गांव बंद का एक पहलू यह भी

अब यह देखा जाना बाकी है कि देश में इस समय सबसे ज्यादा मुफलिस यह तबका अपने उत्पाद को कितने और दिन तक अपने घर या गांव में रखे रख सकता है.

गांव बंद का एक पहलू यह भी

किसानों के 'गांव बंद' का आज दूसरा दिन है.

गांव बंद नए तरह का आंदोलन है. लिहाजा इसका आगा-पीछा देखना कठिन काम है. अभी दो दिन हुए हैं. हर दिन इसके असर की समीक्षा होगी. धीरे-धीरे पता चलेगा कि आंदोलनकारी किसानों की रणनीति किस तरह बदलती है. यह सवाल बिल्कुल अंधेरे में है कि आंदोलन के नौवें या दसवें दिन क्या हालात होंगे? फिलहाल सूचनाएं हैं कि देश में जगह-जगह इस आंदोलन ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है. अब यह देखा जाना बाकी है कि देश में इस समय सबसे ज्यादा मुफलिस यह तबका अपने उत्पाद को कितने और दिन तक अपने घर या गांव में रखे रख सकता है. यानी ये किसान कब तक शहर जाकर अपना उत्पाद बेचने को मजबूर नहीं होते. बहुत संभव है कि शहर उसे मजबूर कर दे. अगर कर भी दिया तो इस आंदोलन के कुछ हासिल उसे जरूर होंगे. हो सकता है कि इस आंदोलन के दौरान उसे बाजार के कुछ रहस्य हाथ लग जाएं.

गांव में ही बाजार लगाने की सूरत
आराम तलब शहर की भी अपनी सीमा है. इसमें क्या कोई शक है कि गांव के उत्पाद शहर का जीवन आधार है. दूध, सब्जी और हरे मसालों के बगैर उसका काम नहीं चल सकता. सिर्फ गांव बंद आंदोलन ने ही शहर की मंडियों में आवक कम कर दी है. कम आपूर्ति के कारण महंगाई बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. कहीं ऐसा न हो कि शहर का उपभोक्ता सीधे सीमावर्ती गांव से दूध सब्जियों लेने पहुंचने लगे. खुदा न खास्ता ऐसा हुआ तो बाजार और बिचैलियों पर तो भारी आफत आई समझिए. भले ही शहर कस्बे का उपभोक्ता इसे जारी न रख पाए. लेकिन गांव को अगर पता चल गया कि वह अपने उत्पाद का बाजार अपने गांव में ही लगा सकता है तो कृषि उत्पाद की मार्केंटिंग का तो रूप ही बदल जाएगा.

बाजार का ही तो मारा है गांव
इसे दोहराने की जरूरत नहीं कि किसान फिलहाल जितना मारा सरकार की नीतियों का है उतना ही वह बाजार के अधिनायकवाद का भी मारा है. अपने खर्चीले साधन से दूध और सब्जियां लेकर मंडी पहुंचता है. मंडी को पता होता है कि यहां आते-आते ही किसान हांफ गया है. वह किसी भी कीमत पर अपना माल बेचकर ही जाएगा.

मनोव्यापार की भाषा में इसे गरज कहते हैं. इसी गरज में अपना माल वह आधे चैथाई दाम में बेचता है. खुदरा बाजार के रेट से एक तिहाई दाम तक पर बेचने को मजबूर होता है. यानी अगर इस गांव बंद के दौरान कुछ ही गांवों में शहर का व्यापारी या उपभोक्ता मजबूरी में किसान का उत्पाद खरीदने पहुंच गया तो किसान को यह रहस्य समझ में आ सकता है कि गरज क्या चीज होती है. और उसे अगर यह पता चल गया तो बाजार, व्यापारी या बिचैलियों पर आफत आई समझिए.

फार्म आउट-लैट पनप सकते हैं क्या
क्यों नहीं. अगर किसान को पता चल गया कि उसका माल खेत की मुंडेर पर भी बिक सकता है तो हर खेत के बाहर छप्परनुमा बाजार लगने में हफ्ताभर भी नहीं लगेगा. खेत पर ही मंडी बनाने के लिए उसे सरकार से तरले भी नहीं करने पड़ेंगे. आधुनिक प्रबंधन की भाषा में इसे फार्म टू फोर्क यानी खेत से थाली तक कहते हैं. महंगाई घटाने का दावा करती फिरने वाली सरकारों की मजबूरी भले ही व्यापारियों के हित की होती हो, लेकिन सप्लाई चेन को छोटा करने में सभ्य सरकारें इस व्यवस्था के सपने बड़े शौक से दिखाती हैं. अगर किसान आंदोलन की दबिश में फार्म टू फोर्क होता हुआ दिख गया तो देश में सुखद हादसा हो जाएगा. बहुत संभव है कि गांव के ही ट्रैक्टर, बैलगाड़ी, बुग्गीवालों का धंधा अलग से चल निकले.

गांव से खरीदा हुआ माल शहर ले जाने के लिए ये ग्रामीण वाहन मोलभाव करने की हैसियत में दिख रहे होंगे. जैसी पर्चियों अभी किसानों को सरकारी और गैर सरकारी मंडियों में कटवानी पड़ती हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि वैसी ही पर्चियां इन कल्पित मंडियों में शहरी लोगों को कटवानी पड़ें. इसे कोई ख़ामाख़्याली न समझे. कंरातियों के पहले आमतौर पर उसे खामाख्याली ही समझवाया जाता है. लेकिन कई बारमजलूम का अधिनायकवाद भी आ जाता है. ज़ालिम व्यवस्थाओं को हारते भी देखा गया है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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