जेएनयू मामला : वैधानिक उपायों पर हावी हो रहे हैं भावनात्मक उपाय

जेएनयू मामला : वैधानिक उपायों पर हावी हो रहे हैं भावनात्मक उपाय

जेएनयू में नारे लगाते कुछ छात्र (प्रतीकात्मक फोटो)

जेएनयू मामला कहीं आंतरिक सुरक्षा का सवाल खड़ा न कर दे...? यह सवाल उस वक्त और भी बड़ा हो गया, जब सुरक्षा पर खतरा खड़ा करने के आरोपियों से भी ज़्यादा चिंता आरोप लगाने वालों के तेवरों ने पैदा कर दी। मौजूदा प्रकरण में अपने वैधानिक जनतंत्र में वैधानिक उपायों पर भावनात्मक उपाय हावी होते दिखे। अदालत में पेश होने से पहले अदालत के दरवाजे पर ही मामला निपटाने की कोशिश इस बात का पक्का सबूत है।

वैधानिक उपायों को छोड़ अपनी देशभक्ति के प्रचार पर जोर
जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को बड़ी मुश्किल से अदालत के सामने पेश किया जा सका। परिसर में चारों तरफ मार-पिटाई के कारण वहां हालात ऐसे हो गए थे कि माननीय जज ने पुलिस के दफ्तर में आकर पेशी की कार्यवाही निपटाई। दरअसल पुलिस ने छात्रसंघ अध्यक्ष को तीन दिन की रिमांड पर ले रखा था, और सोमवार को यह मियाद खत्म हो रही थी, इसीलिए कन्हैया कुमार को पेश किया जाना कानूनी मजबूरी थी। थोड़ी देर बाद सिर्फ इतनी खबर मिली कि पुलिस ने अदालत से छात्रसंघ अध्यक्ष को दो और दिन की रिमांड पर मांग लिया। यानी यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कन्हैया कुमार के खिलाफ मामला बनाने के लिए पुलिस अभी पर्याप्त सबूत जमा नहीं कर पाई होगी।

एनआईए को जांच में लगाने की बात चलाना इस अनुमान का दूसरा आधार है, हालांकि अदालत ने इसकी इजाज़त देने से मना कर दिया। अदालत का कहना है कि पुलिस ही जांच करे। वैसे, सोमवार को अदालत के दरवाजे पर जेएनयू के छात्रों की पिटाई, जेएनयू के कई प्रोफेसरों को धक्का दिया जाना और वहां जमा देश के मीडियाकर्मियों की जिस तरह पिटाई हुई, उससे अंदाज़ा नहीं लग पा रहा था कि आखिर आगे होगा क्या। बाद में पता चला कि फिलहाल और दो दिन के लिए कन्हैया कुमार का रिमांड लिया गया है। इस बीच, पूरा देश विभिन्न टीवी चैनलों पर बहस होते देख-सुन रहा है, और लगभग सभी बहसों में मामले के निपटारे के कानूनी उपायों पर सबसे कम चर्चा है।

राजनीतिक विचारधाराओं का संघर्ष नई बात नहीं
राजनीतिक विचारधाराओं के बीच संघर्ष की कहानी नई नहीं है। ज्ञान के ज्ञात इतिहास की शुरुआत से ही यही स्थिति है। धर्म और नस्ल की अस्मिता की रक्षा वाली, धर्मनिरपेक्षता में विश्वास वाली, आर्थिक शोषण के प्रतिकारवाली, पूंजी को विकास का उपकरण मानने वाली, अपनी भौगोलिक सीमा की अस्मिता के नाम वाली, वैधानिक लोकतंत्र वाली या फिर दार्शिनिकों के प्रभुत्व वाली आदर्श राजव्यवस्थाओं के पक्ष और विपक्ष के बीच वैचारिक युद्ध होते ही आ रहे हैं।

