सुधीर जैन : सिर्फ बेरोजगारी पर ध्यान देने का यही बिल्कुल सही समय

सुधीर जैन : सिर्फ बेरोजगारी पर ध्यान देने का यही बिल्कुल सही समय

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर...

देश के बदले माहौल में रोज नई-नई बातें सामने आ जाती हैं। पहले दो-चार मुद्दे ही हुआ करते थे, और उन्हें पकड़कर महीनों महीनों लगातार चलाया जाता था। भीड़ जमा करके और मीडिया के सहारे हमने कुछ मुद्दों को तो पूरे-पूरे साल पूरी सनसनी के साथ चलते देखा है। मसलन, भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल, कालाधन, महंगाई, सरकार की नीतियों को लकवा मारना जैसे मुद्दों को लंबे समय तक चलाकर देश के 60 करोड़ युवा वर्ग को समझाया गया था कि उनके सारे दुखों के कारण यही मुद्दे हैं। युवाओं ने आस्था की हद तक विश्वास किया कि सरकार बदलने से आर्थिक विकास का पहिया तेजी से घूमने लगेगा, उन्हें नौकरियां मिलेंगी और अपना खुद का काम-धंधा शुरू करने का माहौल बनेगा।
 
बेरोजगार युवा का परिवार भी दायरे में
कोई विश्वसनीय शोध या सर्वेक्षण तो उपलब्ध नहीं, लेकिन सामान्य अनुभव है कि इन युवाओं के परिवारों के पास भी यही संदेश पहुंचा था कि उनके बेरोजगार बेटे-बेटियों के भविष्य के लिए उन बातों पर यकीन किया जा सकता है। बेरोजगार युवाओं और उनके माता-पिताओं की आकांक्षाओं को यकीन में तब्दील करने के लिए 'अच्छे दिन' के नारे को भी सम्मोहन की हद तक कारगर होते सबने देखा था। कहने का मतलब यह कि युवाओं और उनके परिवारों को अगर सबसे ज्यादा किसी बदलाव की उम्मीद थी तो बेरोजगारी की हालत बदलने की ही थी।
 
अच्छा हो सकने की संभावना की तलाश
इस आलेख का मकसद, बदले हुए राजनीतिक माहौल में जो कुछ भी अच्छा हो सकता हो, उसकी संभावना टटोलना है, इसीलिए देश की आबादी में सबसे बड़े, यानी अधिसंख्य तबके, यानी बेरोजगारों को चिह्नित किया गया है। इस आलेख में बेरोजगारी को केंद्रीय विषय बनाने का कारण भी यही है।
 
सिर्फ एक, यानी विशिष्ट लक्ष्य का सिद्धांत
आलेख लिखते समय आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी के उस सुझाव को ध्यान में रखा गया है कि लक्ष्य साधने के लिए किसी एक निश्चित और सिर्फ एक ही लक्ष्य का होना जरूरी है, वरना एक समय में कई-कई मोर्चों पर समय, ऊर्जा और धन लगाने से उतना लाभ नहीं होता। और फिर बेरोजगारी का मसला खुद में सिमटा हुआ सीमित मुद्दा नहीं है। लिहाजा, अगर बेरोजगारी से निपटने को एक अकेला लक्ष्य बनाया जाए, तो कई समस्याओं के समाधान खुद-ब-खुद होते चलेंगे। मसलन, देश का आर्थिक विकास, सामाजिक विकास, धर्म या पंथ सापेक्षता की समस्या और सबसे आकर्षक लक्ष्य 'अच्छे दिन' आ जाने की तमन्ना का फलीभूत हो जाना। इतना ही नहीं, हर हाथ को काम सुनिश्चित करने से आरक्षण की नित झंझट से निजात, और सबसे बड़ी संवैधानिक बात - 'काम का अधिकार' सुनिश्चित हो जाएगा। यह होते ही महिला सशक्तीकरण, शिक्षा, सामाजिक समरसता के लक्ष्य बोनस में सधेंगे।
 
यह लक्ष्य साधने के लिए बाकी चार बातें
लक्ष्य साधने के लिए जरूरी पांच बातों में से एक - एकाग्रता - का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। दूसरी बात लक्ष्य के नापतौल की आती है। तीसरी - यह हासिल करने लायक है या नहीं। चौथी - लक्ष्य कितना विश्वसनीय है, और पांचवीं - लक्ष्य को सौ फीसदी साधने की समयसीमा का आकलन...
 
