अब देशभक्ति के नए रूप, और उसके प्रकारों को भी देखना-समझना पड़ेगा

अब देशभक्ति के नए रूप, और उसके प्रकारों को भी देखना-समझना पड़ेगा

पूरे आसार हैं कि अब देशभक्ति के प्रकारों की बात भी उठने लगेगी, क्योंकि देशभक्ति की भावना और खूंखार देशभक्ति को अलग-अलग परिभाषित करने की ज़रूरत पड़ने वाली है। बुधवार को पटियाला हाउस कोर्ट में देशभक्ति के नए रूप के सहारे भयावह नज़ारा पेश किया गया। सुप्रीम कोर्ट को फौरन दखल देकर अपने वरिष्ठ वकीलों को भेजना पड़ा, और जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर मामले की सुनवाई को रोकना पड़ा।

कार्यपालिका की इतनी विवशता
पटियाला हाउस कोर्ट में यह सब अचानक नहीं हुआ। दो रोज़ पहले ऐसे ही हादसे के बाद देश की सर्वोच्च संस्थाओं द्वारा संज्ञान लिया जा चुका था, और पुलिस को पर्याप्त सुरक्षा प्रबंधों के आदेश दिए जा चुके थे। फिर भी इतने भयावह हालात पैदा हो गए। इतना ही नहीं, वैसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई तो दूर, कोई कार्यवाही तक नहीं हो पा रही थी। अपराधशास्त्र के एक विशेषज्ञ की हैसियत से सुझाव है कि मौजूदा हालात में कार्यपालिका की बढ़ गई विवशता पर वैज्ञानिक विमर्श शुरू हो जाने चाहिए। जांच-पड़ताल भी हो जाएगी कि कार्यपालिका अचानक इतनी विवश हो क्यों गई है, और फिर विवशता से उबरने के लिए कोई नया उपाय भी सूझेगा।

खूंखार देशभक्ति पर दार्शनिक विमर्श की ज़रूरत
जेएनयू मामले ने देशभक्ति के नए रूप की एक नई समस्या को सामने रख दिया है, और यह रूप इतनी तीव्रता और इतने भयावह रूप में सामने आया है कि जागरूक पत्रकार, जागरूक वकील और प्रोफेसर सकते में आ गए हैं। मसला इतना जटिल दिख रहा है कि अब विद्वानों और दार्शनिकों को गंभीर सोच-विचार पर लगना पड़ेगा। खासतौर पर साध्य और साधन के संबंधों को लेकर। यह ऐसा जटिल विषय है, जिस पर सोच-विचार करना वैज्ञानिकों के बूते के बाहर है। इस बारे में ज्यादा शोध अध्ययन भी नहीं मिलते। अपनी जटिलता के कारण भी और विषय की संवेदनशीलता के कारण भी। अपने-अपने धर्म, क्षेत्र, जाति और दूसरी अस्मिताओं के नाम पर बढ़ती अमानवीयताओं के प्रतिकार का समाधान ढूंढने के काम पर लगने का यह बिल्कुल सही मौका है। मौका इसलिए कि हमारे पास समस्या के ताजा उदाहरण हैं।

वैधानिक लोकतंत्र की बात याद कौन दिलाएगा
न्यायतंत्र की बजाए बाहुबल से कानून को लागू करवाने का यह अपूर्व मामला एक नई राजनीतिक व्यवस्था के जन्म होने के अंदेशे को भी बढ़ा गया है। अपने लोकतंत्र में अपनी आजीविका के लिए दिन-रात व्यस्त रहने वाले सामान्य लोक से उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह खुद सोच-विचार कर इन अंदेशों को भांप सकता है। उससे ऐसी उम्मीद करना उस पर ज़्यादती भी हो सकती है, इसीलिए हर सभ्य व्यवस्था में देश और समाज के जागरूक तबके से उम्मीद की जाती हैं कि वह सबके हित की बात सोचकर कुछ तय करेगा। यानी मौजूदा प्रकरण ने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था यानी वैधानिक लोकतंत्र को फिर परिभाषित करने की ज़रूरत पैदा कर दी है। कम से कम यह बात तो फिर से याद दिलाने की ज़रूरत दिख ही रही है कि हमारा लोकतंत्र एक वैधानिक लोकतंत्र यानी पोलिटी है, वरना भीड़ जमा करके फैसले लिए जाने की हालत बनाने में देर नहीं लगेगी। अगर वैधानिक लोकतंत्र की बात बार-बार याद नहीं दिलाई जाती तो उसके लोगों को भाव-उत्तेजित भीड़ में तब्दील करना आसान हो ही जाता है। यही बुधवार को पटियाला हाउस कोर्ट के बाहर होता दिखा। इस मामले में विद्वानों से सोच-विचार करवाना अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया जा सकता है।

देश के लिए बहुत खास था यह समय
अभी तो यह भी देखा जाएगा कि जेएनयू और उसके बाद पटियाला हाउस प्रकरण का समय यही क्यों है। पांच दिन से देश की सारी ज़रूरी बातें ठप पड़ी हैं। दर्ज करने लायक बात है कि देश के लिए यह समय एक मामले में बड़ा ही खास था। देश का बजट इसी पखवाड़े पेश होना है। पूरे साल की देश की दशा और दिशा आम बजट ही तय करता है। सरकार के कामकाज की समीक्षा का यही मौका होता है। मुश्किल माली हालात में सरकार के सामने यह सबसे चुनौती भरा काम है। इन्हीं दिनों जनता के विभिन्न तबके अपनी ज़रूरतें और मांगें रखते हैं, लेकिन जेएनयू प्रकरण और पटियाला हाउस कोर्ट में इतना सनसनीखेज नज़ारा बनाया गया कि पूरा देश वही देखने-समझने में उलझ गया। उद्योग और व्यापार वाले टीवी चैनल भी जेएनयू मामले में लगे दिखे। अब देश के कारोबार का हिसाब-किताब गौर से समझने का समय निकल गया। इतना ही नहीं, 23 फरवरी से बजट सत्र की शुरुआत होने वाली है, और पूरा अंदेशा है कि जेएनयू और पटियाला हाउस प्रकरण संसद के महत्वपूर्ण बजट सत्र को भी अपनी चपेट में ले सकता है।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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