री यह सवाल उठा सकता है कि जनता के कष्ट तो जहां के तहां है. यानी यह सिद्धांत ही गलत साबित होता हुआ दिख रहा है कि जनता के सारे कष्टों का कारण भ्रष्टाचार होता है. दोगुनी-चौगनी रफ्तार से बढ़ती बेरोजगारी और जरूरी चीजों का महंगे होते जाना यह आभास दे रहा है कि जनता का हाल पहले से भी ज्यादा बुरा है.

घूसखोरी और भ्रष्टाचार का फर्क...
यह अपराधशास्त्र का विषय है. वहां घूसखोरी और भ्रष्टाचार को अलग-अलग पढ़ाया जाता है. वहां खराब आचरण को भ्रष्टाचार कहा जाता है. सामान्य अनुभव के आधार पर क्या हम पूरे दावे से नहीं कह सकते कि भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ गया है. सत्ता के लिए झूठ पर झूठ बोलने की प्रवृत्ति क्या बढ़ती ही नहीं जा रही है. भ्रष्टाचार के एक और पर्यायवाची शब्द अनैतिकता को क्या हम बड़े सलीके से आदर्श व्यवहार की श्रेणी में नहीं रखते जा रहे हैं. देश के विकास का लक्ष्य बताकर क्या किसी भी तरह के साधन अपनाने को सही बताकर उसे ही नैतिकता बताया जाने लगा है.

भ्रष्टाचार का एक और पर्यायवाची कुव्यवहार भी है. राजनीतिक कुव्यवहार को आसानी से गैरकानूनी या अपराध भले ही साबित न किया जा सकता हो, लेकिन इसका असर क्या किसी भी भ्रष्टाचार से कम है. खासतौर पर तब, जब यह कुव्यवहार एक मनोवैज्ञानिक रोग नहीं, राजनीतिक नफे-नुकसान के मकसद से होता दिखे.

भ्रष्टाचार का एक रूप राजनीतिक पाप...
पाप भले ही धर्म जगत का विषय हो, लेकिन धर्म अगर राजनीतिक जगत का विषय बना लिया गया हो, तो हमारे पास इसके अलावा चारा ही क्या बचता है कि हम राजनीतिक पाप जैसे शब्द सायुज्य का निर्माण कर लें. प्रगतिशील विद्वानों को पाप शब्द के जिक्र से आपत्ति या परहेज हो सकता है. इस बारे में उनके सामने एक तर्क रखा जा सकता है कि चिकित्सा विज्ञान में किसी रोगाणु के प्रतिरोध के लिए उसी रोगाणु का टीका बनाया जाता है. इस लिहाज से राजनैतिक अनैतिकता के लिए राजनीतिक पाप शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा सकता.

हम अगर गौर से देखें और दिखाना चाहें तो देश की आधी से ज्यादा आबादी, जो गांवों में बसती है और उसकी जैसी हालत है, उसे किसी राजनीतिक पाप के कारण के तौर पर साबित कर सकते हैं. गांव का आदमी हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी गुजारा नहीं कर पा रहा है. क्या कारण है कि लगभग सारे शहर नदियों के किनारे बसे हैं, लेकिन बाढ़ के पीड़ित गांव के लोग ही दिख रहे हैं. सूखे का पीड़ित गांव का रहने वाला ही है. ज्यादातर शहरों में बाढ़ से सुरक्षा का इंतजाम है, बल्कि पुख्ता इंतजाम है. जबकि गांव डूबने के लिए अभिशप्त हैं. गरीबी के मारे गांव के लोग गांव में ही मुंह छिपाकर सुबक रहे हैं. उनकी अनदेखी राजनीतिक अनैतिकता या राजनीतिक पाप के रूप में क्यों नहीं देखी जा सकती...?

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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