बेरोजगारी की नापतौल
बेरोजगारी की नापतौल के लिए देश के पास श्रम एवं रोजगार ब्यूरो है, जो बिना नागा आकलन देता चला आ रहा है। भले ही बेरोजगारी के वे आंकड़े विश्वसनीय न लगते हों, लेकिन मनरेगा और आधार कार्ड जैसी भारी-भरकम परियोजनाओं का अनुभव देश को हो चुका है। यानी अब बेरोजगारी की नापतौल करना बड़ा नहीं है।
 
हासिल होने लायक है या नहीं
तीसरी बात लक्ष्य हासिल हो सकने या नहीं हो सकने की है। इसके लिए मनरेगा का सार्थक अनुभव हमारे पास है। बात सोचनी पड़ेगी, तो संसाधनों यानी धन की सोचनी पड़ेगी। जिस आकार में मनरेगा को साधा गया था, उससे तो साबित होता है कि हम समग्र रूप से बेरोजगारी से निपटने के काबिल हो चुके हैं। और फिर हाल ही में 2जी से पौने दो लाख करोड़ की बचत और कोयला खदानों के आवंटन से दो लाख करोड़ की अतिरिक्त आमदनी जैसे अन्य सुशासन और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम एक-तिहाई रह जाने के कारण दो लाख करोड़ की बचत जैसी कई मदों से पिछले एक-डेढ़ साल में आठ-दस लाख करोड़ का अतिरिक्त प्रबंध हम कर ही चुके हैं। यानी इन हालात में हम आठ से 10 लाख करोड़ की रकम सिर्फ रोजगार सृजन के काम पर लगा दें तो किसी आफत का अंदेशा नजर नहीं आता। यानी मौजूदा बजट से जो बढ़िया-बढ़िया चल रहा है, वह जैसे का तैसा चलता रह सकता है।
 
लक्ष्य की विश्वसनीयता का सवाल
जब हर व्यक्ति को काम का अधिकार संवैधानिक बाध्यता है तो इस लक्ष्य की सार्थकता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। बल्कि ऐसा करना काम के अधिकार की संवैधानिक अनिवार्यता की पूर्ति करेगा। मौजूदा मुख्य विपक्षी दल बांछें खिलाकर समर्थन करेंगे। विश्लेषकों के मुताबिक आज के मुख्य विपक्षी दल ने तो वर्ष 2009 का चुनाव मनरेगा जैसे काम के सहारे ही जीता था। वामपंथियों का यूएसपी ही यही मुद्दा है। 'सब को रोजगार देना', 'समाजवाद' और 'सर्वजन हिताय' के राजनीतिक दर्शन से बिल्कुल मेल खाता लक्ष्य है।
 
समयबद्धता का आकलन
पांचवां बिंदु समयबद्धता का है। बेरोजगारी से निपटने की कोई परियोजना कितने समय में पूरी की जा सकती है, इसका आकलन इस बात पर निर्भर है कि बेरोजगारी का आकार क्या है। सरकारी या गैर-सरकारी विश्वसनीय शोध-सर्वेक्षण तो उपलब्ध नहीं, फिर भी मोटा अनुमान है कि इस समय देश में 10 करोड़ पूरी तरह से बेरोजगार युवा हैं। कोई 15 करोड़ आंशिक रूप से रोजगार पाने वाले या कभी-कभार रोजगार पा जाने वाले बेरोजगार हैं। और कम से कम 20 करोड़ ऐसे बेरोजगार हैं, जो अपने-अपने परिवार के काम-धंधों में फिजूल में लगे रहने के कारण बेरोजगार ही समझे जाते हैं। यानी बेरोजगारों की  अनुमानित कुल संख्या 35 करोड़ तक परिकल्पित की जा सकती है।
 
ईमानदारी से और समग्रता से जांच-पड़ताल हो तो यह आंकड़ा डेढ़ गुना तक भी हो सकता है। ये सब वे बेरोजगार हैं, जो अपने माता-पिता या परिवार की आमदनी से दाल-रोटी खा पा रहे हैं। अब बस यह हिसाब लगाने की जरूरत पड़ेगी कि क्या 30-35 करोड़ बेरोजगारों के लिए नौकरी और काम-धंधे बढ़ाने के लिए एकमुश्त परियोजना तीन - साढ़े तीन साल में पूरी करने का लक्ष्य बनाया जा सकता है...?
 