सब मानते हैं कि जेएनयू विश्व के चुनिंदा विश्वविद्यालयों में से एक है, और यहां का माहौल पूरी दुनिया में वैज्ञानिक राजनीतिशास्त्र का बड़ा केंद्र माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संबंध और राजनीतिक अर्थशास्त्र के कई विश्वप्रसिद्ध प्रोफेसर इसी विश्वविद्यालय से निकले हैं। यह इतना प्रभावशाली शिक्षा केंद्र है कि जो लोग इसके वैचारिक प्रतिद्वंद्वी हैं, उन्हें यह फूटी आंख नहीं सुहाता। खैर, यह तो वैचारिक विवाद की बात है, लेकिन मौजूदा विवाद परिसर में देशद्रोही नारों के आरोप का कानूनी मामला बनाने की कोशिश वाला मामला है। आने वाले दिनों में इसके कानूनी पहलुओं, खासतौर पर मामले पर अदालती बहस के दौरान भौतिक साक्ष्यों को पेश करने में उलझा रहेगा, और अदालत के बाहर अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्यों को साधने का आक्रामक प्रचार चलता रहेगा।

सीधे-सादे कानूनी नुक्ते
अब तक के आरोप-प्रत्यारोपों को देखें तो मामले में दो-चार मुद्दे ही हैं। कन्हैया कुमार पर आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने देशविरोधी नारे लगाए थे। हालांकि कन्हैया जब हिरासत में लिए जा रहे थे, उस समय वह जोर-जोर से कह रहे थे - मैंने नारे नहीं लगाए। कुछ मीडिया चैनलों ने अपनी-अपनी समझ के मुताबिक अलग-अलग कोणों वाले और फोकस वाले कई तरह के कैमरा फुटेज दिखाए हैं। दोनों तरह की बातों वाले फुटेज हैं। इनसे अब तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि नारे लगाने वाले लोग जेएनयू के छात्र थे या नहीं...? और अगर बाहरी थे तो वे कौन थे...?

मौके पर मौजूद जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार से यह सब पूछा जा सकता था, लेकिन चार दिन से वह हिरासत में ही हैं। उनके सहयोगी छात्र बता रहे हैं कि उस आयोजन में बाहरी लोगों ने वैसे नारे लगाए थे। चौतरफा बहसों पर गौर करें तो स्थिति यहां तक है कि आरोप लगाने वाले पक्ष पर ही आरोप लगाए जा रहे हैं कि उन्होंने छात्रों के खिलाफ मुद्दा बनाने के लिए साजिशन ऐसे नारे लगाए और लगवाए। कुल मिलाकर इस कानूनी मामले में यही बातें कानूनी मुद्दे हैं। सुनवाई जब भी होगी, इसी आधार पर तय होगा कि कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुकदमा चल सकता है या नहीं, और यह भी देखा जाएगा कि जिसे भी सजा हो, तो ऐसे नारे लगाने के आरोप में क्या सजा हो।

अदालतों में अभी न्यायालयी राजनीतिशास्त्र की गुंजाइश नहीं
अपराधशास्त्र और न्यायालयी विज्ञान के लिहाज से देखें तो अदालतें राजनीतिक विचारधाराओं की व्याख्याओं, ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाओं को साक्ष्य के तौर पर सुनने, देशभक्ति की भावनाओं पर जोर देने वाली बहसें नहीं सुना करतीं। अपने वैधानिक लोकतंत्र में ऐसे मामले के सिर्फ कानूनी नुक्ते ही देखे जा सकते हैं।

वैसे मौजूदा सरकार के ज़िम्मेदार लोग और सत्तारूढ़ दल के नेता और प्रवक्ताओं ने मीडिया में पूरा जोर लगाकर और दोहरा-दोहराकर यही कहा है कि देश के खिलाफ बयानों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अपनी प्रकृति के कारण यह बात इतनी भावनात्मक है कि इसका विरोध तो कोई कर ही नहीं सकता, और अब तक की मौजूदा बहस में इस सार्वभौमिक सत्य का किसी ने विरोध किया भी नहीं है। फिर भी सभी बहसों के दौरान इस सर्वस्वीकृत बात को इस अंदाज़ में पेश किया गया, जैसे कोई इसका विरोध कर रहा हो। बेशक, इन बहसों का यह बड़ा रोचक पहलू भी है। खैर, आगे देखना सिर्फ यह है कि जो भी लोग ये नारे लगाने के दोषी हैं, उन्हें बिना संदेह के चिह्नित कैसे किया जाता है, और उन पर कानूनी कार्रवाई कब हो पाएगी...? या यह मामला भी भविष्य में होने वाले चुनावों के दौरान धाराप्रवाह चुनावी भाषणों में इस्तेमाल के लिए बनकर तैयार हो गया है। इस बात के सही या गलत होने का अंदाज़ा जल्द ही लगेगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में चुनाव आ ही रहे हैं।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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