देश में एक से बढ़कर एक बड़े अभियानों को छेड़ने का हौसला रखने वाले योजनाकार मौजूद हैं। हां, ये योजनाकार इस काम के लिए बड़ी दिखने वाली रकम की जरूरत बताएंगे। कितनी रकम की जरूरत होगी, यह इस बात से तय होगा कि बेरोजगारों से क्या-क्या उत्पादक काम करवाए जा सकते हैं। यह पता करना भी मुश्किल काम नहीं है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रबंधन के नए प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ यही पढ़-लिखकर धनी देशों की कंपनियों का उत्पाद एक देश से दूसरे में बिकवाने का सफल प्रबंध कर रहे हैं। खासतौर पर पहेली बने रहे चीन के उद्योग-व्यापार के रहस्य विशेषज्ञों के लिए अब रहस्य या पहेली नहीं रह गए हैं।
 
नौकरियां और काम-धंधे शुरू करने के लिए पैसे का इंतजाम
अभी दो साल पहले तक देश के बजट का कुल आकार 16 लाख करोड़ पहुंच चुका था। 2जी, 3जी और कोयला खदानों के नए आवंटनों से और कच्चे तेल के अंतरराष्टीय दाम घटने से अगले साल का हमारा बजट आकार दोगुना हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं। यही बात बेरोजगारी मिटाओ अभियान शुरू हो सकने की संभावना को हमारे सामने ले आती है। बात बेरोजगारी भत्ता देने की नहीं हो रही है। युवाओं को उत्पादक काम में लगाने की योजना बनाने की हो रही है।
 
बेरोजगार युवाओं के श्रम से माल बनेगा
युवाओं के समय और श्रम से माल बनेगा। यानी उस उत्पाद को 739 करोड आबादी वाले विश्व में सिर्फ बिकवाने का प्रबंध करना है। यही गारंटी विदेशी निवेशक चाह रहे हैं, और इसी काम में फच्चर फंसने का अंदेशा है, क्योंकि पूरी दुनिया खुद को मंदी की चपेट में महसूस कर रही है। मंदी, यानी माल का न बिकना। चाहे इस कारण से हो कि दुनियाभर में माल का उत्पादन जरूरत से ज्यादा होने लगा है और चाहे कारण यह हो कि उपभोक्ता की जेब में पैसे नहीं हैं। अगर सिर्फ अपने देश की परिस्थिति देखें तो यहां लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं। दो-तिहाई भारत, यानी गांव जरूरत की चीजों की मांग रखता है। व्यावहारिक अर्थशास्त्रियों को इसी बात में सबसे बड़ी संभावना दिखती है। अगर ऐसा ही है तो विदेशी निवेशकों का इंतजार क्यों करना, मांग होने के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत के आधार पर अपने बजट से ही और देसी उधार के पैसे से क्या बेरोजगारी के मोर्चे पर धुआंधार फैसला नहीं लिया जा सकता...?
 
अगर अभी नहीं, तो कल और भी भयावह
बेरोजगारी पर कहते-कहते यह भूले जा रहे थे कि देश की आबादी हर साल सवा दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। देश में जिन ढाई करोड़ से ज़्यादा बच्चों ने इस साल जन्म लिया है, वे भले ही हमें संबंधित विषय के दायरे में न लगते हों, लेकिन जो युवा पिछले साल 20 साल का था, वह 21 का हो जाता है। जो युवा पिछले साल नौकरी या काम नहीं मांग रहा था, वह इस साल मांग रहा है। नए बेरोजगारों की तेजी से बढ़ती संख्या दो करोड़ प्रतिवर्ष से कम नहीं बैठती। यानी बेरोजगारों की फौज में हर साल कम से कम दो करोड़ नए बेरोजगार युवा और जुड़ते जा रहे हैं। अब रोजगार पैदा होने की रफ्तार मौजूदा योजनाकार देख लें। यानी बेरोजगारी पर ही सब कुछ करने का यही समय है, वरना कहीं देर न हो जाए।
 
- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं
 
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